मेरा आठवाँ प्रकाशन / MY Seventh PUBLICATIONS

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बुधवार, 4 सितंबर 2024

List of my books with MRP

 


List of my Book list with MRP

 

1.   Dasha aur Disha.                   Poetry, short stories articles.                       रु. 250    

      Best seller at publisher

2.   Man Darpan, 2017                poetry                                             Rs. 175       

                                                      Till then my best poetry

3.  Hindi Pravah aur Parivesh                             रु. 250          Liked by Hindi readers

  Articles on Hindi language.

 4.   Antas Ke Moti,2019                       Stories.                                    Rs.300      

 5.    Guldasta             Articles on publication and journalism.         Rs 250

 6.   Ose ki boonden, 2021                      Poetry                                   Rs. 250          

 7.   Hindi Sujhav Aur vimarsh       Articles for learning and                               

Suitable to Hindi students teaching Hindi and teachers as well.                              

Highly appreciated by Hindi teachers and students.

8.    Bikhare Suman,2023                                      Rs. 250

Extension of firstPublication Dasha aur Disha

 9.   4M – Mini Matters                Episodes as short stories               Rs. 200          

  Matter More, 2023 Adopted by FLAME University, Pune for Industrial Relation subject for MBA (HR) final year students in session 2023-24 (In English Language

10.     4M2 – Mini Matters      Episodes as short stories               Rs. 250       

          Matter More,                   (In 2023English Language)                                         

    Part -2. 2024      Adopted by FLAME University, Pune for Industrial Relation subject for MBA (HR) final year students in session 2024 (In English Language 

 Serial. 1-8  are in Hindi and 9n-10 are in English.  

  Books in pipeline for publishing :-

 1.  Understand, Learn and Play Carrom -  For carom learners and players with guidance.

2.  Telugu translation of my book - Antas ke Moti.


बुधवार, 3 जुलाई 2024

प्रेशर कुकर

 


प्रेशर कुकर

 

आज शायद ऐसा घर ही नही होगा, जहाँ प्रेशर कुकर का प्रयोग न होता हो।

 विज्ञान के अनुसार दबाव बढ़ने से वस्तुओं के उबाल तापक्रम में कमी आती है। इसलिए प्रेशर कुकर में पानी जल्दी (कम तापमान पर) ही उबलता है और उसकी गर्मी से अनाज या सब्जी, जो भी भीतर हो पक जाता है। इसीलिए पकने में या गलने में मुश्किल लगने वाली चीजों को कुकर में पकाना फायदेमंद होता है। ज्यादातर लोग माँसाहारी भोजन के लिए कुकर जरूरी समझते हैं।

 प्राथमिक तौर पर कुकर दो ही तरह के होते हैं। एक को प्रेस्टिज टाइप और दूसरे को हॉकिन्स टाइप कहा जाता है।

हॉकिन्स तरह के कुकर अवयव बर्तन, ढक्कन, रबर गेस्केट और सीटी। 

हॉकिन्स तरह का कुकर बंद करने पर (प्रेस्टज कंपनी द्वारा बनाया हुआ)

बंद करने के बाद प्रेस्टिज तरह का कुकर।



 प्रेस्टिज टाइप का ढक्कन ऊपर बाहर की तरफ से पकड़ बनाता है और अंदर का दबाव बढ़ने से ढीले होने की तासीर रखता है। जबकि हॉकिन्स के कुकर का ढक्कन ऊपर से अंदर जाकर लगता है। इसलिए कुकर में दवाब बढ़ने पर यह और भी जोर से बंद हो जाता है। इससे भीतर का दबाव बहुत तेजी से बढ़ने लगता है। दोनों ही हालातों में दबाव बढ़ने से कुकर की ढक्कन में लगे भार (सीटी) द्वारा उसके भीतर के भाप को बाहर निकाला जाता है। यदि किसी कारण से सीटी से भाप नहीं निकल पाती है तो अंदर दबाव अनपेक्षित रूप से बढ़ जाता है। तब सीसा का सेफ्टी प्लग (वाल्व)  पिघलकर भाप को बाहर जाने का रास्ता देता है। इस तरह प्रेशर कुकर में समस्या आने पर प्राथमिक आपदा प्रबंधन भी किया गया है। प्रायमरी सेफ्टी सीटी (वेट) से और दोहरी सेफ्टी प्लग से होती है। यदि दोनों ही काम न करें तब ही हादसा होता है।

कुकर-धमाका होने पर हालात - 

तोड़ मरोड़ कर उछलकर गिरा ढक्कन कढ़ाई के नीचे पहुँच गया है. कढ़ाई की रसोई भी बिखर गई है। कुकर का बर्तन धुल चुका है। 


                                        


तुड़े - मुड़े ढक्कन की बदहाली इस तस्वीर में साफ देखी जा सकती है। यह तो नसीब की बात है कि रसोई और ढक्कन गृहिणी पर नहीं गिरे अन्यथा हादसा और भी गंभीर हो जाता।



 इन सबके बावजूद भी आए दिन प्रेशर कुकर के फटने की घटनाएँ सुनाई पड़ती हैं। सवाल यह है कि ऐसा क्यों होता है और इससे बचने के क्या उपाय हैं?

उपयोग करते वक्त  -

स्टोव पर रखने के लिए पहले कुकर में सही मात्रा में अनाज – सब्जी और पानी डालें। सही तादाद को अनुभव से या अनुभवी लोगों से ही जाना जा सकता है। कुछ प्राथमिक जानकारी कुकर के साथ दिए गए पुस्तिका में भी होती है।

कुकर सही ढंग से बंद करें और उसके बाद स्टोव जलाकर उस पर कुकर रखें।

जब तक सीटी से भाप न निकले स्टोव को  "हाई" पर रखें और भाप निकलते साथ उस पर सीटी रखकर उसे "सिम" पर कर दें।

भाप निकलने पर ही कुकर पर सीटी रखें।

पकने वाली वस्तु के अनुसार पुस्तिका में सुझाए अनुसार सीटियाँ गिनें और उसके एक - दो मिनट बाद में ही कुकर को स्टोव पर से उतार लें । स्टोव का काम न हो तो स्टोव बंद करके कुकर को उस पर रहने भी दिया जा सकता है। 

जरूरत हो तो स्टोव पर से कुकर हटाकर कुछ और पका लें।

थोड़ी देर में ठंडा होने पर (दबाव खत्म होने पर) सुरक्षित तरीके से कुकर पर से सीटी निकालें और परोसने खाने की तैयारी करें।

