हिंदी
साहित्य
पाश्चात्य सभ्यता
के अनुसरण की होड़ में जो सबसे महत्वपूर्ण बातें सीखी गई या सीखी जा रही है उनमें
जो सर्वप्रथम स्थान पर आता है वह है बंधन मुक्त होना। जीवन के हर विधा में बंधनों
को तोड़कर बाहर मुक्त गगन में आने की प्रथा चल पड़ी है। यहाँ यह विचार विमर्श का
विषय नहीं है कि यह उचित है या अनुचित। बस एक अवलोकन है , वक्तव्य
है।
इसी प्रथा के
चलते हिंदी कविता के क्षेत्र में भी बदलाव आए हैं। पहले जो
कविता मात्राओं और गणों के बंधन में होती थी अब मुक्त हो गई है। दोहा, चौपाई, कुंडलियाँ अब देखने में कम आती हैं। गद्य
कविता की भरमार है। भाषा के आभूषण कहे जाने वाले अलंकार अब कहाँ मिलते हैं।
अनुप्रास तो फिर भी यदा – कदा कहीं - कहीं समा जाता है,
पर यमक और श्लेष तो जैसे मिट से गए हैं।
रचना
की एक नई विधा “हाईकू” आजकल चलन में हैं। सरोजनी प्रीतम की
क्षणिकाएं कहीं उत्कृष्ट लगती हैं। इन दिनों कुछ ही ब्लॉग पर पुराने छंद देखने को
मिलते हैं
कुछ पुराने
रचनाकार भी अब बंधनमुक्त गद्य कविता में समाने लगे हैं। बहुत से नए रचनाकारों को
शायद गणों और मात्राओं का ज्ञान भी नहीं है और जिन्हें है, वे
भी अब इसकी उपयोगिता को कमतर ही आँकते हैं। जान-बूझ-चाह कर मात्राओं के बंधन में
कविताई बहुत कम हो गई है। नगण्य कहा जा सकता है।
नए रचनाकारों का
शब्द सामर्थ्य बहुत अच्छा है। पिछले एकाध दशक में प्रसाद व महादेवी को पढकर निकले
उच्च शिक्षार्थियों की शब्द संपदा सराहनीय होती है। उनकी रचनाओं में साहित्यिक
शब्दावली बहुत मिलती है,
जिसके चलते उसमें कुछ क्लिष्टता आ जाती है। एक तो बंधन मुक्त कविता
उस पर शाब्दिक क्लिष्टता, भाषा के प्रवाह में अवरोध उत्पन्न
करती है।
शब्द सामर्थ्य के
साथ शब्द चयन भी बेहतर हुआ है। पर चयन में भाषा की सरलता, सरसता,
प्रवाह और लय पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। इसलिए आज कविता में लय
और प्रवाह नदारद है। सही शब्दचयन से कविता में लय, सरसता और प्रवाह
बखूबी लाया जा सकता है।
हालाँकि नए
रचनाकारों ने बहुत ही साधना की है, पढ़ा है, साहित्य का ज्ञानार्जन किया है, पर बंधन मुक्ति के
दौर में शायद सरलता, लय और प्रवाह उनसे छूट गए हैं।
जो मंचीय रचनाकार
है या जो रचनाकार गीत रचते हैं, उन्हें बखूबी समझ आता होगा कि कविता
के लिए गेयता कितना मुख्य है। इसी कमी के कारण गीतों में भी अलग - अलग छंद,
अलग - अलग राग अलापते हैं, जो श्रवण सुख से
परे होता है। मेरी हार्दिक इच्छा है कि ये नए रचनाकार एक बार फिर मैथिलीशरण गुप्त,
रामधारी सिंह दिनकर, जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, कबीर जैसों को पढ़ें। हल्की - फुल्की मेहनत से सशक्त शब्द चयन द्वारा रचनाकार सरलता और गेयता को
