भाषा की लिपि
भाषा और बोली
में फर्क मात्र लिपि का है. यदि बोली के साथ लिपि है तो वह भाषा है अन्यथा बोली. हर भाषा अपने प्रयोग के अनुसार लिपिबद्ध होती है. उस भाषा का
उपयोग करने वाले अपनी उपयोगिता के अनुसार लिपि को तराश लेते हैं.
मुझे याद है
बचपन में घर की जबरदस्तियों के कारण जब पिताजी ने मुझे हिंदी स्कूल से हटाकर
मातृभाषा वाले स्कूल में दाखिल कर दिया गया, तब मैं चौथी कक्षा में पढ़ता था और मुझे
मातृभाषा की वर्णमाला का भी ज्ञान नहीं था. अंक रोमन ही उपयोग में लाए जाते थे
इसलिए गणित तो हल हो जाते थे लेकिन जब टीचर उसे बोर्ड पर हल करने को कहते, तो मेरी
हवा निकल जाती थी. इबारत वाले सवालों को मैं ब्लेक-बोर्ड नकल मारकर हूबहू लिखने की
कोशिश करता और घर पर दादाजी को दिखाता. एक तो वर्णमाला नहीं आती और दूसरी दक्षिणी
भाषाओं के अक्षर (वैसे ही गोलमोल होते थे) – गजब का संयोग था. इससे आधी से ज्यादा
इबारत तो किसी के पल्ले पड़ती ही नहीं थी. एक काम मैंने अक्ल का किया (ऐसा अब आभास
होता है) कि प्रश्न और उत्तर के बारे में जो कुछ भी शिक्षक कहते थे उनको मैं हिंदी
में (देवनागरी मुझे आती थी) लिख लेता था. इससे कम से कम मुझे याद रहता था कि क्या
बोला गया. मातृभाषा बोलनी तो मुझे आती ही थी इसलिए मैं उसे मातृभाषा में पढ़ भी
लेता था. इससे परेशानी काफी हद तक कम हो गई.
धीरे - धीरे
मातृभाषा भी सीखी और जहाँ कोई शब्द गले नहीं उतरा या अर्थ पता नहीं होता था, उसे
हिंदी-देवनागरी में लिख लेता था. इस तरह जब तक मैं अपनी मातृभाषा पूरी तरह नहीं
सीखा, मेरा यही रवैया चलता रहा. घर व स्कूल के दबाव में अपनी तरकीब का सहारा लेकर
मैं मातृभाषा लिखने- पढ़ने लायक हो ही गया था और बोलना तो घर से ही आता था. अब मैं
किसी से कहूँ कि दक्षिण भारतीय भाषाओं को हिंदी में लिखना चाहिए, ऐसे ही मैंने
किया है और सफल हुआ हूँ तो दक्षिण भारतीय तो मुझे कच्चा चबा कर खा जाएंगे. क्यों
कि उनकी अपनी लिपि है – कोई उसे कैसे नकारेगा. अपनी हर चीज – कितनी भी तुच्छ हो
सबको प्यारी होती है. हिंदी के जाने माने कवि श्री ओम प्रकाश आदित्य जी ने एक कवि
सम्मेलन में काव्यपाठ किया था –
धूल धक्कड़ हो, धुआँ हो, धुंध हो बेशक वहाँ,
मेरा अपना गाँव फिर भी मेरा अपना गाँव है.
बात सौ फीसदी
सही है. शायद ही किसी को इस पर ऐतराज हो.
वैसे ही किसी
भी भाषा की लिपि में परिवर्तन की बात करें, तो उस भाषा के लोग इसे गलत तो समझेंगे
ही और उन्हें लगेगा कि दूसरे उनकी भाषा का अपमान कर रहे हैं. ऐसी ही बात कुछ दिनों
पहले चेतन भगत ने की. अखबारों में छपा “रोमन लाओ -
हिंदी बचाओ” का अर्थ देता, इनके लेख ने तो हिंदी के पक्षधरों के पाले में तूफान खड़ा कर दिया. हाल ही में डॉ
रामवृक्ष सिंह जी ने भी बड़े तीखे अंदाज में अपना लेख प्रस्तुत किया जिसमें
उन्होंने अन्य लेखकों की तरह ही चेतन भगत के विचारों का खंडन किया. ब्लॉग की
दुनियाँ में ऐसे लेखों की बारिश ही आ गई. किंतु आश्चर्य किसी ने भी भगत जी का साथ
नहीं दिया. यानी हिंदी का लेखक वर्ग एकमत होकर भगत जी के विचारों का खंडन करता है.