यदि तुरंत नहीं खाना हो तो सीटी को कुकर पर ही रहने दें जिससे पकी हुई रसोई कुछ और समय तक गरम रहेगी।

यह तो हुई पकाने के समय की विधि। इस पर तो गृहिणियाँ मुझसे बेहतर जानकारी रखती होंगी।

 अब जानिए कुकर का रखरखाव करना –

 जब उपयोग में न हो तब कुकर के रबर गेस्केट (रिंग) को गुनगुने पानी में रखें। गर्मी – ठंडी की वजह से गेस्केट फटने – टूटने (क्रेक होने) लगता है। इस कारण उसे जल्दी-जल्दी बदलना पड़ता है।

अंदर से बंद होने वाले कुकर का ढ़क्कन सही तरीके से बंद करने व खोलने की जरूरत है वरना यह बर्तन के किनारों को घिसता और खराब करता है।

गेस्केट को सही जगह सही तरीके से लगाने पर ध्यान देना जरूरी है वरना पकते समय भाप गेस्केट के पास के रास्ते से लीक (रिसने) होने लगेगी। इससे पकने में ज्यादा समय लगेगा और पानी की मात्रा भी कम पड़ सकती है जिससे रसोई जलने की संभावना रहती है।

कुकर को धोते समय खास ध्यान दें कि जहाँ गेस्केट और ढक्कन आपस में मिलते हैं वहाँ पकने वाली वस्तु चिपकी न रह जाए।

 सीटी वाली नोजल को अच्छे से फूँक कर तसल्ली करें कि उसमें कुछ फँसा तो नहीं है। यदि ऐसा है तो उसे किसी बारीक वस्तु से बाहर निकालें। आप चाहें तो पानी की धार का भी प्रयोग कर सकते हैं। 

अच्छा हो कि कुकर पर ढक्कन लगाने से पहले भी आप सीटी में एक फूँक मार कर तसल्ली कर लें। मुँह लगाने की वजह से जूठन की तकलीफ हो तो फूँकने के बाद उसे फिर अच्छे साफ पानी से धो लें।

अब आती है सीटी की बारी। सीटी में वैसे तो भाप के अलावा कुछ नहीं जाता किंतु कभी-कभी पानी की मात्रा के ज्यादा कम होने के चलते अंदर के पकवान का पतला हिस्सा (रसा) दबाव के कारण सीटी से बाहर आता है और उसके ठोस कण सीटी में जमने लगते हैं। यह सीटी पर दबाव बनाते हैं और दबाव के कारण सीटी के उठने  में अवरोध होता है। इस कारण कुकर में दबाव बढ़ जाता है। छोटे-मोटे अवरोध से कोई अंतर तो नहीं पड़ता क्योंकि एक दो मिनट में दबाव बढ़ने से सीटी अवरोध के बावजूद भी उठ जाती है और भाप बाहर निकल जाता है। यदि पकवान के कण वहाँ जमते जाएँ तो सीटी पर अवरोध बढ़ते है और वह थोड़े बहुत दबाव के बढ़ने से भी नहीं उठ पाती। ऐसे में एक तय दबाव के बनने पर पानी के भाप के अत्यधिक ताप के कारण सीसे का बना सेफ्टी प्लग (वाल्व) पिघतकर भाप को बहिर्गमन का रास्ता देता है। ऐसा होने पर खराब सेफ्टी प्लग को बदलकर एक नया प्लग लगवाना पड़ता है।

 यदि सीटी को साफ नहीं रखा गया या सेफ्टी वाल्व के आस पास भी रसोई या गंदगी जमी रही यानी कुकर की सही रख रखाव में लापरवाही बरती गई या कुकर की सीटी किसी जगह गिर कर उसके भीतर के पिन का नोक बिगड़ गया हो तो न ही सीटी बजती है, न ही सेफ्टी वाल्व काम करता है । 

इस कारण कुकर में बेइंतहा दबाव बनने लगता है। अंततः अधिक दबाव के कारण कुकर का ढक्कन अपना रूप बदलते हुए मुड़-तुड़कर जगह छोड़ देता है और ऊपर निकल जाता है। उस समय कुकर के अंदर के आत्यधिक  दबाव के कारण ढक्कन रसोई घर की छत से टकराता है और साथ ही भीतर की रसोई भी पूरे कमरे की दीवालों व छत पर फैल जाती है। सामने खड़ी गृहिणी पर भी आ सकती है। ऐसी हालातों में कुकुर का नुकसान , कमरे की सफाई झेलने से ज्यादा गृहिणी की तकलीफ ज्यादा दर्दनाक हो जाता है। गर्मी और भाप की वजह से चमड़ी जलने की संभावनाएँ भी बन जाती हैं।

 इसलिए कुकर की सीटी को बीच-बीच में साफ करना पड़ता है। भाप के साथ निकले अनाज – सब्जी के कण सीटी में चिपकते हैं और गंदा तो करते ही हैं, साथ ही साथ सीटी में फँसकर उसके उठने में भी अड़चन पैदा करते हैं। इसलिए सीटी को कुछ-कुछ दिनों में एक बार अच्छे से साफ करने की अत्यंत आवश्यकता होती है।

तरह-तरह की सीटियों के अंग 

1. (पिन भार में फँसा हुआ है)


2. सारे भाग अलग - अलग (नट अलग तरह का है।)




3. अलग तरह का कैप



4. गंदी हालत में वेट







5. पिन


    यह कोई बहुत बड़ा काम नहीं है बस ज्यादा से ज्यादा आधे घंटे का काम है। सीटी के कैप के ऊपर का नट खोलिए। यह घुमाकर खुल जाता है। फिर ऊपर से हल्की सी ठोकर देकर भीतर का पिन निकाल लीजिए जो ऊपर की तरफ चूड़ीवाला और भीतर की तरफ नुकीला होता है। ज्याद रसोई के कण जमने पर यह आराम से निकलता नहीं है। ऐसे में सीटी को कुछ देर गरम पानी में रखने से पिन सरलता से निकाली जा सकती है। यही पिन कुकर के सीटी की जान है। सीटी का सबसे भारी हिस्सा ही भार कहलाता है। इसीलिए कुछ लोग सीटी को वेट भी कहते हैं। अब सीटी के  नट, कैप, पिन और वेट को अच्छे से साबुन के पानी से धो लें। उसके बाद साफ पानी से साबुन निकलने तक धोएँ। फिर साफ करें और सुखा लें।  सूखने के बाद सीटी के भागों को उसी तरह फिट कर लें जैसे वह था यानी पिन की चूड़ियों को वेट के भीतर डालें और चूड़ियों पर कैप रखकर नट कस दें। नट भीतर से नुकीली होता है। कसते समय वह घूमने लगता है। इसे किसी पतली पेंसिल या लकड़ी के किसी डंडी से दबाकर पकड़कर आप नट को कस सकते हैं। इस तरह आपका वेट साफ हो जाता है।

