हार्दिकी...
आज गुजरात में जो हो रहा है, इसकी कल्पना कम से कम मुझे तो बरसों पहले थी. हमारे
देश में आरक्षण एक ऐसा मुद्दा है जिसके खिलाफ उठी आवाज को दबाना बहुत ही आसान है.
इसके लिए
जनता को एक हद तक दुखी होना जरूरी था और मरता क्या न करता – की हालत
में आकर यह
कदम उठाया जाना था. मैंने कभी यह नहीं सोचा था कि यह कदम इस माहौल
में इस राजनीतिक
तरीके से उठाया जाएगा. इस अनशन में भी राजनीतिक रोटियाँ सेंकी जा रही
हैं. हाँ
इतना जरूर कहूँगा कि मुद्दा उछला यही एक बड़ी बात है. सिंह जी ने तो मंडल कमीशन
की
रिपोर्ट अपनाकर सामान्यों की तो कमर तोड़ ही दी. आरक्षण जिसने भी सोचा – उसने
ऐसा तो नहीं ही सोचा था. चाहे आप गाँधी का नाम लें चाहे अंबेडकर का.दोनों ही दूरदृष्टा
थे.
उनमें दलितों या कहें निस्सहायों को ऊपर उठाने की मंशा या कहें लालसा थी,
लेकिन देश की
कीमत पर नहीं. निस्सहायों की सहायता करना और उनको मुख्य धारओं में
लाना उनका
उद्देश्य रहा. लेकिन जिस तरह से इसे हमारे राजनेताओं ने अपनाया वह बड़ा
ही दर्दनाक व
भयंकर हुआ.उस वक्त के हालातों में अनुसूचित जातियाँ व अनुसूचित जनजातियाँ बहुत ही
गंभीर समस्या को झेल रही थीं यह कहना गलत नहीं होगा कि उनमें से एकाध ही समाज
की मुख्य
धारा में रहा होगा. इसलिए आरक्षण का कोई भी आधार होता तो वे सब उसमें
शामिल हो ही जाते. यदि निर्धारण
की अवधारणा सही होती तो उनके साथ दूसरी जाति के वे
लोग, जो अनुसूचित जाति / जनजातियों की तरह ही निरीह थे, वे
भी शायद फेहरिस्त में आ
जाते. आज राज्यपाल, मुख्यमंत्री, मंत्री साँसद विधायकों जैसे
संपन्न व बड़े - बड़े ओहदा
रखने वालों के परिवारों के अलावा देश के जाने माने
व्यवसाई व धनिक लोगों के परिवार को
आरक्षण
की सुविधा केवल इसलिए है कि वे अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति के हैं या
अन्य पिछड़ी जातियों से हैं. एक
सामान्य जन जिसके पास अवलंबन का सहारा नहीं है उसे
आरक्षण केवल इसलिए नहीं मिलता
कि वह जाति के आधार पर आरक्षण पाने योग्य नहीं है.
यह तो विचारणीय गंभीर
मामला है कि आरक्षण की अवधारणाएं कितनी सही और
कितनी गलत हैं. जैसे कभी अंग्रेजी
साप्ताहिक ब्लिट्ज़ लिखा करता था कि ‘गरीबी हटाओं के
नाम पर गरीब हटाओ’ अभियान चलाया जा रहा है. उसी तर्ज पर जातियों के नाम
अवधारणा
बनाकर, यह
सुनिश्चित किया गया कि वे पिछड़े ही रहें, इकट्ठे रहें और उन्हें पीढी दर पीढ़ी
सुविधाएँ मिलती रहें. किंतु कोई भी जाति समूह से बिछड़े नहीं. यही एक मात्र कारण
साफ
झलकता है... वोट बैंक. और वह दूसरा कुलीन गरीब अवलंबन को तरसता मर गया, किंतु
उसे
आरक्षण की सुविधा नहीं ही मिली. क्या यह उसका दोष था कि वह अनुसूचित जाति /
जनजाति परिवार का हिस्सा नहीं बन
सका. क्या उसने चाहकर सांमान्य वर्ग की जाति में
जन्म लिया था. फिर उस पर दुर्भावना क्यों ? उस पर गाज क्यों गिरे?
चाहिए तो यह था कि किसी भी जरूरत मंद को सहायता दी जाती कि वह सभी के समकक्ष
आ सके. किसी को पुस्तक चाहिए. किसी को ट्यूशन चाहिए. किसी को मकान चाहिए, किसी
को गाँव से स्कूल तक आने जाने का साधन चाहिए.