बढ़ाकर उसकी बेहतरी की तरफ ध्यान दें।
भाषा की
क्लिष्टता कहें या शब्द चयन इस पर बखूबी निर्भर करता है कि रचना किस पाठक वर्ग को
अग्रेषित है। बाल कविता, बाल सुलभ भाषा में होनी चाहिए और साहित्य के
विद्यार्थियों के लिए हो तो भाषा क्लिष्टतम हो सकती है। उसी अनुसार शब्द सामर्थ्य
का प्रयोग कर शब्द चयन करना चाहिए। सही शब्द चयन न होने पर सामान्यतः रिक्शा
चालकों या मजदूरों से अंग्रेजी में बात करने की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। अभीष्ट
पाठक वर्ग इसे समझ नहीं पाएगा।
ऐसा नहीं है कि
क्लिष्ट शब्दावली से प्रवाह उत्पन्न नहीं होता - देखिए–प्रसाद
जी की कविता-
हिमाद्रि तुंग
श्रृंग से
प्रबुद्ध शुद्ध
भारती,
स्वयंप्रभा
समुज्ज्वला
स्वतंत्रता
पुकारती,
ऐसे अनन्य उदाहरण
हैं। पर हाँ, यह इतना आसान भी नहीं है। भाषा की सरलता से प्रवाह लाना कहीं आसान है।
मेरी, नव रचनाकारों से विनती रहेगी कि वे अपने शब्द सामर्थ्य और चयन कौशल का विशेष
प्रयोग कर सरलता,
सरसता, लय और प्रवाह को बनाए रखने पर विशेषध्यान
दें।
ऐसा भी नहीं है कि कविता में लय , सरलता या प्रवाह होना जरूरी है।
नए रचनाकार यह न समझें कि उनकी
रचनाओं की अवहेलना हो रही है या नीचा दिखाया जा रहा है। हाँ सरल लयबद्ध रचना जुबाँ
पर जल्दी चढ़ती है, मन में जगह जल्दी बना लेती है।
बाकी हर रचनाकार
तो स्वतंत्र है ही।
…
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 2-4-22 को चर्चा मंच पर चर्चा - 4388 में दिया जाएगा | चर्चा मंच पर आपकी उस्थिति चर्चाकारों की हौसला अफजाई करेगी
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
दिलबाग
दिलबाग विर्क जी,
हटाएंलेख को चर्चा मंच हेतु चयन के लिए धन्यवाद।
अयंगर।
आदरनीय अयंगर जी,आपका सुन्दर लेख पढ़ा।आपकी कविता को लेकर चिन्ता जायज है।कविता की परिभाषा कभी भाव,रस,अलंकार और छंदबद्ध रचना के रूप में ही होती थी।पर धीरे-धीरे गद्य काव्य को भी पढ़ा और सराहा गया।शायद इस बात की जरुरत अनुभव हुई होगी कि हर बात लयबद्ध नहीं हो सकती।पर लय में बंधी रचना का सौंदर्य कहीं अधिक होता है,ये निर्विवाद रूप से सत्य है।काव्य के पुरोधाओं की रचनाएँ जीवन के अनुभव और संघर्ष की रचनाएँ तो हैं ही पर इसके पीछे उनका गहन मनन और बुद्धि कौशल का सतत अभ्यास भी है,जिसके चलते उनका भाषा ज्ञान और विराट शब्द-सम्पदा अचंभित करते हैं।आज कल सोशल मीडिया के मंच पर हर लघु ज्ञानी कवि और कवयित्री है जिनमें मैं खुद को भी रखती हूँ। मुझे औरों का पता नहीं पर मैं खुद यही मानकर चलती हूँ कि जो सहज अभिव्यक्ति के रूप में भीतर से उमडे ,वही कविता है।अलंकार और छंदों का कौशल चाहकर भी नहीं सीख पाई।हाँ, रचना को लयबद्ध करने का प्रयास जरुर रह्ता है ।