सारांशतः आपको निम्न सावधानियाँ बरतनी है –

1.    उपयोग में नहीं होने पर रबर की गेस्केटों को गुनगुने पानी में रखना।

2.   रबर सही लगाना और ढक्कन ठीक से बंद करना। ढक्कन ढीला रहने से भाप रबड़ के पास से लीक करती है और पकाने की क्रिया में बाधा उत्पन्न करती है।

3.   कुकर को धोते समय और कुकर को स्टोव पर चढ़ाते समय, कुकर के ढक्कन पर सीटी की जगह को फूँक कर देखना चाहिए कि वह खुला है।

4.   सीटी को साफ करते रहना चाहिए।


 सीटी को जितना हो सके सहेजें। सीटी के पिन की नोक बिगड़े तो कुकर सही काम नहीं करता है।

बस इतनी सावधानियाँ यदि बरती गईं तो निश्चिंत रहिए कि आपका कुकर कभी फटाका नहीं बनेंगा।

 

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सोमवार, 24 जून 2024

प्रेम

 

    

प्रेम

 


प्रेम का पवित्रतम रूप – एक तरफा प्रेम ।

अगला प्रेम करे या न करे, इस से परे अपना प्रेम जारी रखना ही सच्चा और एक तरफा प्रेम है।

यह प्रेम वह रोमंटिक प्रेम नहीं जो आज की युवा पीढ़ी करती है। उनका मकसद अपने प्रेमपात्र को अपना जीवनसाथी बनाना होता है। उसे अपनी ओर झुकाने के लिए वे तरह-तरह के करतब करते हैं। उसे मँहगे तोहफे देते हैं। जो कपड़े, गहने और अन्य पसंदीदा वस्तुओ के रूप में हो सकता है या फिर घुमाना-फिराना, खिलाना-पिलाना और कई तरह के होते हैं जो प्रेमपात्र के पसंद के हों। प्रेमपात्र को तोहफे देने में कोई गलत बात नहीं है, बशर्ते उसका मकसद उसे बरगलाकर, बहला-फुसलाकर अपना बनाना न हो। यदि ऐसा है तो फिर इसमें स्वार्थ निहित है , यह निःस्वार्थ प्रेम तो नहीं हुआ। इसे स्वार्थी प्रेम या फिर वासना या भी कहा जा सकता है।

आज के युवा प्रेम की परिणति परिणय में मानते हैं और चाहते भी हैं।

सच्चा प्यार त्याग करता है, पाने की इच्छा नहीं रखता । वह निःस्वार्थ त्याग व समर्पण करता है। प्रेमपात्र की खुशी के लिए वह निस्वार्थ कुछ भी कर सकता है।  प्रेमपात्र की खुशी, तसल्ली, सहायता में वह अपनी निजी खुशियों को भी लुटा देता है। प्रेमपात्र की खुशी में ही वह खुशी पाता है, सुख अनुभव करता है।  उसे इस बात का गम नहीं होता कि उसका प्रेमपात्र किसी और से प्रेम करता है। पवित्र प्रेम को इस से कोई फर्क नहीं पड़ता । वह इन सबसे विचलित भी नहीं होता।

प्रेम अपनी चरम सीमा में भक्ति का रूप धारण कर लेता है। भारत रत्न श्रीमती एम एस सुब्बालक्ष्मी द्वारा प्रस्तुत आदि शंकराचार्य कृत भजन भज गोविंदम के प्रारंभ में चक्रवर्ती श्री राजगोपालाचारी ने भी यही कहा है – ज्ञान अपनी परिपक्वता पर भक्ति का रूप धारण कर लेता है, अन्यथा वह ज्ञान का सही स्वरूप नहीं है, बेमतलब है, व्यर्थ है

भक्ति निःस्वार्थ एवं बेशर्त-अपनापन, प्रेम और समर्पण का ही दूसरा नाम है। यही एक तरफा प्यार प्रेम का चरम है और एकदम पवित्र है। किसी भी तरह की चाह सम्मिलित हुई तो समझिए प्रेम दूषित हो गया।

भगवद्भक्ति में भी मन्नत माँगने की रीति उसे स्वार्थी प्रेम की परिभाषा में ला खड़ी करती है। मन्नत का मतलब तो लेन-देन की बात हो गई यानी आप मेरा काम करो मैं आपका करता  हूँ - आदान – प्रदान। इसमें भक्ति कहाँ और ईश्वर से प्रेम कहाँ ? यह तो धंधा हो गया।

दंपति बच्चे का आवाहन यह सोचकर नहीं करते कि यह बुढ़ापे में हमारा सहारा बनेगा। उसका मनस्फूर्ति से पालन-पोषण करते हैं। उसकी परवरिश में हर संभव कोशिश होती है कि वह एक अच्छा नागरिक बने। जब तक वह आत्मनिर्भर नहीं हो जाता , उसकी जिम्मेदारी का बोझ खुद उठाते हैं। तत्पश्चात यह बच्चे की मर्जी कि वह माता पिता का एहसान माने या न माने। मजबूरी न हो तो कोई भी अभिभावक अपनी संतान के आगे हाथ नहीं फैलाता। जब ऐसी मजबूरी आन पड़ती है, तब हालातों के आगे निःस्वार्थ प्रेम में स्वार्थ का आगमन होता है। इस समय प्रेम दूषित तो होता है किंतु तब तक का प्रेम निःस्वार्थ था जो किसी पूजा या साधना से कम नहीं आँका जा सकता।

प्रेम के कई रूप हैं। माँ की ममता प्रेम है। भाई-बहन का प्यार राखी प्रेम का ही धागा है। पिता-पुत्र के बीच का अपनापन प्रेम है। पति-पत्नी के बीच का रिश्ता प्यार है। मित्रता भी प्रेम का एक रूप है। ईश्वर की निष्कपट भक्ति भी प्रेम है।

