पुस्तक प्रकाशन
हर रचनाकार, चाहे वह कहानीकार हो, नाटककार हो या समसामयिक विषयों पर लेख लिखने वाला
हो, कवि हो या कुछ और, चाहेगा कि मेरी लिखी रचनाएं पुस्तक का रूप धारण करें. हाँ शुरुआती
दौर में लगता है कि यह किसी के लिए थोड़े
ही लिखी जा रही है, कि प्रकाशित कराऊं? पर बाद बाद में लगता है मेरी रचनाएं समाज दुनियाँ पढ़े और लोग मेरे
रचनाकर्म को सराहें.
व्यक्तिगत संवाद भले रोक लिए जाएं पर सामान्य रचनाएं बाहर की ओर
झाँकती हैं. पहले डायरी में, फिर दोस्त-सहेलियों के बीच, फिर ब्लॉग और पत्र पत्रिकाओं
की तरफ से होते – होते, अंततः पुस्तक रूप में आने का निर्णय देर सबेर हो ही जाता
है. इसमें कुछ गलत भी नहीं है. अन्यथा कई
बार तो पुस्तक प्रकाशन करें न करें की दुविधा में अच्छी रचनाएं डायरियों और
कापियों में रहकर ही दम तोड़ देती हैं. उन्हें पाठकों तक पहुँचने का सौभाग्य ही
नहीं मिलता.
और सब काम की तरह पुस्तक प्रकाशन के बारे में भी सोचना बहुत आसान है.
बाह्य दृष्टि से बहुत सरल प्रतीत होता है. पर सही में प्रकाशित करने में कई तरह के
पापड़ बेलने पड़ते हैं. हालाँकि सोच समझकर प्रकाशन का निर्णय लेने में भी बहुत समय
लगता है, पर यह निर्णय लेना वास्तविक प्रकाशन करवाने से बहुत सरल साबित होता है. एक
बार निर्णय हो जाए, तो काम शुरू किया जा सकता है.
सबसे पहला काम होता है - निर्णय लेना कि पुस्तक किस विधा एवं विषय पर
होगी. अक्सर कविता, गीत, शायरी, कहानी, नाटक लिखने वाले लिखना शुरु होने के बाद ही
ऐसा निर्णय ले पाते हें. तब उन्हें निर्णय करने में तकलीफ नहीं होती कि पुस्तक किस
विधा पर होगी. पर कुछ ऐसे वक्त आते हैं जहाँ लगता है कि अपना ज्ञान बाँटने के लिए
पुस्तक लिखी जाए. किसी विषय पर पकड़ देखकर साथी उकसाते हैं कि आप इस पर पुस्तक
क्यों नहीं लिख देते. वहाँ यह निर्णय करना दूभर हो जाता है कि किस विषय पर लिखी
जाए. एक से अधिक विधा के रचनाकार दुविधा में रह जाते हैं कि पुस्तक केवल कविता की
हो या कविता-कहानियों की या कुछ और.
मान लीजिए निर्णय किया कि कविता की किताब (लिखनी है) प्रकाशित करनी
है.
अब रचनाएं इकट्ठे करना का काम शुरु होता है. भाषा पर प्रमुख रूप से
ध्यान देनी पडती है. पुनः-पुनः पढकर भाषा सँभालनी पड़ती है कि कोई गलत बात न बन
जाए या कोई बनती बात न बिगड़ जाए. फिर आता है रचनाओं को क्रमबद्ध करना यह इसलिए भी
जरूरी ही कि पुस्तक में प्रवाह हो. पाठक को यथा संभव बाँध कर रखा जाए. क्रमबद्ध
करने से मतलब है कि व्याकरण की पुस्तक में सर्वनाम पहले और फिर संज्ञा न हो. जीवनी
में पहले जन्म हो, फिर उपनयन, फिर शादी और फिर परिवार – ऐसा क्रम.
अब सवाल उठता है कि प्रकाशन कहाँ से हो. खासतौर पर नए लेखकों के लिए प्रकाशक
पाना और चुनना अपने आप में एक बहुत बड़ी समस्या है. आज कल सेल्फ पब्लिकेशन हाउस तो
कुकुरमुत्तों की तरह उगे हुए हैं. कोई भी प्रकाशक अपनी पूरी जानकारी नहीं देता. परेशान
करने के पचासों बहाने लिए बैठे होते हैं. खासकर रॉयल्टी के बारे में तो विश्वास ही
नहीं करना चाहिए, उनकी बातों पर. अच्छा हो
हर बात लिखित में ही की जाए.
