मेरा आठवाँ प्रकाशन / MY Seventh PUBLICATIONS

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बुधवार, 21 दिसंबर 2022

नए रचनाकारों के लिए आवश्यक जानकारी।

 नए रचनाकारों के लिए आवश्यक जानकारी।


1. रचनाकार का नाम पता और संपर्क।

2. रचना की विधा – कविता , कहानी , नाटक, व्यंग इत्यादि।

3. रचना की भाषा।

4. रचना कंप्यूटर पर है या हस्तलिखित।

5. A-4 साईज पेपर पर रचना के पृष्ठ।

6. पुस्तक का वांछित आकार – 5 x 8, 5.5 x 8.5 6 x 9 इंच या कोई और।

7. पुस्तक हार्ड बाउंड चाहिए या पेपर बैक। हार्ड बाउंड में जेकेट की जरूरत है क्या ।

8. कवर डिजाइन करने में लेखक सक्षम हैं या करवाना है। कवर चित्र और डिजाइन अलग होते हैं।

9. ISBN (International Society of Book Number) : चाहिए या नहीं।

10. बैक कवर पर क्या रखना चाहते हैं।

11. रचनाकार की फोटो रखना चाहते हैं या नहीं । रखना हो तो कहाँ चाहते हैं।

12. पुस्तक के भीतर का फांट कौन सा (नाम) और किस आकार (साइज) का चाहते हैं।

13. पुस्तक में कोई चित्र (श्वेत श्याम या रंगीन) या टेबल ( तालिका) है क्या।

14. रेड़ी टू प्रिंट पुस्तक देने पर प्रकाशक एक महीने का समय माँगता है किंतु काम होते - होते कभी - कभी  दो महीने भी लग जाते हैं। कुल मिला कर पांडुलिपि से पुस्तक तक आने में 90 से 120 दिन लग सकते हैं । रचनाकार इसके लिए तैयार हैं क्या।

15. रचनाकार के कितनी मुफ्त प्रतियाँ चाहिए । उसके अनुसार ही प्रकाशक अपना दर तय करता है।

16. प्रकाशक ज्यादातर पुस्तक के साथ पूरा पेमेंट माँगते हैं. अधिकतम दो किश्तों ( 60% – 40%) तक राजी होते हैं । पहला किश्त पुस्तक के साथ और दूसरा रेड़ी टू प्रिंट सर्टिफिकेट (प्रमाणन) के साथ। 

17. प्रूफरीडिंग का काम मूलतः रचनाकार के पास होता है। न भी हो तो भी कम से कम तीन प्रूफरीडिंग तो रचनाकार को करनी ही पड़ती है क्यों कि प्रिंट के पहले फाईनल प्रमाणन रचनाकार को मेल द्वारा प्रकाशक को  प्रेषित करना पड़ता है। तसल्लीबख्श प्रूफ रीडिंग के लिए एक दो बार आन लाइन चर्चा की भी जरूरत होती है।

18. पुस्तक प्रिंटिंग में प्रति पृष्ठ लागत 60-90 पैसे आती है । कवर पर रु.20-24 आते हैं. इस पर 18% तक जी एस टी लगता है. इसे ध्यान में रखकर पुस्तक का विक्रय मूल्य तय करना होता है।

19. प्रकाशक विक्रय मूल्य और लागत के अंतर का कुछ प्रतिशत लेखक को रॉयल्टी के रूप में देता है।

20. अमेजॉन, फ्लिपकार्ट जैसे फलकों पर बिक्री होने पर  विक्रय मूल्य का 45-50 प्रतिशत वे वितरण मूल्य ले लेते हैं , इसलिए लेखक को बहुत कम पैसे मिलते हैं। इन फलकों की नीतियाँ नेट पर देखी जा सकती हैं।

21. साधारणतः अच्छी फार्मेटिंग में प्राक्कथन, भूमिका. मेरी बात, लेखक परिचय , विषय सूची, आभार, समर्पण प्रथम रचना इत्यादि दाहिने पृष्ठ से शुरू की जाती हैं। इससे कुछ पृष्ठ खाली छोड़ने पड़ते हैं। क्योंकि यह पृष्ठ लागत में गिने जाते हैं इसलिए इसमें लेखक की सहमति जरूरी होती है।

अन्य किसी भी प्रकार की जानकारी के लिए आप मुझसे 8462021340 पर संपर्क कर सकते हैं। प्रकाशक विशेष का जानकारी के लिए आप सीधे प्रकाशक से भी संपर्क कर सकते हैं। 


मेरे द्वारा प्रकाशन प्रक्रिया करवाने पर प्रकाशक से केवल रेड़ी टू प्रिंट का काम ही करवाया जाता है और उसी की लागत प्रकाशक के दी जाती है। पूरे काम की पूरी लागत से बाकी काम का हिस्सा मेरा होता है। हाँ यह निश्चित है कि यदि आप पूरा काम प्रकाशक को सौंपें तो लागत ज्यादा लगेगी और गुणवत्ता (क्वालिटी) और माथापच्ची - मेहनत आप एक बार आजमाकर ही देखिए।

बुधवार, 14 सितंबर 2022

राजभाषा के लिए कुछ करें

 

राजभाषा के लिए कुछ करें


अब हम आजादी के 75 वर्ष और अमृत महोत्सव / वज्रोत्सव मना रहे हैं । 14 सितंबर 1949 को हमने हिंदी को राजभाषा के रूप में अपनाया। संविधान के साथ ही राजभाषा भी पदासीन हुई। आजादी के अमृत महोत्सव या वज्रोत्सव में हिंदी के लिए कोई विशेष कार्यक्रम होता नहीं दिख रहा है। कहने को फेसबुक और वाट्सएप पर हिंदी में पोस्ट तो आते हैं किंतु हिंदी की बेहतरी के लिए पोस्ट नहीं आते।

भाषा संबंधी पोस्ट में भी ज्यादातर ऐसे होते हैं जिसमें हिंदी  की अंग्रेजी से तुलना होती है। कहा जाता है  हिंदी में चरण शब्द के पर्यायवाची आठ नौ हैं पर अंग्रेजी में मात्र लेग या फुट (Leg or Foot) हैं। हिंदी में चाचा, काका, ताऊ, मौसा, मामा, छोटे पापा, बड़े पापा के लिए अंग्रेजी में ही शब्द अंकल है और वैसे ही चाची, ताई, मौसी, मामी के  लिए आँटी। इसलिए अंग्रेजी से हिंदी सशक्त है। बेहतर भाषा है। इनको यह समझ नहीं आता कि अनेक पर्यायवाची होने की वजह से हिंदी के विद्यार्थी को अधिक शब्दों की जानकारी और उनके लिंग, वचन व प्रयोग की जानकारी रखनी पड़ती है। इस कारण यही विशेषता उनके लिए भाषा को जटिल बनाती है। अंग्रेजी में इतने पर्यायवाची न होने के कारण वे एक ही शब्द की जानकारी से काम चला लेते हैं। यह भाषा को सरल बनाती है। मैं यह नहीं कहना चाह रहा कि अंग्रेजी हिंदी से बेहतर है पर इसे भी मानने को तैयार नहीं हूँ कि हिंदी अंग्रेजी से बेहतर है।