मूल रूप में देखा जाए तो प्रेम तो बस प्रेम है। उसे निःस्वार्थ विशेषण की कोई आवश्यकता नहीं है।

इस घोर कलियुग में सत्य के भी रूप निर्धारित हो गए हैं। यह तो आज के कलियुग का कमाल है कि वह सत्य में भी भेद करता है - वास्तविक सत्य और काल्पनिक सत्य।  सत्य तो परम है. कहा गया है कि साँच  को आंच नहीं। जैसे मैं रोज सुबह उठकर एक शख्स को नमस्कार कहता हूँ, आज भी किया। किंतु आज रोज आने वाला जवाब नहीं आया। मैंने उसके नंबर पर फोन किया तो पता लगा कि रात हृदयाघात से उसकी मृत्यु हो गई है। अब सच तो यह है कि मेरे संदेश भेजते वक्त वह जीवित नहीं था किंतु मैंने तो संदेश यही सोचकर भेजा तथा कि वह जीवित है। इसमें कहा गया है कि अटल (वास्तविक) सत्य है कि संदेश भेजते समय वह जीवित नहीं था। इसमें काल्पनिक सत्य यह है कि मेरी कल्पना में वह जीवित था इसीलिए तो मैंने उसे संदेश भेजा । इस कलियुग मे हर जगह सापेक्षता घर कर गई है। ऐसे ही प्रेम में निःस्वार्थ प्रेम को अलग-थलग खड़ा कर दिया गया है। आज प्रेम का साधारण अर्थ रोमांस से ही है। आज माँ का बच्चे से अपनापन ममता कहलाता है – प्रेम या प्यार नहीं।

यदि प्रेम के बदले में कोई किसी भी तरह की चाह रखे तो उसे सिर्फ स्वार्थ ही कहना काफी है। उसे स्वार्थी प्रेम नहीं कह सकते क्योंकि यह शब्द युग्म बेमतलब या कहिए अर्थहीन हो जाता है।

मूल रूप से प्रेम स्वार्थी नहीं होता, निःस्वार्थ ही होता है।

वैसे देखा जाए तो दुनिया का हर रिश्ता स्वार्थ की चादर में लिपटा है क्योंकि ईश्वर ने मानव को मूलरूप से स्वार्थी ही बनाया है। माता-पिता भी बच्चों को पालते हैं तो उनसे कुछ अपेक्षा जरूर रखते हैं। मित्र भी उम्मीद से बँधे ही होते हैं कि मुसीबत में मदद मिलेगी। जहाँ रिश्ता आ गया, वहाँ अपेक्षा और उम्मीद आनी ही है। इसीलिए मैं प्रेम की सिर्फ इस व्याख्या को सही मानता हूँ कि -

"सिर्फ अहसास है ये

रूह से महसूस करो

प्यार को प्यार ही रहने दो

कोई नाम ना दो"

इन पंक्तियों से बेहतर और सरलतम व्याख्या प्रेम की, ना कोई थी और ना होगी।

इस अहसास के साथ जीने में जिस स्वर्गीय आनंद की अनुभूति होती है , उसे तो वही जानता है जो हर पल इसी अहसास के साथ जीता है। ये अहसास उसकी रूह का हिस्सा हो जाता है और ये रिश्ते रूहानी हो जाते हैं।

प्रारंभ में तो इस अहसास को जताने की आतुरता होती है कि कैसे मैं उसे समझाऊँ, दिखाऊँ, कैसे अभिव्यक्त करूँ ? जब यह भाव परिपक्व हो जाते हैं तब इस बात से कोई भी फर्क  नहीं पड़ता कि सामनेवाला भी उसे चाहता है या नहीं ।

इसी भाव में डूबकर प्रेम दीवानी मीरा गा उठती है -

जो तुम छोड़ो कान्हा, मैं नाहीं छोड़ूँ रे !

इस स्तर पर आकर प्रेम अब भक्ति में बदल चुका होता है।

कोई चाह नहीं, कोई उम्मीद नहीं, कोई लालसा नहीं।

 

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रविवार, 10 मार्च 2024

सफेद सदाबहार

 

 

सफेद सदाबहार


इस बार जब मैं प्रवास पर गया तब छत्तीसगढ़ के एक गाँव कोरबी में मेरे एक दोस्त के घर मुझे सफेद फूल वाला सदाबहार का पौधा दिखा।

मैं बहुत समय से सफेद सदाबहार के पौधे की तलाश में था। मेरे पास जामुनी सदाबहार फूल का पौधा बहुत समय से है।

ऐसा सुना है कि इन पौधों की पांच पत्तियाँ या फूल चबाकर रोज सुबह खाली पेट खाने से डायबिटीज की बीमारी समूल नष्ट हो जाती है और मरीज को उस बीमारी से सर्वदा के लिए मुक्ति मिल जाती है। मैं भी डायाबेटिक हूँ, पर यह बात और है कि मैंने एक दिन भी इसे नहीं खाया। मैंने एक दो बार सफेद फूल के सदाबहार का पौधा लगाया पर बचा नहीं पाया। 



सफेद सदाबहार के पौधे को देखते ही मुझे लगा कि इसे ले जा सकूँ तो अच्छा रहेगा। मैंने नजर दौड़ाया कि उस बगीचे में ऐसा दूसरा पौधा है या नहीं। दूर एक कोने में इससे बड़ा एक पौधा नजर आया।

मैंने अपने दोस्त से उसे ले जाने की इच्छा जाहिर की। उसने कहा ले जाइए , ऐसे और भी पौधे हैं।

गाँव से लौटते समय पहला फरवरी को मैंने दोस्त से कहकर उस पौधे को मिट्टी सहित निकलवा कर एक पोलीथीन की थैली में नमी सहित ले लिया।

वहाँ से मैं सड़क मार्ग पर बिलासपुर आया और दो दिन रुका। इस बीच पौधे को बाहर हवा में रखा और नमी पर ध्यान देता रहा। साथ की मिट्टी पीली मिट्टी थी, इसलिए नमी कम पड़ते ही पौधे की जड़ से अलग हो जाती थी।

दो दिन बाद मैं वहां से ट्रेन की ए सी बोगी में नागपुर आ गया। पौधे की मिट्टी को नमी देने का पूरा-पूरा ख्याल रखा गया। पर पौधा कमजोर होता दिखा।

नागपुर पहुँचते ही मैंने पौधे को पोलीथीन से निकाल कर मिट्टी सहित वहाँ के एक गमले में रख दिया, रोपा नहीं। वहाँ मैं करीब आठ दिन रुका। हर दिन पौधे को पानी देता रहा, पर पौधे में जान आती नहीं दिखी, कम ही हो रही थी। अब मुझे डर सा लगने लगा कि क्या पौधा मेरे बगीचे तक सही सलामत जा पाएगा या बीच में ही दम तोड़ देगा?

