अभिवादन
सामान्य भाषा में अभिवादन को नमस्ते या नमस्कार कहा जा सकता है। इसे वंदन भी कहते हैं। नमस्ते, नमस्कार और प्रणाम सभी वंदन के ही रूप हैं। नमस्कार करते वक्त “नमो नमः” का उच्चारण किया जाता है। नमः का अर्थ है नमन । दोनो हाथों के पंजों को जोड़कर, नतमस्तक होकर किया गया वंदन ही नमस्कार है।
सामान्यतः दोनों होथ जोड़कर, नतमस्तक होकर अभिवादन किया जाता है। इससे अगले व्यक्ति की गुरुता को स्वीकार करने की भावना जागती है और संप्रेषित होती है। वैसे कुछ लोग एक हाथ हिला कर भी अभिवादन करते हैं किंतु यह औपचारिक नहीं होता। इससे परस्पर सद्भाव का विचार प्रेषित नहीं होता। इसे अनौपचारिक वंदन भी कहते हैं।
श्रद्धा पूर्वक किया गया नमस्कार अहंकार को मिटाता है। लोगों के प्रति श्रद्धा
व आदर का भाव दर्शाता है। इसे मानसिक हवन के समतुल्य माना गया है। नमस्कार करते
समय हाथ में कोई वस्तु नहीं होनी चाहिए। इसे अश्रद्धा समझा जाता है। नमस्कार करते
वक्त दो सेकंड के लिए आँखें मूंदने से मन मस्तिष्क पुनःजागृत होता है। नमस्कार को
तारक मंत्र माना गया है।
नमस्ते-नमस्कार शब्दों का प्रयोग में जीवन में नित-दिन करते रहते हैं। नमस्ते-नमस्कार के बहुत रूप हैं और सबका अपना आध्यात्मिक महत्व है। गूढ़ में जाएँ तो पाएँगे कि किसी को नमस्कार करते समय हम मन से यह मानते हैं कि –
आप बड़े हैं, मैं छोटा हूँ। मैं अपना “मैं” / “अहम्” त्यागकर आपकी दासता स्वीकार करता हूँ। किंतु कालांतर में यह केवल दैवीय संदर्भ तक ही सीमित हो गया है।
नम: + ते = नमस्ते
मतलब “आपको (तुमको) नमन”
करता हूँ। यहाँ “आप” एकवचन है। इसलिए
नमस्ते एक ही व्यक्ति को किया जाता है। जब एक से ज्यादा व्यक्ति हों तो हर व्यक्ति
को अलग - अलग नमस्ते करना चाहिए। दो लोग
हों तो “नमोवाम” और तीन या अधिक लोग
हों तो “नमोवह” कहना चाहिए। प्रत्यक्ष
या कहें रूबरू होने पर ही नमस्ते का प्रयोग होना चाहिए।
नमस्ते प्रत्यक्ष रूप से सब लोगों यानी छोटों. बड़ों और समतुल्योंको भी, अलग-अलग को किया जा सकता है।
नमः + स + करः = नमस्कारः
इसमें हाथ जोड़े जाते हैं इसलिए यह एक क्रिया भी है।
इसे प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में प्रयोग किया जा सकता है।
नमस्कार प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में समान अवस्था वालों को किया जाता है।
अपने से बड़ों को – माता-पिता , गुरु, आध्यात्मिक गुरु और देवताओँ को प्रणाम किया जाता है।
नमस्कार के प्रकार : - काया, वाचा, मनसा तीन मुख्य प्रकार होते हैं।
1. मानस नमस्कार बाण – युद्ध की स्थितियों में विपक्ष में खड़े गुरुजनों को उनके कदमों के पास शर-संधान कर नमस्कृत करने की परंपरा है । इसे बाण-नमस्कार कहते हैं। महाबली भीष्म ने युद्ध में गुरु परशुराम को और महाभारत में अर्जुन ने भीष्म पितामह को चरणों के निकट शर-संधान करके ही अभिवादन किया था। मानस नमस्कार में परोक्ष रूप से मन ही मन भी प्रणाम किया जा सकता है।
2. वाचा “नमों नमः” का उच्चारण करते हुए – वचन से नमो नमः, नमस्कार, नमस्ते कहकर किया हुआ वंदन, सबसे सरल और साधारण अभिवादन कहलाता है। शारीरिक नमस्कारों के साथ भी वचन से नमस्कार करने की प्रथा है। इससे नमस्कार की गुणवत्ता बढ़ती है।