मेरी सोच में भाषाओँ की तुलना गलत है। मैं इसे बेईमानी ही नहीं बेवकूफी भी कहना पसंद करूँगा। जरा सोचिए की यदि आपसे कहे – मेरी  माँ तुम्हारी माँ से अच्छी हैतो आपको कैसा लगेगा ? आप इसे मान लेंगे ? नहीं ना!  मेरी माँ आपकी माँ से सुंदर हो सकती है, ज्यादा पढ़ी लिखी हो सकती है ज्यादा हृष्ट-पुष्ट हो सकती है, पर अच्छी नहीं कही जा सकती, क्यों कि अच्छी में इनके अलावा भी अन्य कई बातें सम्मिलित हो जाती  हैं। उनका रिश्तेदारों , परिजनों , अड़ोसी-पड़ोसियों से व्यवहार और भी बहुत सी बातें समा जाती हैं। वैसे ही किसी भी भाषा के व्यक्ति को उसकी भाषा से दूसरे की भाषा को मानना स्वीकार्य नहीं होगा। इसीलिए तो मैं कहता हूँ कि भाषा की तुलना बेईमानी ही नहीं बेवकूफी भी है।

अब देखिए हिंदी निदेशालय जो राजभाषा का स्वरूप निर्धारित करती है उसने मानकीकरण व सरलीकरण के तहत निर्णय लिया कि अनुस्वार की जगह वर्ग के पंचम अक्षर का प्रयोग हो सकता है। यह हो सकता है - वाक्याँश साफ कहता है कि जरूरी नहीं हैं। लेकिन हिंदी के चहेते तो क्वोरा  (quora) पर भी लिख रहे हैं कि हिंदी वर्तनी सही है और हिन्दी गलत। ऐसे ही, और भी मानकीकरण के प्रयास हैं जो हिंदी के साहित्यिक स्वरूप को बिगाड़ती हैं, पर भाषा को सरल बनाती हैं । लेकिन वह हिंदी साहित्य को नहीं बदलतीं । जो हिन्दी वर्तनी को गलत ठहरा रहे हैं, उन्हें यह समझने की जरूरत है कि हिंदी निदेशालय राजभाषा का स्वरूप निर्धारित करती है, साहित्य का नहीं। कुछ तो सरलता के लिए और कुछ तो टाईपराइटरों में सुविधा के लिए बदलाव मान लिए गए हैं। साहित्य में आज भी हिन्दी ही सही वर्तनी है। इस पर गौर कीजिए, निदेशालय भी तो हिंदी को सरलीकृत करने की ओर बढ़ रही है। अब यह तो कहा ही जा सकता है कि अंग्रेजी तो कुछ हद तक सरलीकृत है ही। इस लिए अंग्रेजी को हिंदी से कमतर कहना असहनीय व अशोभनीय है।

हमारे हिंदी के चहेते जो हिंदी को देश के माथे की बिंदी कहते फिरते हैं , जो हिंदी को विश्व भाषा के रूप में देखना चाहते हैं – वे इन दिनों अंग्रेजी को हिंदी से नीचा दिखाने में लगे हैं। उन्हें चाहिए कि वे हिंदी के उत्थान के लिए कुछ करें। हिंदी में कंप्यूटर के प्रोग्राम लिखें गूगल जैसा की पोर्टल बनाएँ, ताकि कंप्यूटर अंग्रेजी के बिना केवल हिंदी के बल-बूते पर चल सके।

बुरा तो लगता है पर हमारी एक जुटता और क्षमता इतनी ही है कि हम इन 70 - 72 वर्षों में हिंदी को सही ढंग से राजभाषा भी नहीं बना सके। राष्ट्रभाषा की क्या कहें। आज हिंदी भाषाई राज्यों में भी सरकारी  कामकाज पूरी तरह से हिंदी में नहीं होता है, फिर दक्षिणी राज्यों की क्या कहें। ऐसी तुलना से भाषाओं में आपसी वैमनस्य ही होगा । किसी की भलाई नहीं होने वाली। हर माँ की तरह हमें हर भाषा का सम्मान करना होगा।

यह एक जटिल मुद्दा है। इस पर गंभीर चिंतन मनन की जरूरत है। किसी को नीचा दिखा कर उसका अपमान कर सकते हैं, पर हम ऊँचे नहीं उठ सकते।


गुरुवार, 1 सितंबर 2022

निराशा

निराशा


यदि यह दोस्त नहीं 

तो कोई बात नहीं, 

कोई और होगा।

और नहीं तो 'और' होगा।

पर कोई तो होगा।


यदि कोई न मिला तो कारण ?

वह ही होगा, 

कमी कहीं उसमें ही होगी ,

उसे ही खोजना पड़ेगा।


कोई दोस्त होता तो वह बताता,

कमीं कहाँ है,

पर यहाँ तो समस्या ही 

दोस्त न होने की है।


दुनिया इतनी बड़ी है कि यहाँ, 

हर किसी को मानसिक साथी 

मिल ही जाता है।


यदि किसी को न मिले तो 

दुनिया बदलने की मत सोचो,

संभव नहीं है , 


यहाँ तरह तरह के लोग हैं ,

कितनों को बदलोगे?


खुद को बदलने की सोचो,

सबसे आसान तरीका है।

परेशान होने और निराश 

होने से समस्या का 

समाधान नहीं होता।


यदि परेशान हो तो सोचो,

निराश हो तो सोचो,

क्यों परेशान हूँ?

क्यों निराश हूँ?


इससे पार पाने के लिए 

क्या कर सकता हूँ?

क्या कर रहा हूँ ?

क्यों नहीं कर रहा हूँ?

मैं निराश क्यों हूँ?


क्या?

श्वास लेने के लिए,

हवा नहीं मिल रही?

चलने-बैठने-सोने के लिए 

जमीं नहीं है?

जब प्यास लगती है तो 

पीने को पानी नहीं मिल रहा?

जब भूख लगती है तो 

भोजन नहीं मिल रहा?


इनमें से कोई जवाब यदि हाँ है

तो जीवन खतरे में 

पड़ सकता है।

तब परेशानी और निराशा 

दोनों जायज हैं।

वरना निराशा की कोई,

वजह नहीं बनती। 


बाकी किसी के भी बिना 

जिया तो जा सकता है।

यह हमारी मानसिक लकवा की

स्थिति है कि 

हम निराश हो जाते हैं, 

हर छोटी सी बात पर 

छोटी सी असफलता पर।

इससे उबरिए। 

पूछिए अपने आप से 

मैं निराश क्यों हूँ? और 

खोजिए समाधान। 

निराशा दूर हो ही जाएगी।

-------------- 😊

बुधवार, 20 जुलाई 2022

गुरु पूर्णिमा 2022 – हिंदी भाषा (सुझाव और विमर्श)


गुरु पूर्णिमा 2022 – हिंदी भाषा

 (सुझाव और विमर्श)

गुरुओं को पुस्तक भेंट करते हुए

शिक्षिका द्वारा पुस्तक का अनावरण विमोचन का रूप लेता हुआ


आषाढ़ी पूर्णिमा - उत्तर भारतीय आषाढ़ माह का अंतिम दिन और दक्षिण भारतीय केलंडर के आषाढ़ माह का पंद्रहवाँ दिन जो महीने के मध्य होता है – जिसे भारत के विभिन्न राज्यों और अंचलों में विभिन्न नामों  से – आषाढ़ी पूर्णिमा, गुरु पूर्णिमा, व्यास पूर्णिमा, व्यासवासरं के रूप में मनाया जाता है। 