कुछ प्रकाशकों को चुनकर, उनको आवेदन प्रस्तुत करना होता है कि मुझे आपसे
कविता (विधा) की पुस्तक प्रकाशित करवानी है. तब प्रकाशक आपकी रचना के नमूने
मँगवाता है और निर्णय लेता है कि वह आपकी पुस्तक प्रकाशित करने में इच्छुक है या
नहीं. यदि आपकी रचनाएं सम्मति पाती हैं तो प्रकाशक आपको अपनी शर्तें बताता है.
उसमें यह सब भी होता है कि प्रकाशन में वह क्या - क्या करेगा और रचनाकार को क्या -
क्या करना होगा. किस तरह से कितनी रकम कब - कब जमा करनी होगी इत्यादि. अलग - अलग
प्रकाशकों से उत्तर मिलने पर जो सबसे ज्यादा सहमत होने योग्य हो, उसे चुना जाता
है.
कवर पृष्ठ कैसा हो. उसे सोचना, खोजना, बनाना दूसरा प्रमुख काम हो जाता
है. वैसे प्रकाशक कवर डिजाईन करते हैं. पर कुछ लोग अपनी पसंद का बनाना चाहते हैं.
ऐसे लोग अपने कुछ चित्र प्रस्तुत करते हैं जिन्हें प्रकाशक कवर का रूप देकर पुस्तक
का नाम और रचयिता का नाम अंकित करता है.
अब आता है प्रकाशक द्वारा दिए गए पुस्तक की प्रूफ रीडिंग करना. उसे
बताना कि कहाँ किस तरह की गलती है और किस तरह सुधार करना है, गलतियाँ हों सुधार
सुझाए. यह काम जरा पेंचीदा होता है. कई बार सुधार करवाने पड़ते हैं.
यहाँ मैं चाहूँगा कि प्रूफ रीडिंग पर विस्तार में जानकारी के लिए पाठक
मेरा लेख “एक पुस्तक की प्रूफ” रीडिंग पढ़ें.
कहाँ, किस तरह, क्या सुधार करना है, इसके लिए एक तालिका बनाकर देना
सर्वोत्तम होता है. तालिका में क्रमाँक, पृष्ठसंख्या, पेरा या कविता के छंद का
क्रमाँक, लाइन व त्रुटिपूर्ण खंड देते हुए, बताना होता है कि सही क्या हो. इस तरह
कम से कम तीन बार तो करना ही पड़ता है. बड़ी रचनाओं या विशेष विधाओं में यह ज्यादा
बार भी हो सकता है.
वैयाकरणिक सुधारों के साथ इसमें alignment (दायाँ – बायाँ), गद्य में मार्जिन जस्टिफिकेशन, फाँट टाइप और साइज, रंग, पृष्ठ संख्या,
रचना क्रमाँक कई तरह की बातों पर ध्यान देना पड़ता है. फॉर्मेटिंग का विशेष ध्यान
देना लेखक के लिए बहुत ही हितकारी होता है.
कवर पृष्ठ तैयार होने पर इसे ISBN के लिए भेजना पड़ता है. इसमें पुस्तक को एक
दस अंकों वाला या तेरह अंको वाला एक क्रमाँक दिया जाता है जिससे यह पुस्तक दुनियाँ
भर में जानी जाती रहेगी.
आई एस बी एन (ISBN) के लिए आवेदन के पूर्व प्रकाशक कुल रकम के 50 % की माँग करते हैं. सर्वोत्तम है कि राशि इंटरनेट
से ही स्थानाँतरित की जाए. वैसे चेक द्वारा भी भुगतान हो सकता है. कैश जमा करने पर अब बैंक वाले बहुत ज्यादा कैश
हेंडलिंग चार्ज लेने लगे हैं. इसलिए इससे परहेज करना ही उचित होगा.
अब आएँ पेपर वर्क और रॉयल्टी पर.