डरते-डरते, पर पूरा ख्याल रखते हुए मैं फिर ट्रेन की ए सी बोगी में पौधे को हैदराबाद ले आया। अब तक पौधे की जान सूखती सी लगी। अब लगने लगा कि पौधे को बचाना मुझसे नहीं हो पाएगा। फिर भी मैंने बिना समय गँवाए पहुँचते ही पौधे को पोलीथीन से निकालकर, खाद डालकर तैयार रखे एक नए गमले में उसकी अपनी मिट्टी के साथ लगा दिया। अब उसको पानी देना एक नित्य कर्तव्य बन गया। हर दिन सुबह शाम देखा करता कि उसमें जान लौट रही है या नहीं। किंतु उम्मीदों पर पानी फिरता नजर आने लगा। मैं हिम्मत रखकर उसे बराबर पानी देता रहा और रोज देखता रहा। मेरी नजर कहने लगी कि अब पौधे में कमजोरी आनी कम हो गई है। फिर लगा कमजोरी रुक गई है। अब करीब 20 दिन बाद लगने लगा है कि पौधे में जान आ रही है। पता नहीं पौधे को सामान्य होने में और कितना समय लगेगा। आज 10 मार्च  को करीब  40 दिन बाद पौधे में पूरी जान आई और पहला फूल खिला। हालांकि पूल छोटा है पर है तन्दुरुस्त। 

इस पूरी दास्तान को अनुभव से मेरे मन में बात आई कि एक पौधा अपनी जमीन से अलग होकर पूरी शिद्दत से ख्याल करने पर भी सँभलने में इतना समय ले सकता है और इतनी तकलीफ झेलता है तो हाड़ माँस की बनी ईश्वर द्वारा दिलो दिमाग सहित बनाई बहू को बिदाई के बाद ससुराल मैं खुद को सँभालकर सामान्य होने में क्या क्या और कितना झेलना पड़ता होगा।

ससुराल में आने पर उनका विशेष ख्याल भी तो नहीं हो पाता।।


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बुधवार, 6 मार्च 2024

मैं और कैरम

 

मैं और कैरम

कैरम का रिश्ता मुझसे कब से है यह शायद मुझे भी नहीं पता। जब से मुझे खुद की खबर है, तब से कैरम मेरे साथ है। मुझे 1958-59 के वो दिन भी याद हैं जब हम दोस्त नैसर्गिक परिधान में ही कैरम खेलते थे। घर में कैरम पहले से था। कहाँ से आया इसका सही पता नहीं है। ऐसे सुना था कि वाल्तेयर रेल्वे स्टेशन पर दिन भर के इंतजार के बाद शाम को रेलगड़ी पर चढ़ने तक जब इसका कोई हकदार नहीं आया, तो हम इसे अपने साथ ले आए थे। किंतु भैया बताते हैं कि जब वे नानी के घर रहकर पढ़ते थे, तब पिताजी ने उन्हें यह बोर्ड खरीदकर दिया था। वह एक साधारण बोर्ड था बच्चों के लिए और वह बोर्ड उनके साथ ही हमारे घर बिलासपुर लाया गया था। उसी पर खेलकर मैंने कैरम सीखा। मेरे कैरम की इस यात्रा में लंबे समय तक मेरे बड़े भाई का बहुत अधिक साथ रहा। मेरे उस्तादों में सबसे पहले मेरे पिताजी का नाम आता है।

1966-67 के दैरान कोलकाता के गार्डेनरीछ के रेल्वे अस्पताल में फेफड़ों की तकलीफ के लिए भर्ती होना पड़ा था। उस दौरान मैं वहाँ सबसे छोटी उम्र का मरीज था । सबसे बहुत प्यार मिलता था। दिन भर यहाँ-वहाँ फुदकता रहता था। एक दिन वहाँ कहीं से कैरम आ गया। मैंने भी खेलने की इच्छा जताई। एक काकू (बंगाल में बड़े पुरुषों को काकू या दादू कहकर ही संबोधित किया जाता है) सहमत हुए किंतु बोले - मैं शर्त लगाकर ही खेलता हूँ। 

तब तक शर्तिया खेलों का मुझे ज्ञान नहीं था। उन्होंने मुझे समझाया। मेरे पास उस वक्त केवल 15 पैसे थे। वहाँ मुझे कुछ खरीदना नहीं होता था। अस्पताल से मरीजों को बाहर जाने की इजाजत भी नहीं थी। मेरी जरूरतों के लिए पिताजी ने एक अंकल को कह रखा था, जो प्रतिदिन सुबह शाम आकर मिलते थे और जरूरत का सामान दे जाते थे। इसलिए मुझे 15 पैसों की शर्त लगाने में कोई परेशानी नहीं हुई।

उन्होंने मंजूर किया कि मैं जीतूंगा तो वे चवननी दे देंगे, पर हारने पर मुझे मेरे पंद्रह पैसे उनको दे देने होंगे। उन्होंने मुझे बहुत डराया कि तुम  निल (शून्य) पर ही हार जाओगे, तुम बच्चे हो। पर मेरा आत्मविश्वास मुझे साथ दे रहा था कि मैं हारने वाला नहीं हूँ। खेल शुरु हुआ। अन्य सारे मरीज हम दोनों को घेरकर खड़े थे। खेल चला और अंततः मैं जीत गया। काकू भी मेरा खेल देखकर बहुत खुश हुए और शर्त के चार आने भी दिए । यह कैरम में मेरी पहली कमाई वाली जीत थी। उसके बाद अस्पताल के कई कर्मचारी और मरीज मेरे साथ कैरम खेलने वहाँ आने लगे।  मैं दो बार तीन-तीन महीने के लिए वहाँ भर्ती रहा। खेलते-खेलते मेरे खेल में भी निखार आता गया। अस्पताल से छुट्टी मिलते समय मेरा खेल बहुत ही सधा और सुधरा था।