 इस बार 11 जुलाई 2022 (13 जुलाई 2022 गुरु पूर्णिमा के अवसर पर आयोजित पर्व का दिन) मेरे लिए विशेष महत्व का रहा। कैसे ? आगे पढ़िए –

 कुछ समय पहले इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन में कार्यरत में एक साथी हैदराबाद आया था। मुलाकात के लिए उसने मुझे अपने ससुराल में लंच के लिए बुलाया। वहाँ जाकर जाना कि उनका ससुर मेरे बचपन के साथी (मेरे पिताजी के बचपन के साथी का बेटा) का चचेरा भाई है। वहाँ से मेरे दोस्त के परिवार वालों की खबर मिली। कुछ दिन बाद मैं मेरे उस दोस्त की बहन के घर गया जो खुद मेरी बहन की क्लासमेट भी थी। वहाँ उसने अपने स्कूली साथियों से बात कराया जिन्हें मैं बचपन से जानता था। उनमें से एक मेरी स्कूली साथी की बहन निकली। उसको अपना मोबाइल नंबर देकर कहा कि बहन को आपत्ति न हो तो कहना मुझे फोन  करे। फोन आया, बातें हुई तो जाना कि हमारी पाँचवीं  कक्षा की क्लास टीचर श्रीमती कृष्णवेणी जी हैदराबाद में ही कहीं रहती हैं और उसके बहन के पास उनका फोन नंबर भी है। फिर क्या था खोज खबर शुरु हुई। दो महीने बाद इंतजार के बाद टीचर का फोन नंबर मिला। उनको संदेश भेजा , अपना परिचय दिया। बचपन के फोटो भेजे । तब जाकर उनको मेरी याद आई और उन्होंने पहचाना। मेरी तो खुशी का ठिकाना नहीं रहा।

 इन्हीं दिनों मेरी सातवीं पुस्तक हिंदी भाषा (सुझाव और विमर्श) की तैयारी चल रही थी। मन में आया कि क्यों न यह पुस्तक मेरी शिक्षिका को ही समर्पित की जाए। मैंने मेडम से स्वीकृति माँगी जो उन्होंने सहर्ष दिया। साथ यह भी बताया कि वे एक दो महीने में नए घर में जा रही हैं, उसके बाद ही उनसे मुलाकात हो सकती है। जून 2022 के अंतिम सप्ताह में मेडम ने फोन कर सूचित किया कि वे नए घर में आ चुकी हैं और मैं मुलाकात कर सकता हूँ, साथ में उन्होंने पता भी बताया। तय दिन उनसे मुलाकात हुई। मेरे बचपन के बारे में बहुत सी बातें हुईं. क्लास के अन्य छात्र छात्राओं के बारे में भी बात हुई। फिर उन्होंने बताया कि 11 जुलाई 2022 को गुरु पूर्णिमा के अवसर पर (इस बार गुरु पूर्णिमा 13 जुलाई 22 को पड़ रही थी ) AIM for Seva Boys Hostel Machcha Bolaram में एक समारोह आयोजित किया जा रहा है। यदि मुझे एतराज न हो तो मैं अपनी पुस्तक का समर्पण भी वहीं कर सकता हूँ, अन्यथा 13 जुलाई की शाम मेडम के घर पर कर सकता हूँ।


 

1965-66 में मेरी कक्षा 5 की क्लास टीचर 
श्रीमती कृष्णवेणी

मैंने इस पर विचार किया तो लगा समारोह में सबके सामने समर्पण करने से आगंतुकों को भी मेरे पुस्तक की जानकारी हो जाएगी इसलिए मैंने समारोह में ही समर्पण करने का निर्णय किया और मेडम को सूचित किया।

पुस्तक के  समर्पण व अनावरण पर समूह चित्र
शिक्षिका का शॉल ओढ़ाकर सम्मान कर प्रणाम करते हुए

शॉल ओढ़ाकर सम्मान के बाद नमस्कार

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11 जुलाई 2022 शाम तयशुदा समय 5:00 बजे  AIM FOR SEVA Boys Hostel पहुँचा। नागपुर से बहन भी आई हुई थी तो उसे भी साथ ले गया। वहाँ आयोजन की पूरी तैयारी थी। शिक्षिका के अलावा उनके दो गुरु भी आए हुए थे। काफी लोग भी आए हुए थे जिसमें महिला और पुरुषों के अलावा बच्चे भी थे।

 सभा का प्रारंभ छोटे गुरुजी द्वारा व्यास महिमा के साथ प्रारंभ हुआ। तत्पश्चात आगंतुक सभासदों ने विभिन्न ग्रंथों से काव्यपाठ किया। किसी ने गीता के श्लोक पढ़कर व्याख्य़ा की, तो किसी ने वेदों से काव्यपाठ किया और व्याख्या किया। इसी बीच दो छोटी 10 -12 साल की बच्चियों ने वेद पाठ किया जो सराहनीय था। 

गुरुजन शॉल ओढ़ाकर मेरा सम्मान करने पर

गुरु पूर्णिमा पर अपनी बात रखने के लिए तैयार

शॉल ओढ़े हुए शिक्षिका के साथ
 

आयोजन के बीच मुझे भी मौका दिया गया और बताया गया कि अभी केवल गुरु पूर्णिमा के अवसर पर ही कुछ बोलना है, पुस्तक समर्पण का काम अंत में हो सकता है। मैंने प्रथम गुरु माताजी को प्रणाम करते हुए अपनी बात रखी। करीब 7-8 मिनट कथन के बाद जब मैं अपनी जगह को प्रस्तुत हुआ तो बड़े गुरुजी का आदेश हुआ कि में अपनी पुस्तक का समर्पण कार्यक्रम भी अभी ही कर लूँ।

 आज्ञापालन करते हुए मैंने पहले गुरुओं का सत्कार करने के लिए शॉल लेकर जैसे ही बड़े गुरुजी के पास पहुँचा तो उन्होंने आपत्ति की और कहा कि पहले अपनी शिक्षिका का आदर करें। इधर शिक्षिका थीं कि उनके गुरुजी के रहते, गुरुजी के सम्मान के बिना अपना सम्मान कराने में हिचक रहीं थी। मैं दुविधा में पड़ गया। इतने में हालात को सँभालते हुए छोटे गुरुजी ने शिक्षिका से कहा कि जब गुरुजी कह रहे हैं तो वैसे ही करने दीजिए । बड़े गुरुजी ने तब सफाई पेश किया कि यह हम लोगों से शिक्षिका के द्वारा ही परिचित हैं इसलिए उन्हें पहले अपनी शिक्षिका का आदर करना चाहिए।

 मैंने पहले अपनी शिक्षिका को शॉल ओढ़ाकर प्रणाम कर आदर किया। फिर बारी-बारी से दोनों गुरुओं का भी आदर सत्कार किया। तत्पश्चात शिक्षिका को समर्पण स्वरूप गिफ्ट पैक में लिपटी एक पुस्तक भेंट किया और साथ में गुरुओं को भी एक-एक प्रति भेंट किया। मेडम के पुस्तक खोलकर अनावरण करने पर सबों ने एक फोटो की इच्छा जाहिर किया। तीनों के साथ मैं भी एक पुस्तक दिखाते हुए साथ हो लिया। इस फोटो में ऐसा लगने लगा कि पुस्तक के अनावरण और विमोचन का समाँ है।

