मेरा आठवाँ प्रकाशन / MY Seventh PUBLICATIONS

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रविवार, 15 जून 2025

दहेज – एक समाजिक समस्या

 

दहेज एक समाजिक समस्या


        दहेज  प्रथा भारत में बहुत पुरानी है। बदलते जमाने के साथ यह प्रथा एक कुप्रथा में परिवर्तित हो गई है। जनता इससे परेशान है। अमीर और रईसजादों ने इस परंपरा को हवा दी है और आज के मुकाम तक पहुँचाया है। अमीरों के लिए तो यह कोई समस्या नहीं है क्योंकि उनके पास देने के लिए सफेद और काला दोनों तरह का भरपूर माल उपलब्ध है और गरीबों के लिए यह समस्या ही नहीं है क्योंकि उनके पास देने के लिए कुछ है भी नहीं।

             समस्या है तो सिर्फ और सिर्फ मध्यम वर्गीय परिवारों के लिए। जिनके पास नहीं है कहना भी अनुचित है, पर भरमार भी नहीं है कि वर पक्ष की चाहतों को पूरा कर सकें। न ही वह गरीब है, न ही अपार संपत्ति युक्त अमीर। पर समाज की आज की संरचना के तहत वे भी अपने आप को संपन्न प्रदर्शित करना चाहते हैं और उसके लिए दहेज की मात्रा भी एक नियामक बन गई है। हमने अपने बेटी की शादी धूमधाम से की और इतना दहेज भी दिया, गाड़ी भी दिया, मकान-प्लॉट भी दिया – ऐसा कहने की मंशा तो रखते हैं। किंतु हैसियत तो इतनी है ही नहीं। समाज में प्रतिष्ठा पाने के लिए ये मध्यम वर्गीय परिवार दिखावा करने की होड़ में रहते हैं। फलस्वरूप कोशिश यह रहती है कि बेटी की शादी में जितना हो सके दिया जाए ताकि बेटी ससुराल में खुश रह सके। इसलिए दोनों पक्षों के बीच एक प्रकार का सौदा होता है, (जिसे समझौता नहीं कहा जा सकता) जहाँ हर-हमेशा वर पक्ष ही हावी होता है। बेचारा वधू पक्ष अपनी नाक निचोड़ कर बैंकों, परिवार या दोस्तों से कर्जे लेकर, जमीन जायदाद देकर या बेचकर अपनी बेटी की इच्छाओं पर खुद को समर्पित कर देता है। वधू पक्ष वरपक्ष की मांगों पर खरा उतरना चाहता है और वर पक्ष है कि अवसर को भुनाने में लगा हुआ है, कोई परहेज नहीं करता। मकान, जमीन, वाहन (मोटर सायकिल या कार ब्रांड सहित) और साथ में रकम भी – की भरपूर मांग करते हैं। बेचारा वधू पक्ष बेटी का मजबूर पिता - भाई अपने सभी तरह के बचत व जायदाद से वंचित होकर वर पक्ष को खुश करने में लग जाते हैं।

           बरसों पुराना समाज सुधारकों का दहेज प्रथा के विरुद्ध दहेज उन्मूलन अभियान केवल कानून बनकर कागजों-फाइलों में दब गया। यथार्थ में उन कानूनों की आज कोई हैसियत नहीं है। कानून फाइलों में दबा है और दहेज प्रथा अपने जोरों पर है, कुलाँचे मार रही है। 

            अभिभावकों ने लड़की को पढ़ाकर इस काबिल बनाया कि वह कल की जरूरत पर आत्मनिर्भर हो सके। किंतु  नतीजतन ज्यादा पढ़े लिखे वर चाहिए और इसके लिए ज्यादा दहेज भी चाहिए। इस बढ़े हुए दहेज के कारण वे अब विदेशी वर की तलाश करते हैं। इससे दहेज प्रथा का उन्मूलन तो क्या हुआ बल्कि उसको बढ़ावा मिल गया । कभी नारे लगे थे कि दुल्हन ही दहेज है। पर अब वह सब धरा का धरा रह गया। इस सब के बावजूद भी घर या ससुराल में कोई पढ़ी लिखी लड़की बिना आय के रहना नहीं चाहती क्योंकि उनको अपनी पढ़ाई का उद्देश्य आर्थिक स्वतंत्रता ही नजर आती है। कमाने में कोई बुराई नहीं है बशर्ते घर के काम में उसका साथ देने के लिए कोई तैयार हो या वह उससे मुक्त होकर कोई सहायक रख सके। पर समाज में ऐसा नहीं होता। स्त्री का काम तो उसका है ही, साथ में पढ़ाई की वजह से वह कमाएगी भी। उस पर दोहरा भार पड़ जाता है । स्त्री भी नौकरी छोड़ेगी नहीं और घर सँभालने और नौकरी के बोझ तले दबकर रोना रोती रहेगी।