196869 तक तो घर के उसी बोर्ड पर शान से खेले और तरह-तरह के शाट मारते थे। गर्मी के दिनों में दोपहर बिताने का वही एक सहारा था, हम बच्चों का। 1969 से जब रेल्वे स्कूल में दाखिला लिया , तब से रेल्वे इंस्टिट्यूट में जाकर खेलना शुरु किया।

वहाँ प्रैक्टिस बोर्ड होते थे। जो आज के मैच बोर्ड से बड़े होते थे। आउटर पाकेट ही होते थे पर आज के दो रुपए के सिक्के के आकार के। कैरम मेन (गोटियाँ) आज के एक रुपए के सिक्के से बराबर होते थे। इसलिए बल का नियंत्रित प्रयोग जरूरी था।स्ट्राइकर का साइज निर्धारित नहीं था। वैसे भी उस पाकेट में कोई स्ट्राइकर गिर ही नहीं सकता था। इससे मेरे स्ट्राइक की गति व निशाने में अत्यधिक नियंत्रण संभव हुआ।

वहाँ तरह-तरह के खिलाड़ी मिले और देख-खेल कर मैंने अपने खेल को और भी धार दिया। करीब-करीब रोजाना ही घंटा-दो-घंटा कैरम पर गुजरता था। धीरे-धीरे बड़ी कक्षा में आने पर रात भोजन के बाद मुहल्ले में ही चौपाल जमाकर कैरम खेलने लगे। गर्मी की रातों में बिस्तर भी बाहर लगाते थे और रात 1-2 बजे तक खेल चलता रहता था।

गर्मियों के दिन, जब भी मुहल्ले का कोई परिवार शहर से बाहर छुट्टी बिताने जाता था तब वे रखवाली के लिए हमें घर सौंप जाते थे।  बाहर के कमरे में हमारी चौपाल जमती थी। देर रात तक खेलकर वहीं सो जाया करते थे। यह तो एक जरिया ही बन गया था गर्मियों में कैरम को जगह-जगह ले जाकर खेलने का। 

शौक इतना बढ़ गया कि हर हारने वाली टीम से दो रुपए लगवाकर रात के किसी पहर में रेलवे स्टेशन (उस समय पास कहीं और चाय मिलती नहीं थी) से चाय-नाश्ता भी मंगवाया जाता था। किसी-किसी दिन आपस में पैसे जोड़ भी लेते थे। यदि किसी को नौ गोटियों से हार मिली हो तो उसे उसके अलग पैसे लगाने होते थे। हालांकि खेल में पैसे लगते थे किंतु कोई जीतता नहीं था। चाय नाश्ता में सभी शामिल होते थे। 

कुछ खिलाड़ी तो चाय पीकर ही सोने चले जाते थे और बाकी खेलते रहते थे। इस चौपाल के खेल में नए – नए शाट खेलने की आदत पड़ी। इसने खेल में एक नया मोड़ ला दिया। बोर्ड पर कहीं की भी गोटी मारने की महारत हासिल करने की तरफ बढ़ने लगे थे। इसी दौरान श्री चौधरी भास्कर कैरम में मेरे स्थायी साथी बने। दोनों की जोड़ी इतनी जमी कि मुहल्ले की कोई भी जोड़ी हमारा सामना करने से डरती थी। 1975 में इंजिनीयरिंग में भर्ती होने तक यह चौपाल चला। इसके बाद कैरम का सिलसिला रुक गया।

उन्हीं दिनों की बात है – एक दिन मेरे दोस्त के साथ उनके जीजाजी के घर गए थे। वहाँ कोई महोदय पहले से ही बैठे थे। दुआ सलाम होने के बाद चाय पीकर जब फुरसत मिली तो जीजाजी ने पूछा – राजू , इनके साथ कैरम खेलेगा, ये बहुत अच्छा खेलते हैं। जीजाजी को पता था कि मैं भी अच्छा कैरम खेलता हूँ। जब मैंने हामी भरी तो जीजाजी ने बताया कि ये बहुत अच्छा खेलते हैं, इसलिए सोच लेना कि हारने पर रोना धोना नहीं है। पता नहीं क्यों पर मेरा मन मानने को तैयार नहीं था कि मैं हार जाउंगा। हिम्मत पूरा साथ दे रही थी। खेल हुआ और मैं जीत गया। तब मुझे बताया गया कि हारने वाले जनाब मध्यप्रदेश के राज्यस्तर के खिलाड़ी हैं। न उस वक्त मुझे पता था कि कैरम में राज्य स्तर की प्रतियोगिताएँ भी होती हैं, न ही किसी ने इस बारे में सुझाया।

जब इंजिनीयरिंग कालेज में दाखिला हुआ तो वहाँ कुछ समय बाद ही स्पोर्ट्स मीट हुआ। मैंने भी कैरम प्रतियोगिता में भाग लिया । फाइनल तक तो पहुँच गया लेकिन फाइनल में 28-28 के स्कोर पर (तब गेम 29 पाइंट का होता था और लाल के पाँच अंक हुआ करते थे) मेरी बारी में मैंने अपनी गोटी डाल दी। मैं चहक रहा था कि मैं जीत गया, किंतु दर्शकों ने व निर्णायक ने कहा कि नहीं आपने पहले प्रतिद्वंदी के गोटी को टच किया है तो आप का ये फाउल हो गया। मेंने कहा भी कि ऐसा कोई नियम तो मैच शुरु होने के पहले बताया नहीं गया था, पर किसी के कान में जूँ तक नहीं रेंगी। उन दिनों ए आई सी एफ नहीं था इसलिए कैरम में आयोजक अपने हिसाब से नियम बना लिया करते थे। प्रतिद्वंदी की गोटी को पहले या अकेले मारना नहीं है, बिगाड़ना नहीं है। थंबिंग की स्वीकृति नहीं है, इत्यादि। इससे मुझे निराशा हो गई और मैं फाइनल हार गया। इसके बाद इंजिनीयरिंग कालेज के दौरान मैंने वहाँ कभी भी कैरम नहीं खेला। 