 मेरी पुस्तक समर्पण पर बड़े गुरुजी बहुत ही प्रसन्न हुए । उन्होंने भूरी-भूरी प्रशंसा की कि 1965-66 में पाँचवीं कक्षा की क्लासटीचर को खोजकर 56-57 साल बाद 2022 में उनको पुस्तक समर्पित करना और पादाभिवंदन करना कोई अपूर्व गुरुभक्ति वाला छात्र ही कर सकता है। मैं इनकी गुरुभक्ति और श्रद्धा को प्रणाम करता हूँ। वे इतने पर ही नहीं रुके और मुझे जबरदस्ती बिठाकर शॉल ओढ़ाकर प्रणाम करने लगे। मैंने जी भर कर ऐतराज जताया कि आप तो मेरी शिक्षिका के गुरुजी हैं आपका इस तरह मुझे प्रणाम करना एकदम अनुचित है। पर वे फिर भी नहीं माने। कहने लगे मैं आपके तन को नहीं आपकी गुरुभक्ति और श्रद्दा को प्रणाम करता हूँ। उनकी इस बात पर पूरा सभागार तालियों से गूँज उठा।

 इस तरह पुस्तक समर्पण का यह अवसर पुस्तक विमोचन व अनावरण के रूप में तबदील हो गया।

 इसके बाद कार्यक्रम आगे बढ़ाते हुए अन्य सभासदों ने गुरु के प्रति कुछ शब्द कहे, कुछ ने गीता और उपनिषद से श्लोक पढ़कर व्याख्या किया।

 इन सबके बाद गुरुजी ने सभासदों को गुरु-महिमा पर व्याख्यान दिया और बताया कि गुरु की जरूरत ही क्या है और गुरु के न होने से क्या-क्या नुकसान हो सकते हैं या किस – किस लाभ से वंचित हो सकते हैं ?

 समापन की ओर बढ़ते हुए सभी सभासदों ने गुरुओं की स्तुति किया । प्रणाम तथा आरती के साथ सभा का समापन हुआ।

 सभा के उपरांत भोजन का भी आयोजन था। उसी दौरान कुछ लोगों ने पुस्तक लेना चाहा किंतु मेरे हाथ में एक ही प्रति थी । एक महिला ने तुरंत ही कीमत देते हुए पुस्तक पकड़ लिया । एक अन्य सज्जन भी पुस्तक चाह रहे थे किंतु मेरे पास नहीं होने से उनको निराशा हुई। बरसात में मुझे ओला / उबेर परिवहन नहीं मिलने पर निराश देखकर वे मुझे घर तक छोड़ने को तत्पर हुए। घर पर छोड़ते हुए उन सज्जन ने पुस्तक ले जाने की मंशा जाहिर की और हाथों-हाथ मूल्य चुकाकर पुस्तक अपनी कर गए।

 इस तरह 11 जुलाई 2022 का दिन मेरे लिए अद्भुत रहा। पहली बार मेरी पुस्तक का समर्पण किसी आयोजन में हुआ और मेरी किस्मत कि इसी आयोजन ने एक अनावरण और विमोचन का रूप ले लिया।

 मुझे समझ नहीं आ रहा कि मैं अपनी किस्मत, शिक्षिका और आयोजकों का किन शब्दों में अभार व्यक्त करूँ।

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गुरुवार, 30 जून 2022

पुस्तक समीक्षा - ऊँचे अटरियों की सिसकियाँ : लेखिका श्रीमती बिम्मी कुँवर सिंह

 

पुस्तक समीक्षा - ऊँची अटरियों की सिसकियाँ

पुस्तक ऊँची अटरियों की सिसकियाँ श्रीमती बिम्मी कुँवर सिंह की रचनाओं की पहली प्रकाशित पुस्तक है। यह पुस्तक एक कहानी संग्रह है। 103 पृष्ठों की इस पुस्तक में कुल 12 कहानियाँ संकलित हैं। पुस्तक सर्व भाषा ट्रस्ट, नई दिल्ली से वर्ष 2021 में प्रकाशित हुई है। आवरण चित्राँकन श्री मयंक शेखर ने किया है। जैकेट के साथ सख्त जिल्द की इस आकर्षक पुस्तक की कीमत मात्र रु. 200 रखी गई है।

पुस्तक की भूमिका वरिष्ठ साहित्यकार एवं राजभाषा अधिकारी श्री धीरेंद्र सिंह द्वारा लिखी गई है। अपनी बात में बिम्मी जी ने बताया है कि बचपन में माई ( परनानी ) स्व. रामकेसरा कुँवर सिंह और माता श्रीमती शीला सिंह से सुनी कहानियाँ ही बाल-मन से होकर कागज पर उतरी हैं। लेखन का प्रोत्साहन माँ की तरफ से मिला। शायद इसीलिए लेखिका ने इस पुस्तक को अपनी परनानी और माता जी को समर्पित किया है। बिम्मी जी ने अपने इष्ट देव और गुरुदेव से शुरु करते हुए जीवनसाथी संजय कुमार सिंह, प्रकाशक सर्व भाषा ट्रस्ट के श्री केशव मोहन जी और वरिष्ठ साहित्यकार श्री धीरेंद्र सिंह के साथ-साथ परिवार के अन्य सभी सदस्यों का आभार व्यक्त किया है।

 पुस्तक की पहली कहानी ही पुस्तक का शीर्षक बनी है, जो मुझे सटीक लगी क्योंकि पुस्तक की अधिकतर कहानियाँ संभ्रान्त और रईस घरानों की स्त्रियों के साथ बीतने वाली और छुपाए जाने वाली निंदनीय और घृणित कृत्यों को उजागर करती हैं। एकाध कहानी में औरत की जिद त्रिया हठ का अनूठा नतीजा है। नए जमाने की सोच को भी सुंदर तरीके से उजागर किया गया है।

 शीर्षक कथा ऊँचे अटरियों की सिसकियाँ में पुस्तक की आधारभूत समस्या को बहुत ही बारीकी से विस्तार दिया गया है। कैसे, किन मजबूरियों में महलों की नारियों को पुरुष सत्ता की बुराईयों को झेलना पड़ता है, किन कारणों से कभी-कभार इन उच्च कहलाने वाले समाज की नारियों को भी कोठे की शोभा बननी पड़ती है – इन परिवेशों का मार्मिक चित्रण करती ये कहानी संपन्न कहाने वाले इस समाज की कुरपीतियाँ, अश्लीलता और अंधकार को उजाले में लाकर, उजागर करने की सफल कोशिश है।

 कहानी सिस्टर रोमिल्ला में समाज में एक नारी के साथ सवर्ण के अत्याचार की कथा है। पंचायत ने भी सवर्ण का ही साथ दिया। पुरुष के सर पर बला आने पर उसी सवर्ण को इस संवेदनशील महिला हृदय ने माफ किया और उनकी बेटी को पिता की सेवा सुश्रुषा के लिए भेज दिया। खुद मरीजों की तीमारदारी में अपना दिन बिताना ही खुद की नियति बना लिया।