           हाल ही में समाज में कुछ बदलाव आया है। कुछ पुरुष स्त्री के साथ रसोई में हाथ बँटा रहे हैं। कभी-कभी खाना बाहर से मँगा भी रहे हैं जो उनकी सेहत पर बुरा असर करता है। किंतु यह बात  सुविधा के परदे में उनको नजर नहीं आती।

            कुछ ऐसे वर पक्ष सामने आ रहे हैं जिनको दहेज नाम की व्यवस्था से परहेज है। वे शगुन के तौर पर एक रुपया ही लेकर विवाह कर लेते हैं। पर उनमें से कुछ वही खर्च तिलक व स्वागत में करा देते हैं । जैसे ही वधू बिना दहेज वाले वर को देखती है तो पिता से अपने शौक "डेस्टिनेशन विवाह" की मांग करने लगती है। डेस्टिनेशन वेडिंग एक नई परंपरा है, जो दिखावे का नया रूप है। अंततः पिता का खर्च तो हो ही गया, कचूमर निकल ही गया। तब बिना दहेज के विवाह में पिता को क्या सहूलियत हुई? कुछ तो बिना दहेज की शादी के बाद अपनी मांगों की गठरी खोलते हैं। पता नहीं फिर उनके लिए बिना दहेज की शादी का अर्थ क्या होता है? वस्तुतः यह तो दहेज का प्रतिरूप ही हुआ ना!

            अब तक हमने जिक्र किया वर पक्ष को कारनामों की, अब आइए वधू पक्ष की तरफ। वे बिना दहेज की शादी से तो अति प्रसन्न रहते हैं। किंतु लड़की शादी के बाद अपने रंग दिखाती है। बार-बार समस्या खड़ी करती है और पति पर अपनी माँगों का जोर आजमाती है। सास-ससुर, देवर-ननद इत्यादि के साथ नहीं रहना है, घर अलग करो। बुजुर्गों को वृद्धाश्रम भेजो – इत्यादि। पर नारी पर कभी यह दोष नहीं मढ़ा गया कि वह बुजुर्गों को वृद्धाश्रम भेजने का कारण बनी है। इकलौते वारिस की जायदाद चाहिए किंतु उनके बूढ़े मां-बाप की सेवा नहीं करनी है। वाह रे नारी समाज। चित भी अपना, पट भी अपना और अंटा.... । इधर बेटे अपनी जवानी को भुनाने के लिए बीबी का गुलाम बनकर सारी मुसीबत या कहें बदनामी अपने सर ले लेता है। पत्नी चाहती है कि पति की कमाई के पैसे-पैसे पर उसका एकाधिकार हो और पूरी रकम भुनाने का हक केवल उसके ही पास हो।

            इनमें से एक भी मांग की सही आपूर्ति न होने पर गृह-क्लेश बढ़ जाता है और यही सब अंततः विवाह विच्छेद की तरफ बढ़ता जाता है। सारा इल्जाम वर व वर पक्ष पर थोपा जाता है। सरकार ने उनकी सुविधा के लिए "498कानून" जैसे कानून भी तो नारी के बचाव में बनाए हैं। ऐसा कोई कानून पुरुष वर्ग के लिए नहीं है। शायद उस वक्त सरकार को वोट पाने का यही एक रास्ता सर्वोत्तम सूझा था।