1980 में बल्लारपुर पेपर मिल में मिली पहली नौकरी से वहाँ के क्लब में फिर से कैरम शुरु हुआ। यहाँ मुझे स्थाई साथी श्री संजय अदलाखे जी मिले। हम दोनों की जोड़ी ने वहाँ खूब धूम मचाया। स्टाफ और ऑफिसर्स दोनों क्लबों में खिलाड़ी हमारी जोड़ी संग खेलने से कतराने लगे थे। बल्लारपुर की नौकरी में तो कैरम भरपूर खेला। वहाँ का क्लब शाम 7 बजे से रात 12 बजे तक खुलता था। इस दौरान हम (मैं और मेरा साथी संजय) कैरम पर ही होते थे। हमने ऐसी महारत हासिल कर ली थी कि मैं बोर्ड शुरु करूँ तो वह पूरा करता था या वह शुरु करे तो मैं पूरा करता था। चौथे खिलाड़ी को खेलने का मौका ही नहीं मिलता था। शनिवार को क्लब शाम 7 बजे से रविवार रात 12 बजे तक खुला रहता था । साथ ही हम दोनों  भी पूरे वक्त क्लब में ही रहते थे। एक समय ऐसा भी आया कि खाली बोर्ड पर कहीं भी रखी गोटी को पाकेट करना बाएँ हाथ का काम था। स्टाफ व ऑफिसर्स क्लब में कोई भी जोड़ी हमारे साथ खेलने के लिए चार बार सोचती थी। 

1982 में मैं पेपर मिल की नौकरी छोड़कर इंडियन ऑयल में आ गया। यहाँ साक्षात्कार में ही पूछा गया - क्या आप कैरम खेलते हो ? क्या आप मेरे संग कैरम खेलना पसंद करोगे ? मैंने अपने आवेदन में ही कैरम के प्रति रुझान के बारे में बताया था।  मैंने तुरंत हामी भरकर कैरम का इंतजाम करने को कह दिया। मैंने तो इंटरव्यू बोर्ड के मुखिया को ही ललकारा था कैरम के लिए। खैर कैरम तो नहीं आया, पर मेरा चुनाव हो गया। 

वहाँ पालियों में ड्यूटी होती थी। तब खासकर शाम के समय 7 बजे से रात 11-12 बजे तक कैरम खेलते थे। रात की पारी में यदि काम का बोझ कम हो तो यथासंभव कैरम खेलते थे। इससे कैरम के शॉट्स पर पकड़ बढ़ने लगी। अंबाला में पहली नियुक्ति पर मुझे मेरे कैरम साथी सर्व श्री आलोक अग्रवाल, किशन गुलियानी, अमरीक सिंह मिले।

एक बार ऐसे ही जोश में शर्त लग गई कि इस आखरी गोटी को कैसे मारोगे?  मैंने अपनी तरकीब बताई। लोगों को लगा कि यह असंभव है। एक ने तो दाँव लगाने की भी कहा। मैं भी जोश में आ गया और शर्त मंजूर कर ली। अब सब शांत – इंतजार कि शाट का क्या होगा, कौन जीतेगा ? मैंने बहुत सावधानी से शाट मारा और तय तरह से गोटी पाकेट हो गई। शर्त के अनुसार उन दिनों (शायद 1984-85) में मैंने केरला-कर्नाटक सुपरफास्ट एक्सप्रेस के ए. सी. द्वितीय श्रेणी में अंबाला कैंट से बेंगलोर सिटी का आने – जाने का किराया जीता था, जो शायद रु.1300 के आस पास था। इसमें अंबाला कैंट से नई दिल्ली जाने का किराया भी जुड़ा हुआ था। यह उस समय मेरे एक महीने की तनख्वाह से भी ज्यादा थी। 

नौकरी के दौरान जब दिल्ली में जब नियुक्ति मिली तो देखा वरिष्ठ लोग कैरम खेल रहे हैं। मैं खड़ा - खड़ा उन्हें खेलते देखता-घूरता रहा लेकिन उन्होंने मुझसे कभी भी मेरे खड़े रहने का कारण भी नहीं पूछा। जब इस सम्भाग से कैरम खिलाड़ी कार्पोरेट टीम में चयन में जाने की बात मालूम हुई तो मैंने भी सेलेक्शन में जाने का निर्णय लिया, पर सेलेक्शन का पता ही नहीं चला। जब खिलाड़ी खेलकर आ गए तो मैंने प्रबंधन से सवाल जवाब किए और अगली बार ऑल इंडिया इंडिया कैरम फेडेरेशन के अधिकारियों को बुलवाकर आँतरिक प्रतियोगिता करवाया और उसे जीतकर मैंने 1993 में अपने संभाग का प्रतिनिधित्व किया। 

पहले लीग राउंड था फिर नॉक आउट। लीग राउंड के पहले मैच के पहले बोर्ड में मेरे 7 फाउल हुए क्योंकि मुझे फेडरेशन के नियमों की जानकारी नहीं थी। फिर भी मैं बोर्ड 10 पाइंट से जीता। नॉक आउट के पहले राउंड में इंडिया नंबर दो से भिड़ना हुआ और मैं हारकर बाहर हो गया। यही हाल 1994 में भी हुआ। 1993 में कैरम प्रतियोगिता के टूर से मिले भत्ते से मैंने रूलबुक और कैरम का हाथीदाँत का स्ट्राइकर खरीदा। आज वह स्ट्राइकर कानूनन निषिद्ध किया गया है। 

दिल्ली में नियुक्ति के दौरान वहाँ की कालोनी के क्लब में भी मैं कैरम खेलता था। प्रतियोगिताओं में भी शामिल होता था। पहले साल तो टूर्नामेंट खेलकर फाइनल जीता। दूसरे साल फाइनल के पहले कोई भी खिलाड़ी मुझसे खेलने नहीं आया। सबने वाक ओवर दे दिया। तीसरे साल तो गजब ही हो गया। पूरे टूर्नामेंट में शुरू से फाइनल तक भी कोई मुझसे खेलने बोर्ड पर नहीं आया । अधिकारियों ने मुझे विजयी घोषित कर सर्टिफिकेट भी देना चाहा  किंतु बिना बोर्ड पर एक भी गेम खेले जीतना मुझे नहीं भाया और मैंने सर्टिफिकेट लेने से इंकार कर दिया। 

जयपुर में तबादले पर मुझे कालेनी में तीन कमरों वाला घर मिला था। उसका हाल तो कैरम क्लब ही बन गया था । दिन रात वहाँ कोई न कोई कैरम खेलते हुए मिल जाता था। सामने ही मेस था तो खिलाड़ियों  को  घर के हॉल में ही चाय मिल जाया करती थी। उनमें सर्व श्री - पी के कश्यप , डी एन त्रिपाठी , आशीष गोखले, संजीव गुप्ता और आर एन धोलकिया  प्रमुख रहे। 

