*एहसान*
बता-बता के किया हमने
तुम पर एहसान दोबारा
हम समझ न पाए थे ,
ये था खुद का अपमान हमारा।
फिर तुम तो सुबह उठने को भी
एक काम कहोगे।
भोजन से निपटने को ,
तन पर एहसान कहोगे।
यह किस तरह की खुदगर्जी
छाई है मनुज पर,
बेटा पूछता है माँ से,
तेरे क्या एहसान है मुझ पर?
इस खुदगर्जी में मनुज, तुम
कितना और गिरोगे?
बुढ़ापे में छत-रोटी देकर
माँ-बाप पर एहसान करोगे ?
दो चार कदम चलना भी
कोई चलना है यारों
अपनों की मदद करना भी,
कोई एहसान है यारों?
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माता-पिता, परिवार के बुजुर्ग अपने जीवन के अंतिम पड़ाव में जब शारीरिक,मानसिक एवं आर्थिक रूप से कमजोर महसूस करते हैं उनका सहारा बनना उन्हें मान और सुरक्षा का एहसास कराना बच्चों का दायित्व है कोई एहसान नहीं.. यही तो जीवन-चक्र है इसे समझन ही स्वस्थ एवं खुशहाल परिवार की कुंजी है।
जवाब देंहटाएंभावपूर्ण रचना सर।
प्रणाम
सादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना मंगलवार ७ नवम्बर २०२३ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
धन्यवादश्वेता जी।
हटाएंजीवन का भाव पक्ष मुरझाता जा रहा है। सुंदर अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद जोशी जी।
जवाब देंहटाएंआभार विश्वमोहन जी।
जवाब देंहटाएंकुछ लोग एहसान जताने को अपना अपमान समझते हैं क्योंकि उनका स्वभाव ही होता है 'नेकी कर, दरिया में डाल'। वहीं कुछ लोग दूसरों की मदद करते ही हैं अपना बड़प्पन जताने को। आज के यथार्थ का चित्रण करती कविता।
जवाब देंहटाएंदो चार कदम चलना भी
जवाब देंहटाएंकोई चलना है यारों
अपनों की मदद करना भी,
कोई एहसान है यारों?
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बहुत सुन्दर रचना