और इन सबके लिए पहले पैसा चाहिए।
केवल पैसे दे देने से आरक्षण की सुविधा का
दुरुपयोग होता रहा और अंततः इसी काऱण वे
जातियाँ इतने वर्षों में भी उभर नहीं
पाय़ी. ऐसी गलत आदतों को रोकने के लिए ही समय
सीमा तय थी, लेकिन हमारे राजनेताओं ने
अपनी बनाने के लिए उसमें पूरी खुली छूट ही दे
रखी है.
कुछ लोग कहते हैं कि सामान्य वर्ग ने उन्हें उठने नहीं दिया. यह सरासर गलत है.
जरा
जानिए कि इस वर्ग के जितने लोग उठे हैं, उन्होंने अपने साथियों के लिए क्या
किया? –
सेवाभाव से.
सच्चाई सामने आ जाएगी. यदि किसी ने किया है तो अपने रिश्तेदारों के लिए
या फिर
अपने वोट बैंक के लिए. सामान्य रूप से कहा ही जा सकता है कि किसी ने
सर्वसाधारण समाज के लिए कुछ नहीं किया यदि यह बात उन दिनों
कही जाती जब
आरक्षण शुरु हुआ था तो शायद मानी भी जाती, क्योंकि तब कुलीन लोगों का
ऊँचे ओहदे पर
जमाव था किंतु अब तो आरक्षित जाति वर्ग के बहुत से लोग अच्छे अच्छे
संस्थानों में ऊँचे –
ऊंचे और प्रमुख ओहदो पर विराजमान हैं – अब इस तरह के कथनों
को मानना मुश्किल ही
नहीं बेमानी होगी.
उस पर यह भी देखिए कि जो लोग सुधर सँवर गए हैं वे और उनकी बाद की पीढ़ियाँ आज
भी आरक्षण का फायदा ले रहे हैं. किसलिए? अब उन्हें किस कारण से सहायता चाहिए. सर्व
सुख संपन्न हैं.
एओकड़ों में खेत हैं, कारखाने हैं. नेताजी हैं, घर में धन धान्य की ही नहीं –
किसी
तरह की कोई कमी नहीं है. बस आरक्षण इसलिए चाहिए कि हमें जातिगत आधार पर
मिला है.
छोड़े क्यों? मोदी
जी गैस सब्सिड़ी छोड़ने के लिए बार बार सुझाव देते हैं इश्तिहार
छपवाते हैं – वे इन्हें
आरक्षण छोड़ने की विनती क्यों नहीं करते? वे साँसदों से संसद की
अवाँछित सुविधाओं को छोड़ने की विनती
क्यों नहीं करते? और देखना यह है कि यदि वे ऐसा
करते भी हैं तो कितने लोग उनकी विनती स्वीकारते हैं?
पिछले वर्षों में जब मुझे ‘डिपेंडेंट ऑफ डिफेंस परसोनल’ के आधार पर इंजिनीयरिंग में
दाखिला मिला, तो पहले ही दिन (दाखिले के पहले)
प्रिंसिपल ने बुलाया और कहा बेटे - आप
तो अपने नंबरों के आधार पर वैसे ही सीट पा जाओगे, किंतु
आप एक आरक्षित सीट रोक रहे
हो. यदि सीट मिलना ही आपका आधार है, तो एक पत्र
प्रिंसिपल के नाम लिख दो कि सीट
मिलने की अवस्था में मैं ‘डिपेंडेंट ऑफ डिफेंस परसोनल’ की तरफ से आरक्षण नहीं चाहूँगा.
इससे एक आरक्षित बच्चे को सीट मिल जाएगी. मुझे यह बहुत अच्छा लगा और मैंने तुरंत
मानकर वाँछित पत्र उनके हाथ में सौंप दिया. पता नहीं वह आरक्षित सीट किसको मिली,
कौन था या थी वह – यह मैंने जानने की भी
जरूरत नहीं समझी. किंतु मैं निश्चित तौर पर
कह सकता हूँ कि यदि वही आज हुआ होता तो
सच मानिए, मैं पत्र देने से मना कर दिया
होता. क्योंकि आज सामान्य वर्ग की वह हालत
हो गई है, जो कभी अन्यों की थी. सामान्य
वर्ग के लोग कालेजों में सीट व नौकरियों के लिए तरस रहे हैं. दर-दर भटक रहे हैं.