पुस्तक प्रकाशन के लिए लेखक को प्रकाशक के साथ एक करार करना पड़ता है
. जिसमें उनकी सेवाएँ, रचनाकार की जिम्मेदारी, व्यय, किश्तों की संख्या व समय (यदि
आवश्यक हो तो) और उनकी अन्य शर्तें लिखी होती है. साथ में यह सब भी होता है कि
पुस्तक पर यदि रॉयल्टी है तो किस तरह उसका आकलन होगा, किस तरह उसका भुगतान होगा.
इन सबके लिए लेखक को अपनी कुछ व्यक्तिगत सूचनाएं भी देनी पड़ती हैं.
अपना नाम, पता, जन्म तारीख, बैंक एकाउंट की सूचना अभिभावकों के नाम, पुस्तक
प्रकाशन के लिए पावर ऑफ एटार्नी और प्रकाशक के विशिष्ट फार्म पर आवेदन. इनके साथ
पेन कार्ड की कापी, दो पते के प्रूफ, आधार कार्ड, चालू बैंक खाते का (रद्द किया
हुआ) चेक भी संलग्न करना पड़ता है.
खास बात है कि कोई भी प्रपत्र (Document)
मूल रूप में नहीं भेजना होता है. सब स्वयं
प्रमाणित फोटोकापी मात्र.
प्रूफ रीडिंग पूरी होने पर प्रकाशक बकाया आधी राशि की माँग कर लेता
है. उसके बाद ही पुस्तक का प्रकाशन करता है.
इस दौरान कुछ बातें विस्तार में करनी होती हैं. प्रकाशक हमेशा अधूरी
भाषा में बातें करता है. कुछ लिखित में देने से डरता है या कहें परहेज करता है.
हाँ बड़े प्रकाशक हों तो यह सब झंझट नहीं रहते. उन्हें उनकी साख उन्हें पकड़ती है.
जैसे पटल पर अंकित होगा कि 100 प्रतिशत रॉयल्टी पाएं. इससे एक नया लेखक
समझता है कि पुस्तक के दाम 80 रुपए हों तो लेखक को प्रति पुस्तक रु.80 रॉयल्टी में
मिलेंगे. पर वास्तव में ऐसा नहीं होता. पुस्तक की कीमत से लागत निकालकर उसकी
प्रतिशत रॉयल्टी में दी जाती है. किंतु लागत की बात प्रकाशक कभी नहीं करता. लेखक
के करने पर वह कन्नी काटता है. अंततः प्रकाशक लेखक को लागत के बारे अवगत कराने से
बचता रहता है.
मेरी पहली पुस्तक दशा और दिशा के समय ऐसा ही हुआ. पेपरबैक पर 70
प्रतिशत व ई बुक पर 85 प्रतिशत रॉयल्टी बताई गई. बार बार लिखित में माँगने पर भी
लागत के बारे में कुछ भी लिखित नहीं आया. प्रकाशक का जो कर्मचारी मुझसे संपर्क में
था उसने मुझे बताया कि लागत रु.60 आ रही है तो एम. आर पी रु.120 रख सकते हैं.
मैंने हिसाब किया (120-60) का 70 प्रतिशत रु.42.00. यानी रु42 प्रति पुस्तक
रॉयल्टी.
वैसे ही ई बुक की कीमत लगाई रु.49 जिसका 85 प्रतिशत रु.41.65 होता है.
एक मोटे तौर पर विचार था कि प्रति पुस्तक करीब रु.42 मिलेंगे. इसी हिसाब से कीमत
पर रजामंदी दी थी.
जब ऑनलाइन देखने के मिला तब देखा प्रति पुस्तक ईबुक के तो ठीक मिल रहे
हैं किंतु पेपरबैक पर रु.22.85 दिया जा रहा है. प्रकाशक को बार बार लिखने पर भी
रॉयल्टी के हिसाब नहीं मिले, न ही मिला लागत का लिखित रूप. फिर खबर आई कि लागत बढ़
गई है रु.90 हो गई इसलिए एम आर पी बढ़ानी होगी या रॉयल्टी घटानी होगी. मेरी इच्छानुसार
मेल भेजा गया कि लागत बढ़ गई है इसलिए कीमत बढ़ाकर रु150 करने की अनुमति दीजिए.