            ऐसा नहीं है कि वर पक्ष अपनी तरफ से कोई समस्या खड़ी नहीं करता पर ज्यादातर समस्या इन दिनों इसी तरह की आ रही हैं जिनका इस लेख में उल्लेख है।

            विवाह विच्छेद के साथ ही दहेज (यदि दिया हो तो) की वापसी और वर के जायदाद (चल-अचल संपत्ति) के बँटवारे की बात आ जाती है। वधू पक्ष जायदाद के आधे-आधे बँटवारे से बाज नहीं आता और साथ में रखरखाव (Alimony) पर भी जोर देता है। यहाँ वधू पक्ष को इस तथ्य से कोई फर्क नहीं पड़ता कि वर पक्ष ने बिना दहेज की शादी की थी। खर्च तो बेटी ने ही अपनी इच्छा पूर्ति के लिए करवाया था। वधू की जायदाद के बँटवारे की बात किसी को भी मंजूर नहीं होती, शायद कानून भी इसके पक्ष में नहीं होता । पर क्यों ? इसमें तर्क क्या है?  मेरा तो मेरा है और तुम्हारा हमारा? यह कौन सा न्याय हुआ ? जैसे स्त्री रखरखाव मांगती है वैसे पुरुष को रखरखाव क्यों नहीं दिया जा सकता? अब तो स्त्री पुरुष दोनों ही कमाते हैं । इसलिए या तो दोनों ही रखरखाव के हकदार हों या दोनों नहीं। केवल नारी को रखरखाव क्यों दिया जाए? जब आज का समाज स्त्री और पुरुष दोनों को समान मानता है।

            ऐसी हालातों में यह कहना अनुचित नहीं, उचित ही होगा कि दहेज उन्मूलन कानून फाइलों में दबे-दबे सड़ सा गया है। अब इस कानून का न होना ही माना जाना चाहिए।

            समाज के वर पक्ष को बचाने के लिए अब समाज सुधारकों को फिर से जागना होगा। शादी के पहले दोनों पक्षों को एक करारनामा करना अनिवार्य कर देना चाहिए कि शादी में किसी भी पक्ष से, किसी भी पक्ष द्वारा, किसी भी प्रकार की मांग नहीं होगी। वैसे ही किसी भी कारणों से विवाहोपरांत यदि विवाह विच्छेद की स्थिति आए तो वधू पक्ष द्वारा किसी तरह की मांग (चाहे वह रखरखाव की हो या चल - अचल संपत्ति के बँटवारे की हो या किसी अन्य तरह की हो) नहीं होगी। इससे विवाह विच्छेद की घटनाएँ भी कम हो जाएँगी। इसके बाद शादी समारोह से पहले इस करारनामे के साथ शादी की पंजीयन को भी अनिवार्य करना होगा। यह सुनिश्चित करना होगा कि विवाह पत्रिका में शादी के पंजीयन का जिक्र पंजीयन संख्या के साथ हो। करारनामे व पंजीयन की प्रतियाँ दोनों पक्षों के पास सुरक्षित हों।

            हाँ , इस विधि में अगर अभिभावक अपने पक्ष को कुछ स्वेच्छा से देना चाहें तो इस पर कोई रोक टोक नहीं होना चाहिए जो किसी भी तरह से दहेज के अंतर्गत नहीं आना चाहिए।

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बुधवार, 2 अप्रैल 2025

शोभित

शोभित


मैडम,

गुड मॉर्निंग,

 

मैडम ने पीछे मुड़कर देखा तो एक 65-70 साल का बूढ़ा हाथ जोड़े खड़ा था।

 मैंने पहचाना नहीं।

मैडम के चेहरे पर शिकन देखकर उसने कहा - मैडम, मैं शोभित। आप हमें स्कूल में अंग्रेजी पढ़ाती थीं।

संबलपुर के ओड़िया स्कूल में। शायद 1965-66 की बात होगी।

मैडम को फिर भी कुछ याद नहीं आया । शोभित फिर कहने लगा - मैडम संबलपुर, ओड़िया स्कूल में गीता, शारदा, रामू, नारायण - हम सब पाँचवीं में थे। आपकी शादी होने वाली थी इसलिए आपने पढ़ाना छोड़ दिया था। रेलवे लाइन के उस पार आपके मकान में फोटो भी खींचा था, सब का। अभी भी है मेरे पास।

