मेरा आठवाँ प्रकाशन / MY Seventh PUBLICATIONS

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बुधवार, 20 सितंबर 2023

अनवरत यंत्र

 

अनवरत यंत्र


 अनवरत यंत्र

(लघु कथा)

 

मुझे माँ से कुछ एक बात पूछनी थी। किंतु समय ही नहीं मिल पाता था।

 मैं हमेशा माँ को ताकती रहती थी कि कब उन्हें फुरसत मिले तो मैं पूछूं।

 


माँ सुबह 4
:30-5:00 पर जाग जाती थी। हाथ- मुँह धोकर , नहाकर, भगवान का दिया जलाकर सीधे रसोई में चली जाती थी।  जब मैं उठती थी, तब तक माँ सब के लिए नाश्ता तैयार करके रख देती थी। सब के टिफिन / लंच बॉक्स पैक होते रहते थे। सबको चाय-कॉफी-दूध देकर खुद आधा कप कॉफी के घूँट पीती थी बस।

फिर से नहाकर तैयार होना और अपनी एक्टिवा की चाबी लेना, बैग उठाना और चुनरी सँभालती हुई, एक्टिवा स्टार्ट करके ऑफिस चली जाती थी। मुझे उनसे बात करने का समय ही नहीं मिल पाता था।

हम दोनों और पापा अपना-अपना नाश्ता करके टिफिन बॉक्स लेकर अपनी और चीजें उठाकर स्कूल-कालेज-ऑफिस चले जाते थे।

 सबसे पहले मैं ही घर आती थी। भैया घूमते-फिरते शाम 6:00  बजे घर आता था। सबके पास अपनी-अपनी चाबी होती थी। इसलिए कोई कभी भी आए-जाए किसी दूसरे को कोई फर्क नहीं पड़ता था। भैया आकर फिर खेलने या दोस्तों से मिलने चले जाता था।

 माँ करीब 7:00 – 7:30 बजे ऑफिस से घर लौटती थी । कभी-कभी रास्ते से कुछ राशन या सब्जियाँ ले आती थी तब थोड़ी देर भी हो जाती थी। पापा तो और देर से आते थे।

माँ आते ही चप्पल-सेंडल-जूते उतारकर, एक्टिवा की चाबी तय जगह कील पर टाँगती थी। फिर बैग ठिकाने पर रखती थी। उसके बाद सलवार-सूट पहना हुआ हो तो चुनरी सोफे पर रखकर या फिर साड़ी सँभालते हुए, वहीं बगल में पंखे के नीचे सोफे पर ही बैठ जाती थी। जब मैं लाकर देती थी तो एक गिलास पानी पी लेती थी वरना अपने से माँगती कभी नहीं थी

उनके चेहरे से साफ झलकता था कि वे बहुत थकी हुई हैं और इस समय अपनी बात पूछकर उनको परेशान करना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है। वे थोड़ा आराम चाहती थीं।

करीब दस मिनट आराम से पसीना सुखाते हुए, अपनी उखड़ी-उखड़ी थकान भरी लंबी साँसों को समेटती थी। उसके बाद उठकर वाशबेसिन पर जाकर मुँह हाथ धो लेती और रसोई में चला जाती थी। वे किचन से दो कप चाय या कॉफी लेकर लौटती – एक मुझे देती और एक खुद लेती थी। कभी–कभी ऑफिस से लौटते समय रास्ते से समोसा-कचौरी लाती थी। उनको पता था कि समोसे -कचौरी मुझे बहुत पसंद हैं। वरना हर दिन दो-तीन बिस्कुट का साथ तो होता ही था।

चाय-कॉफी की चुस्कियाँ पूरी होते ही, माँ प्यालियाँ उठाकर सीधी रसोई में चली जाती थी और फिर शुरु हो जाती थी रात के खाने की तैयारी।

जरूरत पड़ने पर चावल चुनने से लेकर, सब्जियों को धोना, छीलना , काटना से होते हुए, दाल – चावल धोना, कुकर में सामान समेटकर गैस पर रखना, आटा गूँथना बेलना और रोटी-पराठे बनाना सारा काम करते हुए पता नहीं कब घनी रात हो जाती थी।  तब तक माँ रसोई में ही गैस चूल्हे के सामने तपती रहती थी। पसीने से तर-ब-तर हो जाती, पर कभी  शिकायत भी नहीं करती थी कि रसोई में भी मुझे एक पंखा चाहिए।