ये भी ईमानदारी से स्वीकार करती हूँ कि काव्य मेरा जन्मजात गुण और संस्कार नहीं,अर्जित ज्ञान आधारित है।पाठक के रूप में विभिन्न रचनाकारों को पढ़कर उन्हें परम्परागत मानकों पर परखने का गुण भी मुझमें नहीं पर कई गुणी रचनाकारों की छ्न्द मुक्त रचनायें भी मुझे अचम्भे में डाल देती हैं।और यूँ तो मैं यही मानती हूँ सहज अभिव्यक्ति के रूप में हर रचनाकार को सराहना मिलनी चाहिए,पर इसके साथ ये चिन्ता भी सताती है कि आज का साहित्य जब आने वाले कल में पढा जायेगा तो भावी पीढ़ी उसे मानक रूप में मान कर अनुशरण करेगी अत इसका शुद्ध और सरस होना अत्यंत आवश्यक है।
जवाब देंहटाएंकवि मन बहुत अधिक संवेदनशील होता है। वह सहृदय होता है इसलिए उसकी अनुभूति सर्वसाधारण से भिन्न होती है। उसके हृदय की निर्मलता, कोमलता और पवित्रता ही कविता को मर्म स्पर्शी बनाती है।उसकी ये अभिव्यक्ति यदि काव्य के समस्त तत्वों से युक्त हो तो सोने पे सुहागा हो जाये।आपका मार्गदर्शन कई बार मुझे भी मिला है पर समयाभाव और घरेलू दायित्वों के कारण आपसे ज्यादा सीख नहीं पाईजिसका खेद भी है मुझे।हाँ एक बात और लिखना चाहूंगी कि भाषा ज्ञान के स्तर के चलते भाषा की दुरूहता और कलिष्ट शब्दों पर सबका अनुभव भिन्न हो सकता है।जैसे ब्लॉग पर जुड़ने के समय कई रचनाकारों का लेखन मेरे लिये समझ से बाहर था,जबकि आज मेरे लिये बहुत आसान हो गया है उन्हें पढ़ना ।यानि निरंतर पठन-पाठन के अभ्यास से भाषा पर अधिकार बढ़ता चला जाता है।यही एक रास्ता है भाषा के विस्मृत हो रहे कथित कलिष्ट शब्दों को दुबारा प्रचलित करने का।आपका बहुत-बहुत धन्यवाद और आभार इस सार्थक लेख के लिए,जिसके जरिये मैं भी अपनी बात रख सकी।🙏🙏
रेणु जी,
जवाब देंहटाएंनमस्कार
आपकी विस्तारमय टिप्पणी पढ़कर मजा ही आ गया। आपने लेख के मर्म की पूरी विवचना ही कर दिया।
लेख में मैंनें कहीं भी क्लिष्ट भाषा की अवहेलना नहीं किया है। सार में यही कहा है कि भाषा पाठक वर्ग के अनुरूप होना चाहिए। यथासंभव गेयता हो तो और अच्छा, जबान पर जल्दी चढ़ेगी। अलंकार को तो भाषा का आभूषण कहा ही गया है।
क्लिष्ट शब्दों में बाल साहित्य की सोचिए... बच्चों को मजा भी नहीं आएगा।
आपके विचारपूर्ण विस्तृत टिप्पणी ने लेख को ही विस्तार दे दिया है।
सादर आभार आपका।
आदरनीय अयंगर जी सादर नमस्कार ।
जवाब देंहटाएंआपका लेख विस्तृत विवेचन के साथ हर रचनकार के लिए बहुत ही उपयोगी है।
आपने सच कहा छंद मुक्त लेखन से परम्परागत लेखन लुप्त सा हो गया है,पर साथ ही खुशी भी है कि पिछले तीन चार सालों में बहुत से मंच और प्रबुद्ध साहित्यकार छंदों पर अथक कार्य कर रहे हैं और उनके बहुत से अनुयाई छंद लेखन में प्रयासरत है और काफी अच्छे परिणाम भी देखने को मिल रहे हैं ।मैं भी 2018तक बिल्कुल छंद मुक्त लिखती रही पर संयोग वश अच्छे दिग्दर्शन के साथ अच्छे गुरु का साथ मिला और आज काफी छंद लिख लेती हूँ बिना किसी परेशानी के, और साथ के काफी रचनाकार बहुत ही पाऱंगत है छंद लेखन में।