उनके
अच्छे नंबरों से पास होने का कोई लाभ ही नहीं. उनको अच्छे नंबर केवल इसलिए
लाने होते
हैं कि यह उसकी मजबूरी है या दुर्भाग्य है क्योंकि उनने एक कुलीन परिवार
में जन्म लिया
है यह उसकी (?) गलती है और आज की यही विडंबना है. पर उन्हें सजा तो मिल ही रही है.
मैं बिना किसी संकोच के कह सकता हूँ कि आज कुलीन समाज की वही हालत हो गई है, जो
कभी अनुसूचित जाति – जनजाति के लोगों की हुआ करती थी. समाज के विभिन्न वर्गों को
विशिष्ट स्थान, अधिकार व सुविधाएं देते
हुए हमने आज सामान्य वर्ग को कटघरे में खड़ा
कर रखा है.
एक गरीब परिवार में जन्मा बच्चा या बच्ची को मुफ्त शिक्षा दी जाए. उसे पढ़ने
के लिए
कापी किताब दी जाएँ. स्कूल की यूनीफार्म व अन्य खर्चों के लिए छात्रवृत्ति
या अन्य किसी
नाम से कुछ पैसे दिए जाएं. किंतु साथ ही यह भी सुनिश्चित करें कि वह
स्कूल में पढ़ने में
नियमित तौर से आ रहा या रही है. जरूरत पड़े तो मुफ्त कोचिंग -
ट्यूशन भी दिया जाए.
ताकि वह अन्य सम्पन्न छात्र- छात्राओं के समकक्ष आ सकें. पैसा
खुद मंजिल नहीं अपितु वह
विभिन्न मंजिलों के लिए सुविधा है.
यह सब छात्र विभिन्न कक्षा की सभी परीक्षाओं में सबके साथ भाग लें और निर्धारित
योग्यताओं के अनुसार ही उत्तीर्ण होकर अगली कक्षा में जाए. इससे विद्यार्थियों में
शिक्षा का
स्तर बना रहेगा. आज के अखबारों सी खबरें नहीं छपेंगी - कि तीसरी कक्षा
के छात्र अक्षर भी
पहचान नहीं पाते. आठवीं के छात्र छोटे - छोटे गणित के सवाल हल
नहीं कर पाते. और तो
और हाल ही में उत्तरप्रदेश में हुए निरीक्षण की तरह कोई यह
नहीं कहेगा (कहेगी) कि उत्तर
प्रदेश का मुख्यमंत्री राहुल गाँधी है. ऐसी हास्यस्पद
स्थितियों से बड़े आराम से बचा जा सकेगा.
आरक्षण प्रणाली का नाजायज फायदा उठाने से रोकने के लिए सुविधाओं की एक समय
सीमा
तय की जाए, जिससे लोग मुख्यधारा में जुड़ने के लिए आवश्यक मेहनत भी साथ - साथ
करें. संविधान में आरक्षण की समय सीमा का भी आधार शायद यही रहा होगा.
क्या एक
सामान्य वर्ग के बच्चे ने तय किया था कि उसे किस कुल, जाति, परिवार में जन्म लेना
है? यदि
नहीं तो परवरदिगार के किए की सजा उसको क्यों? कौन सा कोर्ट ऐसा निर्णय दे सकता है? यदि समाज में
बराबरी लाना ही मौलिक उद्देश्य था या है तो आर्थिक तंगी वालों को सुविधाएं दी जाएं
चाहे वो पटेल हों, गूजर हों, जाट हों या पाँडे. सब में मानव देखिए. जान देखिए, जात
नहीं. अन्यथा झेलिए जो झेल रहे हैं. किसी दिन अन्य जातियाँ भी एक - एक करके यही
काँड करेंगी, जो आज पटेल कर रहे हैं. कल गूजरों और जाटों ने किया था. यदि देश
की हालत पर किसी को चिंता है तो योग्यता में कोई कटौती मत कीजिए. दीजिए सारी
संभव सुविधाएं ताकि वे योग्य बन सकें. लेकिन कोई राजनीति से ऊपर उठकर निर्णय ले
सके, तब ही यह संभव हो पाएगा.
बीच में कुछेक बार गुर्जरों ने भी आरक्षण का मुद्दा उठाया था, इसके तहत रेलें
भी रोकी गईं
थी. कुछ समय पहले ही जाटों ने भी आरक्षण का मामला उठाया था और सरकार
मानने ही
लगी थी कि सर्वोच्च न्यायालय ने कुछ और ही फैसला दे दिया. अंततः जाटों को
आरक्षण
नहीं मिल सका.