रसोई में जाकर ऐसी हालत में उनसे सवाल करना किसी भी नजर से इंसानियत नहीं थी। इसलिए पूछ नहीं पाती थी।

इस बीच हम टी वी पर चिपक जाते थे। भैया क्रिकेट के लिए पागल था । उसको मैच देखना होता था। मुझे सीरियल्स पसंद थे और पापा को राजनीतिक परिचर्चा। जब दूसरे टी वी देखते तो मैं कुछ पढ़ लेती थी।

खाना पकाने के बाद माँ फिर से स्नान करके-कपड़े बदलकर हमको आवाज देती थी। हम, जैसे उसी का इंतजार कर रहे हों, अपना-अपना काम छोड़कर , टी वी बंद करके, डायनिंग टेबल पर आ जाते। पापा, तुरंत वहाँ का टी वी चालू कर देते और समाचार लगा देते।  पापा को समाचार सुनना जरूरी होता था, इसलिए डायनिंग टेबल पर कोई बात नहीं हो पाती थी।

खाना खाकर हम सब अपने-अपने काम पर लग जाते। मैं कभी पढ़ाई कर लेती तो कभी मोबाइल लेकर बैठ जाती थी - चेट करने या काल पर होती थी। पापा फिर टीवी लगाकर बैठ जाते थे। भैया का कोई ठिकाना नहीं होता था कभी घर पर ही मोबाइल चला लेता था या तो फिर बाहर दोस्तों के बीच चला जाता था।

माँ डायनिंग टेबल से सारे बरतन, गिलास, प्लेटें समेटती, सिंक में रखती, उनको माँजती-धोती , फिर रसोई-चौका को समेटकर सजाकर, गैस स्टोव की सफाई करके फिर किचन में झाड़ू-पोंछा करके जब बाहर आती थी। तब तक बहुत रात हो जाती थी और हम सब सो चुके होते थे। कभी कोई क्रिकेट मैच चल रहा हो तो भैया जगा होता था। कभी पढ़ते हुए मैं जगी मिल जाती थी। वरना साधारणतः हम सब सो ही जाते थे। 

माँ कोशिश करती कि थोड़ी देर पंखे के नीचे सुस्ता लूँ , पर उससे हो नहीं पाता था। आँखें बंद-बंद होती रहती थी। मेरे जगे रहने पर भी उस समय माँ की हालत देखकर उनसे बात  पूछने की मेरी हिम्मत नहीं होती थी। कुछ मिनटों में ही माँ उठकर कमरे में चली जाती थी सोने के लिए। इस तरह दिन समाप्त हो जाता था और मेरे सवाल, सवाल ही रह जाते थे।  समझ में ही नहीं आता था कि कब पूछूँ। इसी उधेड़बुन में दिन बीतते जाते और इस कशमकश में मेरा सवाल भूला जाता या एक दिन मेरा सवाल अस्तित्वहीन ही हो जाता।

मुझे समझता ही नहीं था कि माँ कब और कैसे अपना थकान दूर करती थी। जब भी घर पर रहती काम ही करते रहती थी। देर रात सोती और भोर सुबह जागती थी। मुझे लगा शायद माँ को ऑफिस में आराम करने मिल जाता होगा।

एक दिन मैंने माँ के साथ ऑफिस जाने की जिद कर दी। माँ पहले तो मना करती रही कि तू वहाँ बोर हो जाएगी पर ज्यादा जिद करने पर एक दिन साथ में ऑफिस ले गई। मैंने देखा माँ के टेबल पर बहुत सारी फाइलें रखी थीं। एक कंप्यूटर भी था। माँ जाते ही एक फाइल खोलकर बैठ गई । उसमें से कुछ पन्ने पलटे, पढ़ी और कुछ लिख कर दूसरी तरफ रख दी। ऐसे ही धीरे-धीरे हर फाइल पर कुछ-कुछ करती रही। बीच -बीच में कंप्यूटर पर कुछ खोलकर देखती और फिर फाइल में लग जाती। एक फोन आया तो उठकर सामने के एक केबिन में चली गई। वहाँ से एक फाइल साथ ले आई। आते ही उस फाइल को गौर से पढ़ने लगी और सोच में पड़ गई। इसी बीच केंटीन वाला आया और बिना पूछे माँ को और मुझे एक-एक कॉफी दे गया। माँ ने न उसे देखा, न ही कुछ कहा।

