बापू - फिर मत आना
तुम्हारी वह कश्ती,
जो तुम हमें सौंप गए थे,
हम सँभाल नहीं पाए.
और वनप्राणी - रक्षण संस्था ने,
तेरे बंदर छीनकर
जबरन जंगल में छोड़ दिए,
बोले – जंगली जानवर पालना,
पशुओं पर हिंसा है,
उनकी स्वच्छंदता हर ली जाती है.
उधर बकरी न जाने क्यों नाराज हो गई,
उसने दूध देना बंद कर दिया,
अब बस चारा खाती थी,
खैर कोई बात नहीं,
तुम्हारी याद तो दिलाती थी,
पर, एक दिन चोरी हो गई,
पता नहीं किसने चुराई,
बहुत खोजा मिल न पाई,
डर रहा हूँ किसी ने
किसी ने बाजार के हवाले नहीं कर दी.
फिर खबर भी नहीं लग पाएगी
कि वह झटके के हवाले हुई
या उसकी खस्सी ही हो गई.
हाँ, तुम्हारी सहारे की डंडी,
मेरा भी सहारा बनी,
आए दिन मुझे कुत्तों और
साँडों से बचाती रही,
लेकिन एक दिन,
अपने बचाव में,
साँप मार रहा था,
साँप तो बच के भाग निकला,
पर लाठी टूट गई,
अब मेरे पास की
तुम्हारी हर निशानी
मिट गई,
हाँ एक घड़ी थी,
वह रखे रखे जंग खा गई,
क्योकि अब इलेक्ट्रानिक वाच आ गए हैं,
चाबी वाली घड़ियाँ तो एन्टिक मानी जा रही हैं.
लेकिन बापू
मैं आज भी तुम्,
याद करता हूँ.
तुम्हारे नाम की कई स्कीमें
सरकार ने जो खोल रखी हैं,
उनके बारे रोज अखबार में पढ़ने मिलता है.
किसी दिन पक्ष,
तो किसी दिन विपक्ष,
उन पर कीचड़ उछाल ही लेता है...
क्या करें
स्कीमें भी तो अलग - अलग
सरकार की चलाई हुई हैं,
जब जिसको फायदा नजर आता है ,
वह थोड़ा कोस लेता है.
अब तुम तो यहाँ हो नहीं
कि लोग तुमसे डरेंगे,
तुम्हारी इज्जत करेंगे,
और कुछ उल्टा- सीधा कहने से
परहेज करेंगे.
बापू, अब जमाना भी बदल गया है,
“आऊट ऑफ साईट
यानी
आऊट ऑफ माईंड”
का जमाना चल रहा है,
ऐसे में बोलो बापू कैसे
कोई तुम्हारे बारे सोच सकेगा.
जमाना कॉम्पिटीशन का हो गया है,
अब तो इंजिनीयरिंग और
मेडिकल करके भी नौकरी नहीं मिलती,
कोई अपना काम नहीं करना चाहता,
सब को सरकारी नौकरी ही चाहिए,
क्या करे सरकार भी,
सभी परेशान हैं,
ऐसे में एक बात जरूर है कि,
तुम्हारे नाम से कुछ भी चल जाता है,
कोई आपत्ति नहीं करता
इसलिए जहाँ कहीं भी
आपत्ति की संभावना होती है,
तो तुम्हारा नाम जोड़ लिया जाता है,
स्कीम बिक जाती है.
बापू, कभी कभी तो मुझे डर भी लगता है,
किसी दिन सर फिर गया,
तो कोई बिक्री बढ़ाने के लिए,
बाजार में गाँधी ब्राँड रम
या विस्की न उतार दे,
हाँ यह जरूर है कि वह दिन
देश के लिए अति दुर्भाग्य का दिन होगा,
फिर भी हालातों के मद्दे नजर
मुझे असंभव तो नहीं लग रहा,
मैं इन विचारों के साथ - साथ
काँपने लगता हूँ.
भगवान करे, ऐसा न हो,
जितना हो रहा है ,
क्या वह कम है कि
और की ख्वाहिश की जाए.
बापू, एक सलाह देना चाहूँगा,
यही एक चीज
आज मुफ्त में मिलती है,
काम की हो या बेकाम की,
कारगर हो या न हो,
मिल ही जाती है.
गलती से भी धरती पर
फिर मत आना
और यदि आ गए.
तो देखोगे, कि
तुम्हारा कैसा मखौल उड़ाया जा रहा है.
बहुत दुख होगा तुम्हें,
मुझे डर है ,
कहीं हृदयाघात हो गया तो,
अब दूसरा राजघाट,
शायद मिले ना मिले.
एम.आर. अयंगर.
आदरणीय अयंगर जी --- गहरे चिंतन से उपजा गाँधी को मार्मिक उद्बोधन और आज के संदर्भ में गांधीवाद औरगाँधी की विलुप्त हो रही प्रासंगिकता पर बड़ी ही सार्थक रचना है | सचमुच ऐसा ही हो रहा है आज | सचमुच आज अगर बापू इतिहास के पन्नो से निकल दुनिया के सामने आ जाएँ तो उनसे यही व्यवहार होगा और अपने आदर्शों के प्रतिकूल इस देश को पाकर वे बहुत व्यथित होंगे |
जवाब देंहटाएंधन्यवाद रेणु जी,
जवाब देंहटाएंबहुत समय बाद आप ब्लॉग पर दिखीं. अच्छा लगा.आपकी राय देते रहिए.
सादर विनीत.
अयंगर
आदरणीय आयंगर जी , आपकी रचना पर ये टिप्पणी मैंने बहुत समय पहले की थी जो मेरे गूगल प्लस पर सुरक्षित थी | जिन सहयोगियों के ब्लॉग गूगल प्लस से जुड़े थे सभी की टिप्पणियाँ गायब देखकर बहुत दुःख हुआ | पर क्या कर सकते हैं | मैंने अपने अकाउंट में सुरक्षित कुछ टिप्पणियों को दुबारा उन्ही रचनाओं पर पहुंचा दिया है | सादर प्रणाम |
जवाब देंहटाएंसुप्रभात रेणु जी,
जवाब देंहटाएंगूगल प्लस के जाने से 75%से ज्यादा टिप्पणियाँ हट गई हैं, दुख तो बहुत हुआ पर कोई रास्ता नहीं है.
गूगल+ इस तरह इतने कम अंतराल में ही हट जाएगा, किसी ने सोचा भी नहीं होगा. इसलिए किसी ने भी गूगल+ पर की टिप्पणियाँ नहीं सँजोई होंगी. एक मात्र आपने न जाने कैसे बचा रखा है.
पता नहीं उन टिप्पणियों को पुनर्जीवित करने हेतु आपका आभार कैसे व्््ययक्त करूँ.
सादर,
अयंगर