6. शारीरिक षष्टाँग (प्रणाम) नमस्कार – यह कोई मान्य नमस्कार नहीं है। दोनों हाथ के पंजे, कोहनियाँ, सिर, वक्षस्थल, घुटने और पैरों के पंजों को धरती पर टिकाकर किया जाता है।
7. शारीरिक साष्टाँग (दंडवत् प्रणाम) नमस्कार – विधान पूर्वक देवताओं के विग्रहों को, आध्यात्मिक गुरुओं और सन्यासियों को इस तरह से नमस्कार किया जाता है। इसमें सिर, दोनों भुजाएँ (पंजे, कोहनियाँ और कंधे), आँख, वक्षस्थल, जंघे और दोनों पैर (पंजे और घुटने) धरती को छूने चाहिए। इनके साथ मन और बुद्धि को एकाग्र कर ईश्वर या आध्यात्मिक गुरु के शरणागत होने को अत्युत्तम नमस्कार माना गया है। इसे ही साष्टाँग प्रणाम या दंडवत् प्रणाम कहते हैं।
सूर्य नमस्कार में कहा गया है कि –
उरसा, शिरसा, दृष्टया, मनसा, वचसा तथा
पदभ्याम् , कराभ्याम् ,जानुभ्याम् , प्रणामो अष्टाँग
उच्यते।
वक्षस्थल, सिर,नयन, मन, वचन,
पैर,जंघा और हाथ –
इन आठों अंगों को झुकाकर धरती को स्पर्श करते हुए किया गया
नमस्कार स – अष्टाँग (साष्टाँग) नमस्कार कहलाता है।
8. पाद नमस्कार –
नमस्कार करते समय पैर छूकर किए गए नमस्कार को पद य पाद नमस्कार कहते हैं। साधारणतः
प्रणाम करते वक्त पैरों को स्पर्श नहीं किया जाता। ऐसी मान्यता है कि जब तक अगले
व्यक्ति से आप पूर्णतः परिचित न हों या वह आध्यात्मिक गुरु न हों उनके चरण स्पर्श
करते हुए प्रणाम नहीं करना चाहिए।
किंतु इन दिनों चापलूसी के कारण राजनीतिज्ञों के चरणस्पर्श
किए जाते हैं।
9. व्यस्त-हस्तं
नमस्कार – इसमें दाहिने हाथ को अगले के बाएं पैर के पास और बाएं हाथ को अगले के
दाहिने पैर के पास (बिना छुए) नमस्कार किया जाता है। यह नमस्कार के सारी विधाओं
में किया जा सकता है। अक्सर पहुँचे हुए आध्यात्मिक गुरुओं को, पीठाधीशों को ही ऐसा
नमस्कार किया जाता है। व्यस्त-हस्तं साष्टाँग नमस्कार इसका सर्वोत्तम रूप है।
शारीरिक नमस्कार के निम्न प्रचलित रूप हैं – (यह सब अनौपचारिक अभिवादन माने जाते हैं।)
1.
सिर झुकाना।
2.
हाथ जोड़ना।
3.
ऊपर के दोनों का युग्मन।
4.
ऊपर के किसी एक, दो या तीनों के साथ घुटने झुकाना।
सद्भावना और मानसिक एकाग्रता से किए गए नमस्कार-प्रणाम के लाभ –
1.
आपकी सकारात्मकता और
मानसिक निर्मलता में वृद्धि होती है।
2.
दूसरों के मन में
आपके प्रति सद्भावना का विकास होता है।
3.
दूसरों के प्रति नम्रता
बढ़ती है।
4.
अपना “मैं” या “अहम्” त्यागने में आसानी होती है।
5.
दूसरों के प्रति आदर
और श्रद्धा जागती है और उनको श्रेष्ठ समझकर ज्ञान प्राप्त करने में आसानी होती है।
6.
आध्यात्मिक गुरुओं
को समक्ष या मंदिरों में ईश्वर के प्रति
दासता स्वीकार करने का बोध होता है। इससे गुरु और देवता के प्रति कृतज्ञता और शरणागत होने का भाव
जागृत होता है।
7.
मन मस्तिक शांत होता
है।
***
यह लेख पूरी तरह से मौलिक नहीं है। इसमें कुछ अंश हैदराबाद, तेलंगाना से
प्रकाशित तेलुगु दैनिक अखबार “ई नाडु“ के 14 सितंबर 2020 के अंक के लेख
से साभार उद्धृत है। लेख डॉ.दामेर वेंकट सूर्याराव द्वारा रचित है। अखबार में उनका
पता या संपर्क नही दिया गया है। लेख सूचनाप्रद होने को कारण इसे जन साधारण तक
पहुँचाने के लिए उद्धृत अंश का हिंदी में अनुवाद किया गया है।
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