इस वषय विशेष पर उनमें कोई आपसी मतभेद नजर नहीं आता.
भगत जी का कहना
है कि हिंदी लिखने के लिए देवनागरी लिपि के बदले यदि रोमन लिपि अपना ली जाए, तो आज
के हालातों में हिंदी ज्यादा पनपेगी, अन्यथा हिंदी अपनी हालातों पर तरस खाती हुई
एक दिन लुप्त हो जाएगी. यह बात किसी भी हिंदी भाषी के गले उतरती नहीं दिखती. मुझे
यह समझने में दिक्कतें आ रहीं हैं कि चेतन भगत जैसे लेखक को भी समझ में नहीं आया
कि किसी भी भाषा का लुप्त हो जाना !!! क्या मजाक है ??? खास तौर पर हिंदी
भाषा – जो साहित्य की इतनी धनी है कि शायद गंगा सूख जाए, किंतु हिंदी नहीं सूखेगी.
फिर कैसे भगत ने ऐसी बात कहने की जहमत मोल ली ?
एक तो यह बात
हुई कि हिंदी को लिपिबद्ध करने के लिए देवनागरी के बदले रोमन लिपि का प्रयोग किया
जाए जो किसी को भी रास नहीं आ रहा है. दूसरी बात यह भी है कि गुजरात के कुछ
प्रबुद्ध भी इसका समर्थन करते पाए गए हैं. मेरे ब्लॉग पर के लेख – “हिंदी - दशा और दिशा” पर तो इनने
टिप्पणियों का ढेर लगा दिया है. हालाँकि उसमें हमने अपनी अपनी राय का जिक्र ही
किया है किंतु उसमें उनकी राय कि हिंदी को देवनागरी के बदले गुजराती लिपि अपना
लेनी चाहिए ( इसे वे गुजनागरी कहते हैं) या फिर रोमन लिपि की सोचना चाहिए. उनका कहना था ( शायद है भी) कि इससे
हिंदी सरल व सुगम होगी व हिंदी का प्रचार-प्रसार भी विस्तृत हो जाएगा. लेकिन इस पर
किसी हिंदी लेखक की टिप्पणी मैंने कहीं नहीं पढ़ी. साईट है – https://saralhindi.wordpress.com/
दो एक लेखों के
लिंक दे रहा हूँ – यदि आप देखना चाहें तो देख सकते हैं.
गुजराती लिपि
में लिखी हिंदी के नमूने के तौर पर यह लिंक दिए गए हैं. जहाँ मेरा मानना है कि
गुजराती हमारे बचपन की हिंदी जदैसी है और आज के हिंदी तक आने में उसे शायद 40 वर्ष
और लग जाएं लेकिन सरल हिंदी वालों का मानना है कि गुजराती लिपि को अपनाने से हिंदी
बेहतर हो जाएगी. उनकी कुछ और दलीलें भी हैं जैसे अनुनासिक, अनुस्वार व हलंत को
हिंदी से हटा दिया जाना चाहिए – उनकी उपयोगिता खत्म हो गई है... शिरोरेखा का कोई
अस्तित्व या मायने नहीं है इत्यादि. अच्छा होगा पाठक उसी लेख को ( या पोर्टल के
अन्य लेखों को ) पढ़कर ही अपनी राय दें.
मैं लिपि बदलने
के बारे में और कुछ नहीं कहूंगा. विचारों के मंथन के लिए इतना काफी है.
अब बात आती है
दूसरी तरफ जैसे मैंने हिंदी के सहारे मातृभाषा सीखी, वैसे ही कोई हिंदी सीखने के
लिए किसी और लिपि का सहारा लेता है तो उसमें बुराई ही क्या है ? मैंने अपनी मातृभाषा को हिंदी में लिख कर सीखा तो कोई गुनाह तो नहीं किया.