आज के इस पटेलों के आँदोलन में पटेलों ने तो आरक्षण चाहा है लेकिन दबे मुँह यह
भी कहा
गया है कि हमें आरक्षण दो या देश को आरक्षण मुक्त कराओ. यदि गुजरात में
पटेलों की
हालातों को सही मायने में आँका जाए तो किसी भी कोने से नजरिए से ऐसा
नहीं लगता कि
उन्हें (पटेल जाति वर्ग को) आरक्षण की आवश्यकता है. लेकिन हाँ यह कहना
भी गलत होगा
कि सारे ही पटेल संपन्न हैं. जो आर्थिक तौर से विपण्ण हैं, उन्हें तो
आरक्षण का लाभ
मिलना चाहिए - जायज भी है. लेकिन आँदोलन को देख कर लगता है कि जोर
इस बात पर
कम है कि पटेलों को आरक्षण चाहिए किंतु इस पर ज्यादा है कि देश को
आरक्षण मुक्त
कराओ. उधर आरक्षण की जंग में वापस लाने के लिए जाटों व गूजरों से भी
संपर्क साधा जा
रहा है. इनमें जाटों को भी पटेलों की तरह जातिगत - आरक्षण सुविधा
की जरूरत नहीं
महसूस होती – केवल गरीब तबकों के लिए ही इसकी आवश्यकता है.
आज अखबारों में, ब्लॉगों में तरह तरह के लेख पढ़ने को मिल रहे हैं. सब तरह के
तक -
वितर्क एवं कुतर्क दिए जा रहे हैं. जिसको जो भाए समझ ले. कुछ ने तो आँकड़े भी
दे रखे हैं
कि जनसंख्या का कितना भाग अजा, अजजा या अपिजा हैं और सामान्य वर्ग
कितना है.
इसके अनुसार 50 प्र.श. आरक्षण को वे कम ठहरा रहे हैं. कहते हैं कि सामान्यवर्ग
18 से 20
प्र.श. है और उनके लिए 50 प्र. श. स्थान रख दिए गए हैं.
जहाँ तक मुझे इसका ज्ञान है आज भी सैद्धान्तिक तौर पर तकलीफ कम और कार्यान्वयन
तौर पर ज्यादा हैं. सामान्य वर्ग के साथ योग्यता के आधार पर चुने गए अजा, अजजा व
अपिजा के लोगों को उनके प्र. श. में नहीं गिना जाता. योग्यता के अनुसार चुने गए
लोगों को
छोड़कर, उनको निश्चित प्र, श. स्थान दिया जा रहा है. इसके फलस्वरप उनकी
उपस्थिति
जरूरत से ज्यादा हो जा रही है. उनके लिए उम्र में छूट है, योग्यता के
प्राप्तांकों में छूट है,
फीस माफ है, लाईब्रेरी व अन्य विभागों में फीस माफी के
अलावा सुविधाएं भी बहुत ज्यादा है.
उनकी सुविधाओं से किसी को परहेज नहीं होना
चाहिए. तकलीफ हो तो केवल योग्यता की
घटती स्तर से हो. सब कुछ है. सब मंजूर है,
लोकिन योग्यता के प्राप्तांकों की छूट नाजायज
है. केवल इसलिए कि वह योग्यता के
स्तर को कम कर देता है. क्या यह समझा जाता है कि
कम योग्यता से आया यह व्यक्ति
पूरी य़ोग्यता के साथ आए व्यक्ति के समतुल्य टिक सकेगा?
लेकिन फिर भी पदोन्नति या नौकरी
के लिए चुनावों में फिर उसे ही प्राथमिकताओं के साथ
चुन लिया जाता है.
अभी अभी दो एक दिनों में भागवत जी का वक्तव्य पढ़ने को मिला, कुछ साँत्वना हुई
. उनने
कम से कम पुनर्विचार की बात तो की. बहुत अर्से बाद किसी ने इतनी हिम्मत की.