दिया, यह सोच कर कि अब 150 व 90 के बाच 60 रु का फर्क है तो रॉयल्टी रु.42 पर आ
जाएगी. लेकिन नहीं रॉयल्टी वहीं रही रु.22.85 पर और कहा गया कि पहले ही पुस्तक की
लागत करीब रु 90 थी तो रॉयल्टी रु.22.85 मिल रही थी. लागत रु30 बढ़ी तो कीमत भी रु30 बढ़ा दी. जिससे आपकी रॉयल्टी बनी रही वरना
कुछ भी नहीं मिलता आपको. इस तरह प्रकाशक ने आधी रॉयल्टी का चूना लगाया. कुल मिलाकर
250 से ऊपर प्रतियाँ बिकने पर भी लागत नहीं लौटी. सारा माखन प्रकाशक ले गया. मैंने
उन्हें उपभोक्ता शिकायत मंच पर लाने की बात कही है. कभी तो होगा. सारे संप्रेषण सँभाल
रखे हैं मैंने. ऐसा होता है पैसों के मामलों में प्रकाशकों का व्यवहार.
इन सब से बचने के लिए प्रकाशक से लागत व कीमत पर रॉयल्टी की जानकारी
करार में ही लिखित करवा लेना जरूरी होता है. हाँ इसमें प्रकाशक को बहुत तकलीफ होती
है, पर धंधा करना हो, तो मानेगा. लेखक के लिए जरूरी है कि वह किसी भी तरह प्रकाशक
को लिखित में देने के लिए बाध्य करे. ई बुक में ऐसी परेशानी नहीं रहती क्योंकि
उसमें की अलग लागत नहीं लगती.
एक बात जो इन सबसे परे है, वह यह कि एक शर्त ऐसी होती है जिसके अनुसार
जब पुस्तक प्रकाशक के पोर्टल से बिकती है उसमें तो 100% रॉयल्टी पर इनके चेनल पार्टनर पर बिके तो 70% , मतलब अलग अलग
रॉयल्टी दी जाती है. पता करने से बताया जाता है कि चेनल पार्टनरों को कमीशन देना
पड़ता है.
यह सब खेल हैं. प्रकाशक को चाहिए कि चेनल पार्टनर से ऐसा करार करे कि
प्रकाशक के पास कीमत पूरी आए. इसके लिए वहाँ पुस्तक ज्यादा में बिकेगी. इससे
प्रकाशक को फायदा है कि ग्राहक प्रकाशक की तरफ झुकेंगे. पर प्रकाशक चेनल पार्टनरों
की बिक्री में भी कमाते हैं, इसलिए वे ऐसा करना नहीं चाहते.
जायज तरीका होगा कि एक कीमत तय की जाए पुस्तक की कि कितने में बिकनी
है. उस पर जो कमीशन चेनल पार्टनर को दिया जाता है उसे जोड़ें . इस तरह सब चेनल पार्टनरों
के हिसाब में जो सबसे ज्यादा आता है उसे एम आर पी कहा जाए. एम आर पी पर चेनलों की कमीशन
के हिसाब से उन्हें डिस्काऊंट दे दिया जाए, जिससे उतने में बिकने पर कीमत के पैसे
प्रकाशक तक आएँगे. प्रकाशक के पोर्टल पर सबसे ज्यादा डिस्काऊंट होगा और पुस्तक
कीमत पर ही बिकेगी. पर इतनी ईमानदारी शायद प्रकाशकों को भाती नहीं है.
यह सब बातें तय होने पर ही प्रकाशक को बकाया रकम की सुपुर्दगी देनी
चाहिए. अब पुस्तक पूरी तरह प्रकाशन के लिए तैयार है. प्रकाशन पर लेखक अपने सभी
जानकारों को नेट पर पुस्तक के उपलब्धि की सूचना दे सकता है. अच्छा होगा यदि प्रकाशक लेखक को लिंक दे,
जिससे लेखक अपने जानकारों को लिंक देकर पेमेंट कैसे करना है, ईबुक कैसे डाउनलोड
करना है, बता सकता है.
अब समझ आया होगा हमारे साथी लेखकों को कि प्रकाशन कितनी दुविधाओं से
घिरा है. पुस्तक छपकर आने से खुशी तो होती है पर जब तक छप नहीं जाती पारा सातवें
आसमान पर ही होता है.
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