 मैडम सहमते हुए बोली बेटा याद नहीं आ रहा है। तुम पाँचवीं की बात कर रहे हो और तुम खुद भी बूढ़े हो गए हो। कितनी पुरानी बात है। फोटो है तो भेजना, शायद कुछ याद आ जाए।

 फिर मोबाइल नंबरों का आदान-प्रदान कर वे अपनी अपनी राह चल पड़े।

 घर आकर शोभित पुराने एल्बम खोजने में लग गया। बीबी-बच्चे समझ ही नहीं पा रहे थे कि शोभित को हो क्या गया है ? काफी मशक्कत के बाद शोभित के हाथ वह एल्बम लग ही गया जिसमें मैडम और उनके घर मे सारे बच्चों की तस्वीर थी। उसने तुरंत अपने मोबाइल से दोनों तस्वीरें खींच कर मेडम को वाट्स एप पर भेज दिया । साथ में नीचे एक संदेश में बच्चों के नाम चित्र के क्रमानुसार लिख दिए।

 देर रात फुर्सत पाकर मैडम ने जब तस्वीर देखी तो उन्हें याद आ गया अपना पुराना मकान और उस तस्वीर की कहानी। रात ही उन्होंने शोभित को एक वाइस मेसेज से इसकी सूचना दी और कहा कल सुबह बात करते हैं।

 दोनों को उस सुबह का इंतजार था।

 सुबह  नाश्ते से बाद मैडम ने शोभित को फोन किया। फोटो पर अपनी राय देते हुए यादगार पलों को साझा किया। शोभित को पता चल गया कि मैडम अब उसे पहचान रहीं हैं और उन बीते दिनों को याद कर पा रही हैं।

 फिर दोनों में मिलने की ललक जागी। एक दिन समय लेकर शोभित मैडम के घर पहुँच गया। बहुत सारी बातें हुई, बीते दिनों की, पुराने टीचर्स और साथ पढ़े बच्चों को याद किया। कुछ के फोन नंबर भी लिए दिए गए। कुछ को काल करके दोनों ने बात भी किया। शोभित को अपना बचपन याद आ गया।

 अपने बचपन की शिक्षिका से मिलन पर शोभित बहुत खुश था। उसके दिमाग में यही चल रही थी कि इस बंधन को पुनः मजबूत कैसे किया जाए। तरह-तरह के विचारों के बीच कुछ दिन बाद उसे सूझा कि क्यों ना एक पुस्तक मैडम को अंकित किया जाए। यह बाजार से खरीदकर भेंट देने की बात नहीं थी।

 वक्त के साध चलते-चलते शोभित पहले पढ़ाई, फिर नौकरी पूरी करने के बाद, अपनी रचनाओं को पुस्तक रूप में प्रकाशित करने लगा था। कविता तो वह 13 वर्ष की उम्र से ही करता था, पर उससे पहले ही मैडम से बिछुड़ चुका था इसलिए मेडम को इसकी जानकारी नहीं थी।

 अब तक शोभित की कुल छः पुस्तकें छप चुकी थीं और सातवीं छपने के लिए तैयार थी। उसमें हिंदी भाषा सीखने-सिखाने के कुछ लेख थे। शोभित को लगा कि क्यों न यही पुस्तक मैं मैडम को समर्पित कर दूँ। किंतु समर्पित करना हो तो इस आशय का जिक्र तो पुस्तक की भूमिका में आनी चाहिए और इसके लिए मैडम की स्वीकृति भी चाहिए।

 कुछ दिनों बाद मैडम से फोन पर बात करते-करते उसने मैडम से पुस्तक समर्पित करने की मंशा जाहिर किया। मैडम ने बिना किसी प्रतिवाद के स्वीकृति दिया। फिर शोभित ने पुस्तक की भूमिका लिखते समय इसका उल्लेख भी किया।

 कुछ समय में पुस्तक प्रकाशित हो गई थी। अब मैडम से बात करके उन्हें समर्पित करने जाना था।

 जब शोभित ने इस बारे में मैडम से बात किया कि किस दिन किस समय उनके घर पुस्तक समर्पित करने आया जा सकता है ?