भाषा में शब्दों की क्लिष्टता पर भी आपका कहना बिल्कुल सही है,और उसका कारण छायावाद का असर भी बिल्कुल सही है मैं स्वयं भी कई बार क्लीष्ट शब्दों के कटघरे में खड़ी कर दी जाती हूं ,पर न जाने क्यों शब्दों से खेलना शब्दों से जादूगरी मुझे आत्मिक संतोष देती है मानती हूँ सामान्य पाठक वर्ग उससे कतराता है पर प्रबुद्ध पाठक मिल ही जाते हैं। जैसे आदरणीय विश्वमोहन जी के सृजन को पढ़ कर सदा लगता हैं कि आज फिर कुछ नये शब्द पढ़ने को मिलेंगे और मिलते हैं, और हम पढ़ते हैं उन्हें। तो साहित्यकार अपनी संतुष्टि के साथ लिखने में ही सहज रह पाता है।
पर बाल कविता में भाषा की क्लिष्टता आपने सही कहा प्रशंसनीय नहीं मानी जा सकती कभी कभी स्वयं की लिखी कविता को बच्चों की समझ अनुरूप बनाना पड़ता है वापस सुधार कर और कभी वो वैसे ही रह जाती है तो लगता है ये बच्चों की समझ के अनुरूप नहीं है और प्रयास रहता है कि ऐसी स्थिति से बचें।
आपका लेख बहुत बहुत चिंतन शील है।
सादर आभार।
आदरणीय कुसुम (मन की वीणा) जी,
हटाएंलेख पर आपकी टिप्पणी ने बहुत सुंदर विचार विमर्श किया है। सबसे पहले मैं यह साफ कर दूँ कि लेख किसी व्यक्ति विशेष को इंगित नहीं है । इसे ब्लॉग लेखन पर देखी-पढ़ी रचनाओं के प्रति मेरी एक सर्व साधारण प्रतिक्रिया या मेरा विचार कहा जा सकता है।
आपसे जानकर खुशी हुई कि रचनाकारों का एक वर्ग छंदबद्ध काव्य रचना की ओर अग्रसर है।
आपकी बात से मैं बिलकुल सहमत हूँ कि शब्दों से खेलने में मजा आता है, इसमें कोई बुराई भी नहीं है पर रचना की भाषा ऐच्छिक पाठक वर्ग की भाषा के अनुरूप होना, मेरी नजर में उचित है। अन्यथा पाठक के लिए रचना की उपयोगिता का ह्रास हो जाता है। हाँ प्रबुद्ध पाठकों के लिए क्लिष्ट या क्लिष्टतर शब्दावली भी आनंददायक ही होगी।
इतने विस्तार से लेख का विमर्श करने हेतु सादर आभार।
हिंदी साहित्य के बारे में आज के समय के रचनाकाकारों को दृष्टिगत रखते हुए आपने बहुत अच्छा विश्लेक्षण और चिंतन प्रस्तुत किया है आपने। शब्दों की जादूगरी तो हम भी नहीं सीख पाए हैं लेकिन लिखना अच्छा लगता है तो लिख लेते हैं।
जवाब देंहटाएंकविता जी,
जवाब देंहटाएंसबसे पहले तो आपका आभार कि आपने टिप्पणी में लेख को सराहा यानी आपको लेख अच्छा लगा। मेरा लेख आद्यतन लेखन पर एक चर्चा मात्र है। इसे किसी रचनाकार विशेष की सराहना या आलोचना समझना गलत होगा।
ब्लॉग पर आकर अपने विचार रखने के लिए अनेकानेक धन्यवाद।
आदरणीय अयंगर सर,