 कहानी अबोध कुल्टा एक ऐसी नारी की कहानी है जो परिवार की आवश्यकतावश किसी रिश्तेदार की सेवा में गई। किंतु वह वहाँ के पुरुष की नजर चढ़ गई। पुरुष ने अपने परिवार की मान मर्यादा को तो ताक पर रखा ही, साथ में बेचारी नारी की मर्यादा को भी नहीं बख्शा। पंचायत के निर्णय से बेचारी को अत्याचारी की ही पत्नी बनना पड़ा पर उस अत्याचारी को साहस नहीं था कि घर ले जाए क्योंकि घर पर पूरा परिवार और उसकी ब्याहता थी। घर के बड़ों ने तो पुरुष को घर निकाला दे दिया। किंतु उपेक्षित नारी के साथ न्याय करने की किसी को नहीं सूझी।

 कहानी वो पगली समाज की एक विक्षिप्त नारी की गाथा है जिस पर किसी को दया तो नहीं आई किंतु समाज के भेड़ियों ने उसकी मजबूरियों का फायदा उठाकर एक नन्हा सा बालक उसकी गोद कर दिया।

 कहानी उपेक्षा बनी जीवन की उजास में  बहुत ही सुंदर तरीके से बालमन की कुतूहलता और चंचलता को उबारा गया है। बताया गया है कि किस तरह समाज की उपेक्षा और अवहेलना को ढ़ाल बनाकर, उसे ही एक सार्थक जिद की तरह अपनाकर, उसे ही चुनौती समझकर उसने समाज को कैसे ललकारा। उसी के सहारे उस पायदान को भी हासिल किया जिससे समाज को अपना मुँह बंद करना पड़ा और अपना रवैया बदलना पड़ा।

 कहानी कनिया जी में त्रिया हठ का अनूठा उदाहरण है। दर्शाया गया है कि यदि औरत ठान ले तो कुछ भी यानि कुछ भी कर सकती है। उसकी सदाशयता और सहनशीलता बहुत बड़े हद तक उसे रोके रखती है। किंतु हदें पार करने पर वह किसी भी प्रत्याशित-अप्रत्याशित घटना को बखूबी अंजाम दे सकती है।

 कहानी चकाचौंध का सूनापन में समाज के चमक-दमक से परे समाज के ऊंचे तबके के लोगों के व्यक्तिगत जीवन के तनाव व परेशानियों को बहुत ही सुंदर ढंग से उभारा गया है। समाज के परोक्ष रहने वाली इन विषयों को प्रत्यक्ष जाहिर किया गया है। परेशानियों की चरमावस्था में व्यक्ति कैसे अनचाहे निर्णय भी ले लेता है, इसका भी चित्रण है। मालदारों की गरीबों के प्रति तुच्छ और हीनता की  छिपी हुई भावना का सजीव चित्रण यहाँ दिखता है।

 कहानी बरसात की वो रात में बरसात से बचने के लिए रात्रि के पड़ाव में रुके पुराने दोस्त के कर्ज से मुक्ति के लिए उसे मौत के घाट उतारने का घिनौना षड्यंत्र रचने वाली मानसिकता को भी चित्रित किया गया है। यह तो नारी की ही सूझ-बूझ थी जो हालातों से उसे बचा ले गई।

 कहानी फेरुआ एक गरीब की कृतज्ञता का मजमून है। दुत्कारती अम्मा की भी उसने गैंग के लट्ठबाजों की मार से रक्षा की, वो भी अपनी जान जोखिम में डालकर। अततः उसने प्राण गँवा ही लिया।

 कहानी अवसाद की नब्बे रातें में पवित्र प्यार के घिनौने रूप को दर्शाया गया है। पुरुष के ऐय्याशी और नारी भोग की मानसिकता को किया गया है। बहुत सुंदर बुनी गई इस कहानी में शीर्षक की सार्थकता स्पष्ट नहीं हो पाई है।  कहानी में सीख तो है कि प्रेमपाश में लड़कियों को परिवार से संबंध नहीं तोड़ना चाहिए क्योंकि प्रेमी इसका गलत उपयोग कर सकता है। फिर वह बिना सहारे की लड़की को प्रताड़ित करने में हिचकता नहीं है। उसे अनचाही स्वतंत्रता मिल जाती है। परिवार से जुड़े रहने पर लड़की के सहारे का भय लड़के को हमेशा बंधनों में रखता है।

 अंतिम कहानी समर्पण में पुरुष मन की वाचालता , नारी मन का प्यार के प्रति निष्कलंकित एवं निर्बंधित समर्पण को उजागर किया गया है। नारी के आत्मसम्मान को बहुत ही सुंदर भावनात्मक ढंग से प्रस्तुत किया गया है।

 पुस्तक की भाषा में उत्कृष्ता है। शब्द चयन उत्तम है । कहीं-कहीं ग्रामीण और देशज शब्दों का भी साहित्यिक भाषा के बीच प्रयोग हुआ है जो कहानी के वातावरण को और भी जीवंत बना देती है। इससे लेखिका की अमित शब्द संपदा का ज्ञान होता है। पुस्तक की ज्यादातर कहानियाँ महलों और कोठियों के अँधेरे कोने में दुबकी, छुपी या छुपाई गई कालिख को उजाले में लाने का अथक प्रयास करती नजर आती हैं। उच्च कहे जाने वाले समाज की उपेक्षित, प्रताड़ित और ठुकराई गई नारी की मुसीबतों का भरपूर विस्तार है इन संवेदना भरी कहानियों में । पुस्तक की कहानियाँ यह चिल्ला-चिल्ला कर कहना चाहती हैं कि महलों की चकाचौंध में सब कुछ खुशनुमा नहीं होता। उनकी भी अपनी समस्याएँ होती हैं किंतु समाज में साख को बनाए रखने की आड़ में इन्हें अंधेरे कोनों में दुबकाकर-छुपाकर रख दिया जाता है। प्रिंट का फाँट और आकार भी ठीक-ठाक ही है।

 पुरुष प्रधान समाज के समय की ये कहानियाँ संपन्न समाज में पुरुष वर्ग का नारी के साथ व्यवहार, नारी को भोग की वस्तु समझने की मानसिकता पर सीधा प्रहार करती हैं। पुस्तक पूरी तरह इसी ध्येय को समर्पित है। कहानियों की एकरूपता कभी-कभी ऐसा आभास देती है कि लेखिका समाज के पूरे पुरुष वर्ग के ही व्यवहार और मानसिकता पर उँगली उठा रही हैं।

 पुस्तक में कहीं-कहीं वर्तनी की कमियाँ नजर आईं। विरामचिह्न और संधि-समास में हाइफन की भी कमियाँ दिखीं। अक्सर अनुस्वार छूट सा गया है। भाषा की उत्कृष्टता को ध्यान में रखते हुए कहा जा सकता है कि यह कमियाँ मूलतः प्रूफ रीडिंग की कमियाँ हैं, भाषा की नहीं।

 कुल मिला कर बिम्मी जी का यह कहानी संग्रह बहुत अच्छा बन पड़ा है और यह मात्र पठनीय ही नहीं रहा बल्कि संग्रहणीय बन गया है।

मेरी बिम्मी जी से गुजारिश होगी कि वे पुस्तक का एक बार फिर प्रूफ रीडिंग करवा लें एवं नए संस्करण में उन्हें सुधारकर प्रकाशित करें।

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रविवार, 12 जून 2022

पुस्तक समीक्षा - ध्रुवसिंह एकलव्य की 'चीखती आवाजें'

 