 जवाब मिला कभी भी आ सकते हो, पर पहले फोन कर लेना क्योंकि आए दिन मेरे क्लासेस और लेक्चर होते हैं। ऐसा न हो कि तुम आओ और मैं न मिलूँ। शोभित ने हामी भरी और फोन रख दिया।

 जब पुस्तक की कापियाँ शोभित को मिली, तब उसे यह भी जानकारी मिली कि गुरुपूर्णिमा नजदीक ही है। उसने गुरुपूर्णिमा के दिन मैडम के घर जाकर पुस्तक समर्पित करने का सोचा और इसीलिए मैडम के फुरसत के वक्त उन्हें फोन किया। मैडम से बात हुई। उन्होंने शोभित को सुझाया कि गुरुपूर्णिमा के दिन तुम्हारे घर के पास ही एक समारोह है गुरु पूर्णिमा के ही उपलक्ष्य में। वे चाह रही थीं कि यदि ऐतराज न हो तो शेभित उसी समारोह में आ जाए और समर्पण का काम भी वहीं कर लिया जाए । यदि नापसंद हो तो शाम को समय वह घर पर भी आ सकता है।

शोभित को यह बात अच्छी लगी। उसने सोचा समारोह में और भी लोग होंगे। उसे लगा कि आगंतुक ‍श्रोताओं को भी पुस्तक की जानकारी मिल जाएगी और पुस्तक ज्यादा लोगों तक पहुँचेगी। यह सोचकर उसने मैडम के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। मैडम ने कहा - "तो ठीक है, मैं एक दो दिन पहले तुम्हें सही जगह और समय बता दूंगी।"

दो दिन पहले मैडम ने जगह और समय की सूचना दी और कहा कि इस सम्मेलन के बाद वहीं तुम अपना समर्पण का कार्यक्रम कर लेना। इस पर सहमति हो गई। मैडम ने प्रबंधक- संचालकों से भी बात कर लिया। सही दिन शेभित बताए जगह पहुँच गया। उसने पुस्तक की 5-6 प्रतियाँ साथ ले लिया था।

कार्यक्रम शुरु हुआ तो विद्वज्जन गुरुओं के बारे में बताने लगे। कुछ ने श्रेष्ठ गुरुओं के कुछ प्रसंग भी बताया । किसी ने गुरु महिमा के गीत गाए तो किसी ने वेद अंश का पाठ किया।

इसी बीच संचालक महोदय ने शोभित का परिचय देते हुए उसे स्टेज पर आमंत्रित किया कि वह इस अवसर पर गुरु के बारे में कुछ कहे।

शोभित को पता ही नहीं था कि उसे ऐसा कोई भाषण देना है। उसे बताया भी नहीं गया था। वह इसके लिए तैयार  भी नहीं था। पर अब तो नाम भी पुकारा जा चुका था। वह मना करके माहौल बिगाड़ना भी नहीं चाहता था। उसे अभी मैडम को अपनी पुस्तक भी समर्पित करना था। किंकर्तव्यविमूढ़, मरता क्या न करता, वह स्टेज पर जा पहुँचा और गुरुओं के बारे में कुछ-कुछ बोलता गया। विशेष बात यह थी कि उसने बताया कि गुरु शब्द में गु – अंधकार के लिए है और रु प्रकाश के लिए। इसलिए गुरु का अर्थ हुआ – अज्ञानता के अंधकार से ज्ञान के प्रकाश तक ले जाने वाला। साथ उसने यह भी कहा कि गुरु का अर्थ है बड़ा - किसी भी क्षेत्र में। जरूरी नहीं कि उम्र में ही बड़ा हो। एक विधा में बड़ा होने पर भी वह दूसरी विधा में छोटा हो सकता है। वैसे हर व्यक्ति, हर दूसरे से कुछ न कुछ सीख सकता है और अकसर सीखता भी है। इसलिए इस जगत में सब गुरु भी हैं और शिष्य भी। ऐसा भी होता है कि कोई किसी के लिए गुरु हो पर दूसरे का शिष्य। लेकिन प्रचलन है कि विशेष तरह से  किसी से नियमित शिक्षा पाने पर ही हम उन्हें गुरु कहते हैं। सारा माहौल तालियों की गड़गड़हट से गूंज उठा।