जवाब देंहटाएंकविता में छंद परंपरा का निर्वाह निश्चित रूप से घटता जा रहा है। मैं अपनी कहूँ तो मेरी अधिकतर कविताएँ आपको समतुकांत मिलेंगी। उनमें से कितनी गेय हैं या कितनी लयबद्ध हैं ये तो मैं नहीं कह सकती परंतु मैंने प्रत्येक अनुच्छेद में पंक्तियों की निश्चित संख्या लेकर मुखड़े और अंतरे वाली शैली में ही काफी रचनाएँ लिखी हैं। आपने जो इस लेख में लिखा है उनमें से कई बातें तो आपने मुझे तभी बताईं थीं जब मैंने आपसे मार्गदर्शन चाहा था। इसमें से एक बात मेरे मन में बैठ गई कि कविता ऐसी हो जो सरलता से होठों पर चढ़ सके या गाकर प्रस्तुत की जा सके। मात्राओं की गणना करके कविता करना मुझे ना अब तक आ सका, ना आ सकेगा। उसके लिए बड़े धैर्य और अथाह शब्द संपत्ति की आवश्यकता होती है। आजकल अभिव्यक्ति के साधन इतने सहज सुलभ हो गए कि हर तीसरा व्यक्ति अपने भावों को लिख रहा है। नई पीढ़ी का कहना है कि जज्बात देखो, शब्दों में क्या रखा है ?
मेरा मानना है कि छंदबद्ध लेखन हेतु निरंतर अभ्यास के साथ एक अच्छे विद्वान गुरु का होना भी आवश्यक है। उच्च कोटि के ग़ज़लकार और शायर हमेशा अच्छे उस्तादों के मार्गदर्शन में तैयार हुए हैं। इस तरह के और भी लेखों की नए कवियों को आवश्यकता है ताकि प्रत्यक्ष गुरु व उस्तादजी ना मिलें तो ऐसे लेख पढ़कर ही अपने कविता लेखन को बेहतर किया जा सके।
साधुवादसहित सादर आभार।
मीना जी,
जवाब देंहटाएंआपका आभार।
आपने लेख पढ़ा और अपनी रचनाओं का इस लेख के परिप्रेक्ष्य में विमर्श किया। क्या आपको ऐसा लगा कि यह लेख आपकी रचनाओं पर लिखा गया है? लगता है लेख में कुछ ऐसा रह गया है जिससे हर पाठक को लग रहा है कि मैंने यह लेख उनकी ही रचनाओं पर लिखा है। प्रत्येक पाठक की टिप्पणी इसी तरह की है।
मैं फिर से स्पष्ट करना चाहूँगा कि यह लेख किसी विशेष रचनाकार की रचनाओं पर आधारित नहीं है। यह तो दैनंदिन पढ़ी जाने वाली रचनाओं पर एक सामूहिक चर्चा है।
जैसे आपने कहा, हाँ वैसे ही मैंने समयानुसार अन्य रचनाकारों को भी बताने की कोशिश की है। कुछ जिनसे बात नहीं हो पाती उनकी रचना पर ऐसी टिप्पणी भी की है किंतु अक्सर लोग इससे नाराज होने लगे। इसलिए. चंद रचनाकार जो इसे सही समझते हैं, की रचनाओं को छोडकर, कुछ समय से मैंने समीक्षात्मक और सुधारक टिप्पणी से परहेज कर रखा है ।
मुझे समझ नहीं आ रहा कि इस तरह हर पाठक का लेख के संदर्भ में अपनी रचनाओं का पुनरीक्षण करना.लेख की विफलता है या सफलता!
आपका बहुत बहुत धन्यवाद और आभार।
साधुवाद स्वीकारें कि आपने मुझसे सीखने की बात कही है🙏
मुझे लगता है कि किसी लेख की यह बहुत बड़ी सफलता है कि पाठक उससे स्वयं को जोड़ते हैं।
हटाएंअच्छा, ऐसा है क्या?
हटाएंमुझे तो असमंजस सा महसूस हो रहा है।