पुस्तक समीक्षा – श्री ध्रुव सिंह एकलव्यकी चीखती आवाजें

हाल ही में लखनऊ प्रवास के दौरान साथी ब्लॉगर श्री रवींद्र सिंह यादव के सौजन्य से ब्लॉगर कवि श्री ध्रुव सिंह से मुलाकात का अवसर मिला । उसी मुलाकात के दौरान ध्रुव जी ने मुझे दो पुस्तकें भेंट स्वरूप दिया। एक तो उनकी अपनी पुस्तक – चीखती आवाजें और दूसरी – सबरंग क्षितिज - विधा संगम जो एक संकलन है। आज मैं पुस्तक चीखती आवाजें की समीक्षा को तत्पर हूँ।

यह पुस्तक (चीखती आवाजें) श्री ध्रुव सिंह एकलव्यके निजी कविताओं का संकलन है। यह उनका प्रथम प्रकाशित काव्य संग्रह है। ध्रुव जी ने पुस्तक चीखती आवाजें को अपनी आदरणीया माताजी श्रीमती शशिकला जी को समर्पित किया है। पुस्तक प्राची डिजिटल पब्लिकेशन, मेरठ से वर्ष 2018 प्रकाशित है। पेपर बैक जिल्द वाली , 102 पृष्ठों की इस पुस्तक में कुल 42 कविता संकलित हैं। मूल्य मात्र रु. 110 रखा गया है।

पुस्तक की भूमिका श्री रवींद्र सिंह यादव जी द्वारा लिखी गई है। वे लिखते हैं कि ध्रुव जी प्रयोगधर्मी शैली में विश्वास रखते हैं। पुस्तक में प्रतिरोध का स्वर है। रवींद्र जी कहते हैं कि कुछ रचनाओं में प्रवाह की कमी खटकती है पर वे पाठक को चिंतन के लिए प्रेरित करती हैं।

अपनी बात रखते हुए ध्रुव जी कहते हैं कि -  प्रयोग समाज के लिए जरूरी है और मानव के परिवर्तित होते हुए विचारों पर - मेरे अनुभवों पर आधारित आत्ममंथन ही है पुस्तक चीखती आवाजें। उन्होंने विशेषतः अपने पिताश्री, मित्र व सहयोगियों का आभार व्यक्त किया है।

कविता मरण तक में बीड़ी पत्ती चुनने वाली महिला के मुँह से कहते हैं  - इसमें उसका दर्द भी झलकता है और ध्रुव जी के भाषा की पकड़ भी।

आग में धुआँ बनाकर जो लेंगे कभी,

तब दिखूँगी ! सुंदरी सी मैं।

खत्म होंगी मंजिलें में – मजदूर से कहलवाई गहई कथन पर गौर कीजिए – क्षुधा-तृप्ति पर कितना बड़ा बयान है।

केवल सोचते हुए बुझ जाए यह आग सदा के लिए,

ताकि आगे कोई मंजिल निर्माण की दरकार न बचे।

गलियाँ रंग बिरंगी की ये पंक्तियाँ खुद ही बोलती हैं –

तब भी निःशब्द थी मैं कुचल रहे थे कोठे पर,

दो दीवारों वाले कमरे की ओट में,

अस्मिता मेरी ,दो रोटी देने की फिराक में।

पुनः में मानव के विश्वासों या कहें अंधविश्वासों का मजाक उड़ाती ये पंक्तियाँ देखें -

कर प्रतीक्षा आयेगा , शीघ्र ही  वह दिन नवरात्रों का,

माँगेंगे माटी, माटी उछालने वाले. मेरे आँगन की पुनः।

व्यथित मजदूर, त्यक्ता नारी की व्यथा, मजबूरी में आड़े-तिरछे जायज-नाजायज काम करने को मजबूर फुटपाथ के सहारे जीते लोग, खटमलों का अत्याचार जैसे दर्द का कवि ने बखूबी वर्णन किया है संकेतों से।

विरासत कविता में पुस्तक का एक यायावर पात्र बुधई का कथन सुनिए –

वो अलग बात , जमीन थी उनकी, लगाने वाला मैं ही था।

बुधईहूँ, बेगारी करने वाला , उनके आदेशों पर।

........

आखिर विरासत है अंतिम बुधई का

वही नीम का अकेला पेड़।

जुगाड़ में मजदूरन कह रही है –

साफ नहीं हुई कभी कालिख हाथों की,

चमकती है पतीली हर रोज उसके हाथों से।

परिवर्तित प्राण वायु में यायावर बुधिया अपनी नई जगह की खुशी का व्यंगात्मक विवरण कवि के इन शब्दों से,  ऐसे दे रहा है -

कल परसों कूड़ा फेंका करता था जहाँ,

बुधिया सोता है वहीं चैन की नींद,

हमारी फोंकी हुई दो रोटी खाकर,

बड़े आराम से।

बुधई का बेटा  - एक मजदूर की निरीह व्यथा-कथा –

रगड़ रहा है किस्मत अपनी,

बदल जाए संभवतः बार-बार रगड़ने से,

.......

निरंतर प्रयासरत है, बदलने को अपनी किस्मत,

उन्हीं मैले-कुचैले पोछों से ! बुधई का बेटा।

फुटपाथ पर पड़े निरीह लोग, आनंदित होते खटमल, का व्यंगत्मक चित्रण किया है ध्रुव जी ने।

भेद चप्पलों का में जनाजे का विचित्र व्यंगात्मक वर्णन देखें –

आज फिर से चल रहे हैं, आठ पैरों वाले कुछ इंसान

उठाए काँधों पर बाँस की तख्ती के बहाने, मूक से इंसान को।

सशक्तिकरण -  में कवि ने सवाल उठाया है कि किसका सशक्तिकरण हो रहा है, किसका होना चाहिए ? सामाजिक कुप्रबंधन पर निशाना साधा है।

चिंता होती है सशक्तिकरण इनका हो,

मैला ढो रही लादकर बच्चों को काँधे,

भट्ठों में खाँसती, उठ-उठकर प्राणवायु के लिए।

अठन्नी – चवन्नी में  नाजायज व अनिच्छित काम करने को मजबूर इन गरीबों का व्यथा का वर्णन कवि ने इस तरह किया है -

बदमाश बेगैरत हैं, कितने ! छोटे ये सौदागर,

बेच रहे  केवल पेट का खातिर,

स्वाद बनाने वाले, बाबुओं के मुँह का

मौत-सा सामान।

कवि ध्रुव सिंह अपनी कविताओं में समाज के उन तथाकथित अंगो को चुना है जिसे समाज ने तुच्छ माना और अपने मुख्य धारा में जगह देने से वंचित किया। ध्रुव जी ने अपनी सशक्त कलम से समाज के उन त्याज्य माने गए इन मजबूर तबकों को समाज का आवश्यक हिस्सा समझते मानते हुए – उन सबकी आवाज को बुलंदी से उठाया है। विभिन्न मजदूर वर्ग, सड़क झाड़ते हुए , महलों में पोछा लगाते हुए, सड़कों पर पत्थर तोड़ते हुए, भवन निर्माण में लगे हुए, रेल गाड़ियों, बसों और चौराहों पर चीजें बेचते हुए, जगह-जगह पर सिगरेट तंबाखू जैसी नशीली वस्तुएँ बेचते हुए  मेहनती तबके के लोगों और निर्लज्ज नजरों के चुभन से त्रस्त शिकार नवयौवनाओं की व्यथा का संबोधन ध्रुव जी ने पूरी-पूरी तन्मयता और सफलता से किया है। इन सबको ध्रुव जी ने अपना आवाज दी है।

देखिए, हालातों को अपना भाग्य समझ बैठे इन मजबूरों का दर्दनाक चित्रण !!!