उन दिनों रात-बे-रात स्टेशन और बस स्टैंड जाकर कॉफी – चाय पीना, आइसक्रीम खाकर-लेकर आना तो एक दैनिक आदत सी बन गई थी। कुछ एक बार तो ऐसा भी हुआ कि कैरम से उठकर बाहर बरामदे में खड़ा था तो देखा एक भाभी जी डोलू हाथ में लिए लौट रही हैं। मैंने जिज्ञासा वश पूछ लिया - भाभी जी इतनी रात में कहाँ से? (मेरे अंदाज में डेढ़ - दो बज रहे थे।) जवाब मिला रात! भाई साहब सुबह के साढ़े चार बज रहे हैं - दूध लेकर आ रही हूँ। तब ध्यान आया कि खेल में संलिप्त होकर समय का ध्यान ही उतर गया और सुबह 4 बजे तक खेलते ही रह गए। 

गुजरात के द्वारका जी के पास प्रतिनियुक्ति पर वहाँ मुझे एक बना बनाया क्लब मिला। सहकारिता पूर्ण समाज मिला। वहाँ मैं कर्मचारियों और बच्चों में कैरम के प्रति शौक जगाने में सफल रहा और इससे हम सब के खेल में उन्नति हुई । कुछ लोगों ने तो वहाँ कैरम सीखा भी। साल भर किसी न किसी रूप में कैरम की प्रतियोगिताएँ होती रहती थीं और सभी उसमें भाग लेने के इच्छुक रहते थे। कुछ पुराने नामचीन खिलाड़ी भी वापस खेल की सुध लेने लगे। इससे मुझे बहुत उत्साह मिला। 

कुछ समय बाद वहाँ कांडला पोर्ट ट्रस्ट के खिलाड़ी भी आने लगे। हमने उनका स्वागत किया जिससे मेरे व अन्य कैरम खिलाड़ियों को विविधता मिली। जिस से हम सब के खेल में उन्नति हुई। 

नौकरी के अंतिम पड़ाव में छत्तीसगढ़ के कोरबा में नियुक्ति हुई। मेरे लिए कोरबा जाना- पहचाना शहर था। 1974 में जब मैं बिलासपुर (छ.ग.) में पढ़ रहा था, तब मेरे भैया ने कोरबा से ही कोल इंडिया में नौकरी शुरु किया था । तब मैं करीब महीने में दो बार तो वहाँ जाया करता था। उस दौरान बालको और एन टी पी सी के प्लाँट बन रहे थे। हम उसके अंदर जाकर घूम आया करते थे।

कोरबा रिहाइश के दौरान एन टी पी सी कालोनी में ही आवास मिला और फिर उनके क्लब में प्रवेश। मेरे कैरम से वहाँ के खिलाड़ी खुश हुए और बहुत सारे पुराने खिलाड़ियों ने क्लब में आना शुरु किया। उस क्लब में कैरम के खेल का दौर फिर चल पड़ा। कुछ राष्ट्रीय स्तर खिलाड़ियों व अंपायरों से संबंध बने। वहाँ सर्व श्री - विश्वेश्वर मिश्रा, सदानंद दुबे , बी. एम. धुर्वे, प्रेमलाल और संजीव मालपुरे विशेष साथी रहे। तब से ही मैं कोरबा कैरम संघ का आजीवन सदस्य हूँ। 

कोरबा के कैरम संघ के सचिव श्री आलेक गुहा को खबर लगी । उनसे मुलाकात हुई और उन्होंने मुझे कोरबा जिला कैरम प्रतियोगिता करवाने के लिए टूर्नामेंट डायरेक्टर घोषित कर दिया। मुझे इसके लिए अवकाश प्रदान करने हेतु उन्होंने मेरे कार्यालय को भी पत्र लिखा। 

टूर्नामेंट के वक्त जबलपुर निवासी श्री सतीश श्रीवास्तव जी, जो कोरबा कैरम संघ के अध्यक्ष थे और हैं, मिलने आए और उन्होंने टूर्नामेंट की सराहना की। टूर्नामेंट सफल हुआ देखकर सचिव ने मुझे अंपायर की हैसियत से आल इँडिया कैरम फेडेरेशन कप, रायगढ़ (छ.ग.) में आमंत्रित किया। यहाँ से मेरा कैरम में अंपायरिंग का सिलसिला शुरु हो गया। इस शृंखला में मैं राष्टीय कैरम प्रतियोगिताओं (नेशनल सब जूनियर, नेशनल जूनियर, डिस्ट्रिक्ट और स्टेट के रैंकिंग, हर स्पर्धा व फेडेरेशन कप के खेलों में भी अंपायरिंग कर चुका हूँ। एक दो स्पर्धाओं में मैं चीफ रेफरी और चीफ गेस्ट भी रह चुका हूँ।  इसी दौरान मैंने हिंदी भाषियों के लिए  लास आफ कैरम का हिंदी में अनुवाद भी प्रस्तुत किया है जिसका विस्तृत उल्लेख इस पुस्तक में भी है। 

2015 अक्टोबर में मैं इंडियन आयल की नौकरी सेवाओं से निवृत्त होकर हैदराबाद में बस गया हूँ। अब भी साथियों के साथ करीब रोज घंटे – दो घंटे कैरम खेल लेता हूँ। यह मेरे दिनचर्या का एक अभिन्न अंग बन गया है।

उपर्लिखित सभी के सहयोग से ही कैरम में इतना आगे बढ़ पाया। इन सबके बिना मैं आज इस पुस्तक के बारे में सोच भी नहीं पाता। मैं अपने इन सभी आदरणीय साथियों का तहे दिल से आभार व्यक्त करता हूँ। 

हिंदी भाषा से प्रेम की वजह से मैंने अपनी हिंदी की कुछ पुस्तकें प्रकाशित की हैं। साथियों ने मुझे प्रेरित किया है कि में अपनी कैरम की जानकारी के साथ बच्चों के लिए एक पुस्तक तैयार करूँ।अब कोशिश है कि मेरा सीखा हुआ कुछ समाज के बच्चों व कैरम के नौसिखियों के लिए प्रस्तुत करूँ। इसीलिए अपनी अन्य प्रकाशनों की शृंखला में कैरम पर भी एक पुस्तक प्रकाशित करने जा रहा हूँ ।

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