 जैसे ही शोभित अपनी बात पूरी करके स्टेज से हटा, आयोजकों ने सुझाया - "आप अपनी पुस्तक का विमोचन समर्पण का कार्यक्रम अभी कर लें"। समर्पण तो ठीक पर विमोचन का कोई प्रस्ताव तो था ही नहीं।

 शोभित ने सबसे पहले अपना संक्षिप्त परिचय दिया और बताया कि कब और कैसे मैडम से संपर्क हुआ, कब उनसे पढ़ा। फिर कब कैसे मिले। फिर अपनी रचनावली का संक्षिप्त परिचय कराते हुए मैडम के हाथ में एक पुस्तक दिया और झुक कर चरणस्पर्श किया।

 मैडम को पुस्तक देकर प्रणाम करने के बाद शोभित ने मंच पर विराजमान मैडम के अन्य वरिष्ठ गुरुओं को भी प्रणाम करते हुए पुस्तक कि एक - एक  प्रति समर्पित किया।

 इसके पूरे होते ही वरिष्ठतम गुरुजी खड़े होकर, शोभित द्वारा  गुरु - शिष्य परंपरा के मनस्फूर्त  निर्वाह पर अभिभूत होते हुए बोले - आज के इस नए जमाने में करीब 55 (से ऊपर के) वर्षों के अंतराल के बाद अपने गुरु को खोज निकालना और 5-6 पुस्तक की रचना करने के बाद भी बेझिझक सरेआम ऐसी सभा में निस्संकोच पादाभिवंदन एक आदरणीय गुण है। यह कहते हुए वे शोभित की तरफ झुके। शोभित असमंजस मैं पड़ गया कि यह क्या हो रहा है?

 शोभित ने देखा कि गुरुजी उसे प्रणाम करने दी दिशा में बढ़ रहे हैं। उसने गुरुजी को बोलकर - पकड़कर रोका किंतु वे तैयार ही नहीं थे। अंततः जब किसी तरह उन्हें रोककर पूछा गया कि वह यह क्या कर रहे हैं? तब उन्होंने सुसंयत मन से उत्तर दिया कि मैं शारीरिक शोभित को नहीं उनकी गुरुभक्ति, गुरु-श्रद्धा व गुरु के प्रति समर्पण भाव को प्रणाम करता हूँ।

 मंच पर आसीन सभी ने, सभी आगंतुकों और गुरु पूर्णिमा का उत्सव मनाने आए सभी गुरुभक्तों ने अनुमोदन स्वरूप करतल ध्वनि से गुरुवर का  स्वागत किया।

 तत्पश्चात गुरुवर ने शोभित को फिर से मंच पर बुलाया , बिठाया और सारे मंचासीनों को अपने पास की शोभित की पुस्तक को प्रदर्शित करने को कहकर एक परिचित को तस्वीर खींचने को कहा।

 फिर गुरुवर ने शोभित व पुस्तक के बारे में कुछ प्रशंसनीय शब्द कहे और पुस्तक विमोचन संपन्न किया। आगंतुक शोभित की तरफ बढ़ने लगे। कुछ लोगों ने पुस्तक खरीदना चाहा। शोभित के पास जितने बचे थे, वह उसने दे दिए और अन्यों से निवेदन किया कि वे या तो उसके घर से ले लें या पता भेजें तो पुस्तक डाक से भेज दी जाएगी।

 अंत में सभी ने आयोजित भोजन का आनंद लिया। सभी सभासद शोभित की भूरी प्रशंसा करते हुए अपने अपने गंतव्य को चल पडे।

 उसदिन शोभित और मैडम अति प्रसन्न थे। शोभित इसलिए कि वह अपनी पुस्तक मैडम को समर्पित कर सका, वह भी इस सभा में और मैडम इसलिए भी खुश थीं कि शोभित के आने से सभा में रौनक हो गई थी। उससे पुराने शिष्य से संबंध भी पुनः मजबूत हो रहे थे।

 

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