सब्जी वाली में  कहती है –

सब्जियाँ कम खरीदते हैं लोग, मैं ज्यादा बिकती हूँ

नित्य उनके हवस भरे नेत्रों से, 

हँसती हूँ केवल यह सोचकर

बिकना तो काम है मेरा कौड़ियों में ही सही।

दौड़ता भागती में मजदूर का कथन –

पाऊँगा परम सुख, सूखी रोटी से

फावड़ा चलाते हुए ऊबड़ खाबड़ रास्तों पर ।

....

समतल बनाना है! दौड़ती भागती, 

चमचमाती जिंदगी के लिए

जीवन अंधकार में स्वयं का रखकर ।

पुस्तक का यायावर, बुधिया के धान में बिंबों व प्रतीकों के माध्यम से ध्रुव जी ने एक पुत्री की भावना को बखूबी चित्रित किया है। माँ दीपक जलाना में भी नारी व्यथा का मार्मिक चित्रण मिलता है। कविता बड़ी हो गई में पुत्री कब बोझ बन गई, का विस्मय पूर्ण वर्णन है।

कविता वह तोड़ती पत्थर में ध्रुव जी ने हिंदी के सशक्त हस्ताक्षर महाप्राण सूर्यकाँत त्रिपाठी निराला जी की अजरामर कविता को विस्तार ही दे दिया है या कहिए कि नवीनता दे दिया है।

अंतर शेष है केवल , कल तक तोड़ती थी  

बे-जान से उन पत्थरों को,

अब तोड़ते हैं, वे मुझे निर्जीव-सा पत्थर समझकर ।

ध्रुव जी की भाषा सरल है, शब्दों में किसी प्रकार की क्लिष्टता नहीं है। शब्द चयन अच्छा है और उसमें विविधता है। शब्द चयन की विविधता ने कविता की पंक्तियों को गहराई और गूढ़ता दी है। मैं ध्रुव जी की पुस्तक चीखती आवाजें को अकविता की श्रेणी में ही रखना चाहूँगा। कुछ आलोचक व समीक्षक इसे गद्य कविता भी कह सकते हैं।  कुल मिलाकर यह रचना समाज की कुरीतियों पर दोहरा प्रहार करती है।

मैं श्री ध्रुव जी की कलम को और अधिक मुखर देखना चाहूँगा। ईश्वर उनकी कलम को अनियंत्रित शक्ति दें।

 

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शनिवार, 4 जून 2022

पुस्तक समीक्षा श्रीमती रेणु बाला की पुस्तक "समय साक्षी रहना तुम" ।

 

पुस्तक समीक्षा

                                                                                                 समीक्षक : माडभूषि रंगराज अयंगर

                               दिनाँक – 04 जून 2022

पुस्तक का नाम         - समय साक्षी रहना तुम

रचनाकार                 - सुश्री रेणु बाला

विधा                        - कविता

प्रकाशक             - सरोज प्रकाशन, सोनीपत, 2021

पृष्ठ                           - 124

मूल्य                  - भारत में 150 रुपए ,                                             विदेशों में $ 7 रखा गया है।

बाइंडिंग                    - सख्त जिल्द (जैकेट रहित)

 

समय साक्षी रहना तुम श्रीमती रेणु बाला जी की पहली प्रकाशित कविता संग्रह है। इसमें कुल पाँच भागों में 65 कविताओं को संकलित किया गया है।

भाग 1 – वंदना  में सरस्वती वंदना से शुरू होकर आदरणीयों का वंदन प्रस्तुत है।

भाग 2 – रिश्तों का बंधन में विभिन्न आत्मीय रिश्तों के बारे में कविताएँ प्रस्तुत हैं।

भाग 3 – कुदरत के पैगाम में प्रकृति परिचय संबंधी कविताएँ प्रस्तुत है।

भाग 4 – भाव प्रवाह की कविताओं में मन से मन की प्रीत का भावोद्वेग प्रस्तुत है।

भाग 5 – समसामयिक और अन्य में विविध आयामों की कविताएँ संकलित की गई हैं।

 रचनाकार ने अपनी पहली कविता संग्रह को अपने सास – ससुर और माताजी को समर्पित किया है। मुखावरण  श्री राकेश कुमार, गुरुग्राम द्वारा चित्रांकित है। भूमिका वरिष्ठ साहित्याकार श्री विश्व मोहन जी द्वारा लिखी गई है। प्राक्कथन प्रकाशक सुश्री सरोज दहिया द्वारा प्रस्तुत है। रचनाकार रेणु बाला जी ने अपनी बात रखी है जिसमें मुख्यतः आभार व्यक्त किया गया है। सम्माननीय ब्लॉगर व साहित्यकार सर्व श्री /सुश्री कृष्णराघव जी, शशि गुप्ता जी, मीना शर्मा जी, श्वेता सिंह जी और श्रीमती कामिनी सिंहा जी ने पुस्तक के प्रति अपने उद्गार प्रस्तुत किए हैं।

 

भाग 1- पाँच कविताओं वाला यह प्रथम भाग पुस्तक की पहली कविता सरस्वती वंदना से शुरू होता है। कवयित्री कहती हैं -

हाथ उठा ना माँगा तुमसे, बैठ कभी ना ध्याया माँ ।

तुमने वंचित रखा न किंचित, करुणा ममता रस पाया माँ।

 

वह प्रार्थना करती हैं कि अहंकार दर्प से दूर रहकर निश्छल सद्भावों की संवाहक बन सके -

भावों में रहे सदा शुचिता, अहंकार तू हरना माँ। 

 

कविता गुरु वंदना में रेणु जी लिखती हैं -

सहजों ने नित गुरु गुण गाया, मीरा ने गोविंद को पाया,

रत्नाकर बनगए वाल्मीकि, ये गुरुकृपा कमाल गुरुवर !

 

कवयित्रि मेरे गाँव में अपने गाँव के लिए लिखती हैं –

तुमसे अलग कहाँ कोई परिचय मेरा,

.....

वंदन मेरा तेरे खुले आसमान को।

 

उन्होंने हिमालय वंदनमें हिमालय को तरह-तरह की उपमाएँ दी हैं। कहा है 

जीवन का विद्यालय हो तुम.....साहस का गंतव्य हो तुम....

राष्ट्र का अभिमान हो तुम........शत्रु का महाकाल हो तुम...

लौटा माटी का लाल में रेणुजी ने मातृभूमि को समर्पित शहीदों को श्रद्धांजली दी है। वे कहती हैं –

चुकाने दूध का कर्ज, पिता का मान बढ़ाने को !

लौटा माटी का लाल, मिट्टी में मिल जाने को !!