माँ फिर अपने फाइलों में व्यस्त सी हो गई। ऐसे ही शायद लंच टाइम हो गया था। माँ को लंच का और मेरा ध्यान तब आया जब लोग वापस अपनी सीट पर लौट रहे थे। जल्दी से हाथ की फाइल को समेटते हुए हाथ धोकर आई और मुझे हाथ धोने के लिए कहकर माँ ने लंचबॉक्स खोला। मेरे लौटते ही माँ ने किसी तरह फटाफट एक रोटी खाकर लंचबॉक्स मेरी तरफ बढ़ा दिया। मुझे तो भूख लगी थी । माँ व्यस्त थी इसलिए बोल भी नहीं पायी थी। मैं रोटी खाने में लग गई और माँ फिर अपने फाइलों में खो गई।  माँ को तो जैसे फाइलों से फुरसत ही नहीं थी। बीच-बीच में कोई, शायद प्यून होगा, कुछ फाइलें रख जाता था और कुछ फाइलें ले जाता था। माँ किसी से कोई बात नहीं करती थी। बस अपने फाइलों में खोई रहती थी। इतने में फिर केंटीन वाला आकर दोनों को कॉफी दे गया और मुझे एक समोसा। माँ फाइलों में ही खोई रही, कॉफी ठंडी हो गई और केंटीन वाला आकर उसे वापस ले गया। एक-डेढ़ घंटे बाद लोग उठकर जाने लगे थे। शायद ऑफिस का समय पूरा हो गया था किंतु माँ थी कि फाइलों से बाहर ही नहीं  पा रही थी।  जब माँ ने काम समेटा, तब भी उनकी टेबल पर फाइलों का अंबार लगा ही था। शायद यह कभी खतम न होने वाले फाइलों का भंडार था। बाहर अंधेरा हो चला था। घड़ी देखी तो साढ़े  छह बज चुके थे।

माँ ने चुनरी सँभाली, दराज से एक्टिवा की चाबी निकाली, टेबल लॉक किया और  बोली चलो, अब घर चलते हैं। माँ का चेहरा इतनी मेहनत के बाद भी खिला-खिला सा था, पर थकान झलक रही थी। रास्ते में रुककर माँ ने दो-तीन सब्जियाँ खरीदी और हम घर आ गए।

अब जाकर समझ आया कि माँ के ऑफिस का समय कितना व्यस्त होता है। वहाँ तो आराम करने या थकान मिटाने की कोई गुंजाइश ही नहीं थी।

मैं सोचने लगता कि ये माँ भी किसी अनवरत यंत्र से कम नहीं है। कोई शिकायत नहीं , शिकवा नहीं , कोई माँग नहीं, कोई जिद नहीं। नित दिन सुबह से शाम तक लगातार बच्चों व परिवार के लिए काम करती रहती है। कभी कहती नहीं कि मुझे घुमाने ले चलो या घूमने जाना है। न साड़ियों का माँग न आभूषणों की। लगातार दिनों-दिन जीवन भर सेवा में लगी रहती - खुद को पूर्णरूपेण समर्पित कर देती।

विज्ञान के अनुसार कोई भी यंत्र अनवरत नहीं चल सकता।

ईश्वर ने माँ ऐसी बनाया है कि वह विज्ञान के स्थापित सिद्धांतों को भी मात कर देती है।

अब मुझे लगता कि यदि यह दुनिया ऐसे व्यक्तित्व को प्रणाम करे, वंदन न करे तो                         और किसको करेगी ?

इसी लिए सभी धर्मों में, सभी देशों में, विश्व में हर जगह माँ को भगवान के समकक्ष ही विशेष स्थान प्राप्त है। इसीलिए आज भी यह संसार जीवित और चलायमान है।

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3 टिप्‍पणियां:

  1. मन भींग गया सर... माँ के इस रूप को बहुत करीब से महसूस किये हैं हम।
    प्रणाम
    सादर।

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    उत्तर
    1. बहुत समय बाद मेरे ब्लॉग पर आपकी टिप्पणी दिखी। खुशी हुई।
      आपसे भावनात्मक रूप से जुड़ पाया , इसकी भी खुशी है।
      समझ में नहीं आ रहा कि समतुल्य आभार कैसे व्यक्त करूँ।
      साधु वाद स्वीकार में।
      प्लग पर आते रहें , खुशी होगी।
      सादर,
      अयंगर।

      हटाएं

Thanks for your comment. I will soon read and respond. Kindly bear with me.