बल्कि मुझे खुशी इस बात की है कि हिंदी के सहारे मैं एक और भाषा सीख गया. वैसे ही बंगाली भाषा के सहारे मैं असमी सीख पाया.
जहाँ तक शिक्षा की सीढ़ी के रूप में किसी भी भाषा के लिए कोई भी लिपि अपनाई
जाए तो इसमें कोई कमी नहीं देखी जानी चाहिए - बल्कि इस पर हमें गर्व होना चाहिए.
मुझे वे दिन
याद हैं जब रक्षा सेवाओं में कार्यरत मेरा एक दोस्त, जिसे हिंदी लिखनी आती थी, मुझे
रोमन हिंदी में पत्र लिखता था. पूछने पर उसने बताया कि वहाँ शैक्षणिक कार्य़क्रम
ऐसे ही लिपि – भाषा युग्म में चलते हैं. भाषा हिंदी और लिपि रोमन ... इसे वे रोमन हिंदी के नाम से
पुकारते थे. यह 70-80 के दशक की बात है.. आज की कोई नई नहीं.
यह बात सबको
माननी ही पड़ेगी कि यदि मुझे जर्मन भाषा में कोई वक्तव्य देना है या भाषण देना है
तो मैं एक भाषण के लिए जर्मनी नहीं सीखूंगा – केवल उसका उच्चारण सीखूंगा और बाकी
भाषण को अपनी चहेती भाषा (लिपि) में लिख कर पढ़ दूंगा. विश्व के बहुत सारे (हमारे
देश के भी) नेता इसी तरह अन्य देशों की भाषा में भाषण देते हैं. यदि आप चाहोगे कि
जर्मनी का नागरिक हिंदी भाषण को हिंदी मे लिख कर बोले (भाषण दे), तो वह भाषण देगा
ही नहीं. इस तरह एक आध या कुछ विशिष्ट हालातों में कोई भाषा कि, दूसरी लिपि में
लिखी जाती है, तो किसी को भी किसी भी तरह का ऐतराज तो होना ही नहीं चाहिए. वक्ता
अपनी पसंद के हिसाब से राह चुनता है और भाषण देकर चला जाता है. श्रोता को तो उनकी
भाषा में सुनने को मिल ही रहा है.
चेतन भगत ने क्या
सोच-समझकर कहा और एक नहीं कई अखबारों में अपना लेख छपवाया, इसका इल्म तो उसे ही
होगा, किंतु यह सही नहीं लगती. भगत जैसे लेखकों को इस तरह की राय लेख के माध्यम से
देने के पहले अच्छी तरह सोच- विचार कर लेना चाहिए कि जनता की प्रतिक्रिया उन पर
कैसी होगी. इस संबंध में भगत को मेरी राय होगी कि ऐसे आमूल – चूल परिवर्तनों का
सुझाव वे अखबारों के सहारे नहीं बल्कि किसी सभा में दें, जहाँ भाषाओं की खासकर
हिंदी भाषा (या भाषा विशेष जिस पर राय दी गई है) पर चर्चा हो रही हो, जिससे
उपस्थित भाषाविद व साहित्यकार इस पर चर्चा कर सकें और इसे स्वीकार या अस्वीकार
करने की क्षमतानुसार निर्णय ले सकें.
यदि ऐसे लेखकों
का मानना है कि किताब के विक्रय मात्र से उनकी हर बात प्रमुख हो जाती है और जनता उनकी
हर मान जाएगी तो उन्हें अपने विचारों पर पुनर्विचार कर सुधार लेना चाहिए और
निर्कर्षीय वक्तव्यों से बचना चाहिए, वर्ना अब जैसा प्रहार होता रहेगा.
इन सब बातों से
परे एक सफलता के लिए मैं भगत को मुबारकबाद भी देना चाहूँगा कि उसने इस विषय पर एक
परिचर्चा व पुनर्मंथन तो करवा ही दिया.
एम आर अयंगर.
8462021340
ब्लॉग – laxmirangam.blogspot.in
ई-मेल – laxmirangam@gmail.com
सी 728, कावेरी विहार,
एन टी
पी सी टाऊनशिप,
जमनीपाली, जिला कोरबा
छत्तीसगढ़, 495450
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