उनके
वक्तव्य में निहितार्थ नेताओं को दूर रखने का संदेश भी समाया हुआ है. जहाँ तक
जातिगत
समस्याओं का दौर है वह तो स्वतंत्रता के तुरंत बाद भाषायी राज्यों के
निर्माण से ही शुरु हो
गया. आरक्षण भले ही उन्हीं लोगों को मिलता किंतु इसे जातिगत
न रखकर केवल आर्थिक
मुद्दे पर किया गया होता तो हालात बहुत ही सुधर गए होते और
संपन्न अपने आप इससे परे
हो गए होते. हमारे नेताओं ने ऐसी गलती कर उसे भुनाया और अब
भी भुना रहे हैं.
जरूरत है लोगों को सक्षम बनाने की और बैसाखियों से बाहर लाने की. हम तो उन्हें
बैसाखी
ही दिए जा रहे हैं नए नए तरह के ताकि उनको बैसाखियों से प्रेम हो जाए और चलने
में
सुविधा हो, यानी आप हमारे जेब से बाहर मत निकलो.
कुछ लोगों का मुद्दा है कि हार्दिक के अनशन के पीछे कौन है? मैं उनसे पूछना चाहता हूँ कि
कोई
भी हो इससे क्या फर्क पड़ता है? लोग यह क्यों नहीं सोचना चाहते कि हार्दिक की मांगें
कितनी
उचित या अनुचित हैं? यह उन्हीं लोगों का काम है जो हार्दिक को मोहरा बनाकर, यह
आंदोलन करवा रहे
हैं ताकि लोगों का मुख्य मुद्दे से ध्यान भंग हो जाए, ध्यान बँट जाए और
मुद्दा
अपने आप ही मर जाए। यह कला हमारे राजनीति में बहुत ही कामयाब रही है और हर
नेता ने
अपने दौर में कम से कम एक बार तो इसका प्रयोग किया ही है.
शाय़द हार्दिक को भी पता होगा कि पाटीदार समाज, कम से कम गुजरात में जातिगत
आरक्षण का हकदार नहीं है. हाँ कुछ आर्थिक तौर पर पिछड़े परिवारों को आरक्षण चाहिए.
यानी जातिगत नहीं, आर्थिक नीतिगत आरक्षण की मांग हो रही है. साथ पुछल्ला यह भी कि
हमें आरक्षण दो या देश को आरक्षण मुक्त करो. इसी में आर्थिक नीतिगत और जातिगत
आरक्षणों की विवेचना भी शामिल है.
एक सोच यह भी
है कि जातियों
के आधार पर समाज को विभाजित कर सबको आरक्षण का
बँटवारा कर दिया जाए कि इतने
प्रतिशत अनुसूचित जाति, इतने अनुसूचित जन
जाति, इतने
अन्य पिछड़ी
जातियाँ और इतने प्रतिशत कुलीन समाज के लोगों को मिलेगा. लेकिन क्या
इसके बाद भी
वर्गों के अंदर का बँटवारा फिर सर नहीं उठाएगा??? बाँटते – बाँटते
सरकार का
सर खराब होने की पूरी संभावना है.
मैं तो इतने ही विकल्प देखता हूँ.
अब आते हैं कि इससे किस किस का फायदा है. है? यदि है, तो
1.
काँग्रेस का – कि भाजपा के गढ़
गुजरात में सरकार के खिलाफ उन्हीं के नुमाईँदों से
टकराव करवा दी. क्या यह संभव लगता है? यदि हाँ तो काँग्रेस की इस
जीत पर मैं उन्हें
बधाई देना चाहूँगा अब भी उनमें इतना
दम-खम बचा है.
2.
केजरीवाल का – इनकी भी हालत काँग्रेस जैसी ही है
बल्कि इस विषय पर उससे भी
बदतर है क्योंकि
यह एक नई पार्टी है और इसकी पकड़ फिलहाल बहुत ही कम है. इन्हें
ज्यादा शाबासी देनी होगी.
3. संघ का – संघ बहुत समय से
प्रस्तुत आरक्षण के खिलाफ रहा है. लेकिन वह भाजपा
का विरोध क्यों करेगा? यदि ऐसा हो रहा है तो भाजपा से
संपर्क जरूर साधा गया होगा
और साथ ही मोदी की मान्यता
ली ही गई होगी.
इन सब में मुझे जो ज्यादा समझ आती है वह है तीसरी बात. यानी हो सकता है कि इस मुद्दे
में भाजपा व संघ
हार्दिक के साथ हों. हाँ यह मेरा
मन भी मानता है कि हार्दिक तो मात्र
मोहरा है. बन गया तो हीरो नहीं तो जीरो. वैसे भी वह भाजपा के एख नेता का ही
पुत्र है.