तन सजा तिरंगा।

 

दूसरा भाग - यह भाग 12 कविताओं का संग्रह है।

माँ का ममता को बेटी के जन्म के पर अनुभव करने का विस्तार देती हुई कविता माँ अब समझी हूँ प्यार तुम्हारा ममतामयी है । कवयित्री कहती हैं –

तुम जो रोज कहा करती थी, धरती और माँ एक हैं दोनों,

अपने लिए नहीं जीती, अन्नपूर्णा और नेक हैं दोनों।

 

स्मृति शेष पिताजी में पिताजी की याद में कहती हैं –

माँ के सोलह सिंगार थे वो, माँ का पूरा संसार थे वो,

वो राजा थे, माँ रानी थी , छिन गया अब वो ताज नहीं है।

नवजात शिशु के लिए में वे लिखती हैं –

आशीष वसन में तुम्हें लपेटूँ, रखूँ दूर बलाओं से,

गर्म हवा भी छू ना पाए, आ ढक लूँ तुम्हें दुआओं से !!

इनके अलावा इस खंड में कवयित्री ने बेटी का लाड़, साजन के घर सजधज कर दुल्हन का आना, नन्हे बालक की अठखेलियाँ, बच्चों के शहर जाकर पढ़ने पर उनकी याद और उस पर उदासी, बाबा का आशीर्वाद और भाई का प्यार विषयों पर कविताएँ रची और संकलित की हैं।

इस खंड की रचना घर से भागी बेटी के नाम कुछ अलग-थलग पड़ी सी लगी। इसमें उन हालातों में पिता की उदासी का बयान है।

भाग 3 - यह पूरा 10 कविताओं की भाग  पर्यावरण और प्रकृति को समर्पित है। बादल , तितली, गिलहरी, पेड़-चिड़िया, बारिश शरद पूर्णिमा के शशि, फागुन का चाँद, मरुधरा,गाय बचड़ा इस कंड के प्रमुख विषय हैं।

ये श्वेत आवारा बादल में रचनाकार कहती हैं –

किसकी छवि पर मुग्ध मयूरा, सुध-बुध खो नर्तन करता ?कोकिल सु-स्वर दिग्दिगंत में, आनंद कैसे भर पाता ?

सुनो गिलहरी में वे कहती हैं –

पेड़ की फुनगी के मचान से, क्या खूब झाँकती है शान से,देह इकहरी काँपती ना हाँफती,निर्भय होकर घूमती स्वाभिमान से !

                        …..

फुदकती मस्ती में हो बड़ी सयानी,

बन बैठी हो पूरी बगिया की महारानी।

 

भाग 4 -  यह भाग पुस्तक का सबसे बड़ा भाग है जिसमें पुस्तक की 65 से 28 कविता समाई हुई हैं। इस भाग में कवयित्री ने मन से मन के प्रसंगो को संकलित किया है। आत्मीय और रूहानी रिश्तों की बातें इस भाग में भरपूर हैं।कविता तुम्हें समर्पित सब गीत मेरे  में वे कहती हैं -

मीत कहूँ , मितवा कहूँ, क्या कहूँ तुम्हें मनमीत मेरे,

नाम तुम्हारे ये शब्द मेरे, तुम्हें समर्पित सब गीत मेरे।


कविता फागुन में उस साल’ –

अचानक एक दिन खिलखिलाकर हँस पड़ी थी 

चमेली की कलियाँ,

और आवारा काले बादल लग गए थे- 

झूम-झूम कर बरसने,

देखा तो द्वार पर तुम खड़े थे, मुस्कुराते हुए।

 

तुम्हारी चाहत

अनंत है तुम्हारा आकाश, मेरी कल्पना से कहीं विस्तृत,

जिसमें उड़ रहे हे तुम और मैं भी स्वच्छंद हूँ,

सर्वत्र उड़ने के लिए !!

 

आई तुम्हारी याद

दूभर तो बहुत थी, ये उदासियाँ मगर,

आई तुम्हारी याद तो हम मुस्कुरा दिए

 

चाँदनगर-सा गाँव तुम्हारा

एकांत भिगोते नयन-निर्झर, सुनो! मनमीत तुम्हारे हैं,

मेरे पास कहाँ कुछ था, सब गीत तुम्हारे हैं।

....

....

तुम वाणी रूप और शब्द रूप, स्नेही मन – सखा मेरे,

बाँधे रखते स्नेह-डोर में तुम्हारे सम्मोहन के घेरे।

 

तुम्हारे दूर जाने से

अनुबंध नहीं की तुमसे, जीवन भर साथ निभाने का,

फिर भी भीतर भय व्याप्त है, तुम्हें पाकर खो जाने का,

समझ न पाया दीवाना मन , अपरिचित कोई क्यों खास हुआ ?

पथिक मैंने क्यों बटोरे ?’ -

कब माँगा था तुम्हें किसी दुआ और प्रार्थना में  ?

तुम कब थे समाहित, मेरी मौन आराधना में ?

आ गए अपने से बन क्यों बंद हृदय के द्वारे !!

 

जीवन में तुम्हारा होना  -

खुद को भूले बैठे थे, जीवन की तप्त दुपहरी थी,

जो साथ तुम्हें लेकर आई, वो भोर सुनहरी थी,

तुम आये खुशियाँ संग लाये, हर दर्द भुला दिया !!

 

सुन , ओ वेदना

जो हैं शब्दों से परे , एहसास जीने दो मुझे,

बन गया अभिमान मेरा, विश्वास जीने दो मुझे,

 

लिख दो, कुछ शब्द

जब तुम न पास होंगे, इनसे ही बातें करूँगी ,

इन्हीं में मिलूंगी तुमसे , जी भर मुलाकातें करूँगी,

शब्दों संग भीतर बस, मेरे साथी रूहाने रहो तुम !

 

उस फागुन की होली में

प्राणों में मकरंद घोल गया, बिन कहे ही सब कुछ बोल गया  !इस धूल को बना गया चंदन, सुवासित, निर्मल और पावन।

भाग 5 - इस भाग में पाँच कविताएँ हैं। इसमें - औरंगाबाद के दिवंगत श्रमवीरों के नाम, गाँव का बरगद,अवसाद ग्रस्त युवा केलिए, जोगी-जोगन और बुद्ध की यशोदरा – विषयों पर कविताएँ हैं ।

 

बुद्ध की यशोधरा

बुद्ध को संपूर्ण करने वाली, एक नारी बस तुम थी,

थे श्रेष्ठ बुद्ध भले जग में, बुद्ध पर भारी तुम थी।

 सुनो चाँद

बहुत भरमाया सदियों तुमने,गढ़ी झूठी कहानी थी।

थी वह तस्वीर एक धुंधली , नहीं सूत कातती नानी थी।युग-युग से बच्चों के मामा,  क्या कभी आए लाड़ जताने ? चाँद !

पुस्तक की अंतिम कविता समय साक्षी रहना तुम ही पुस्तक का शीर्षक बनी है। इस कविता में कवयित्री ने अपने जीवन-प्रवाह के क्षण प्रति क्षण में समय को साक्षी बनाया है।

कवयित्री की शब्द संपदा साहित्यिक व बेहतरीन है। कविताओं का शिल्प भी मूल्यवान है। यदा-कदा  प्रवाह और गेयता की कमी नजर आती है। तुकाँत और अतुकाँत दोनों तरह की कविताओं का समावेश इस पुस्तक में मिलता है। विषयों का चयन विविधता पूर्ण है। कवयित्री ने सभी विषयों से पूरा न्याय किया है। कवयित्री ब्लॉग जगत की जानी पहचानी व्यक्तित्व हैं। अर्थपूर्ण टिप्पणियाँ देने में इनका कोई सानी नहीं है।

 

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