उसका राजनीतिक जीवन दाँव पर लग गया है. यही लोग
ध्यान भटकाने के लिए विरोधियों
के नाम फैला रहे हैं. यही तो राजनीति है. अन्यथा भागवत जी को इस पर, इस तरह, इसी
समय कहने की क्या जरूरत थी? क्या यह
केवल एक अनूठा समंजस्य था? क्या ऐसा हो
सकता है?
अब मेरी भी सुन लें – जातिगत आरक्षण में अब पिछड़ी हर तरह की
जातियों में अमीरों के
जमाव के कारण – व्यवस्था चरमरा गई है. जो लोग आरक्षण के जायज हकदार हैं उनके
बदले अमीर लोग और ऊँचे ओहदे पर बैठे लोग मलाई खा रहे हैं. पिछड़े लोग भी अपनों को
बढ़ावा दे रहे हैं और पिछड़ी जातियों के जरूरत मंगद व वाँछित लोग कुछ नहीं पा रहे हैं.
इसलिए जातिगत आरक्षण के बदले,
आर्थिक परिस्थितिगत (नीतिगत) आरक्षण लागू होना
अब उचित होगा.
दूसरा,
कि आरक्षण के लिए योग्यता को कम करना अनुचित है. जरूरतमंदों को जैसी चाहे
सहूलिय
दी जाए, किंतु परीक्षाओं में, पदोन्नतियों में योग्यता को दर किनार करके
देश के
भविष्य को उजाड़ा न जाए. बाकी जनता, नेता व सरकार की सोच व निर्णय पर निर्भर करता
है.
भाजपा यदि सही
में इससे जुड़ी है तो उसे बहुत ही सँभलकर चलना होगा . इसीलिए शायद
वह खुद सामने न
आकर हार्दिक को सामने ला रही है. यदि सँभल न पाए, तो इससे भाजपा
को भी बहुत बड़ा
नुकसान हो सकता है.
इसी मंच पर
किसी ने टिप्पणी भी की है कि “चौधराहट भी चाहिए और
पिछड़ी जातियों के
तहत आरक्षण भी”. बहुत ही सही फरमाया
है. यही हालत उन लोगों की भी है जो संपन्न तो
हो गए हैं किंतु जातिगत आरक्षण छोड़ना
नहीं चाहते हैं.
आज की हालातो में यदि कुलीन वर्ग व
पिछड़े वर्ग आरक्षण के तहत आपस में अदला –
बदली कर लें तो कुलीन वर्ग धन्य हो
जाएगा. उनके बच्चों का भाग्य फिर जाएगा. वैसे भी
कुलीन परिवारों के लोग अजा-अजजा व
अपिजा के परिवारों से संबंध जोड़ने लगे हैं ताकि उन्हें
भी आरक्षण मिल सके. जहाँ
बुजुर्ग ऐसा करने से रोक रहे हैं वहाँ तो युवा फर्जी प्रमाणपत्र भी
बनवाने पर आमादा हैं.ऐसे हालात भविष्य में बहुत ही
घातक सिद्ध हो सकते हैं.
सरकार व समाज के पास यह एक सुनहरा मौका है. समाज के प्रतिष्ठित लोग व सरकार
मिलकर आरक्षण की विभिन्न नीतियों पर पुनर्विचार कर सकते हैं.पुनर्विचार के
निर्णयानुसार
नीतचियों में आवश्यक
परकिवर्तन कर समाज में फैल रहे केंसर का हल ढूँढा जा सकता है.
जिसका मकसद केवल व
केवल यही होना चाहिए कि देश के पिछड़े लोगों को चाहे वह किसी
भी जाति या तबके का
हो, संसाधन न होने पर उन्हें उपलब्ध कराकर उन सबको देश –
समाज की मुख्य धारा में
जोड़ा जाए. मुख्यधारा में जुड़ने के लिए सभी आवश्यक सुविधाएं
मुहैया कराई चाएं.
हाँ देश – समाज की योग्यता के साथ समझौता कर उन्हें न बिगाड़ा जाए
जिससे देश की
साख में किसी तरह की आँच न आने पाए.
एम. आर. अयंगर.
8462021340
विद्युत अभियंता, आईओसीएल में
कार्यरत, प्रस्तुतः कोरबा (छग) में निवास, हिंदी में लेखन, पत्र पत्रिकाओं व
अखबारों में प्रकाशित, ब्लॉग laxmirangam.blogspot.in लेखन.
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