निर्णय ( भाग -1)
बी एड में अलग अलग कॉलेजो से आए हुए अलग अलग विधाओं
के विद्यार्थी थे । सबकी शैक्षणिक योग्यताएँ भी समान नहीं थीं । रजत इतिहास में एम
ए था । उसे लेखन का शौक था और वह बहुत अच्छा वक्ता भी था । उसके लेख व कविताएँ
अक्सर पत्र - पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते थे । प्रिया ने बी कॉम किया था.
दिशा ने एम ए बीच में ही छेड़कर बी एड करने का फैसला लिया था घर की मजबूरियों के
कारण. संजना ने बी ए किया था और बी एड के बाद एम ए करने का सोचा था । उसे भी लिखने
का शौक था लेकिन घर के माहौल के कारण वह अपनी कविताएँ और शायरियाँ सबसे छुपाकर
रखती थी । पिताजी पुराने विचारों के थे और दसवीं कक्षा के बाद आगे पढ़ने की अनुमति
संजना को बहुत सी अलिखित शर्तों पर ही मिली थी।
सत्र जुलाई में शुरू हुआ था और बी एड कॉलेज में हर
वर्ष की तरह गुरूपूर्णिमा का कार्यक्रम मनाया जाने वाला था। प्रशिक्षु शिक्षक एक
दूसरे से परिचित हो जाएँ और उनमें छिपी प्रतिभा भी सामने आए यही इस कार्यक्रम का
मुख्य उद्देश्य था। कार्यक्रम में कई प्रतिभाएँ सामने आईं। रजत ने अपनी कविताएँ
पढ़ीं तो सभागृह तालियों से गूँज उठा। प्रिया ने भरतनाट्यम से समां बाँध दिया। अब संजना
की बारी आई उसने मीरा का भजन गाना शुरू किया.....
"ए री मैं तो प्रेम दीवानी मेरा दरद ना
जाणे कोय"
मंत्रमुग्ध से सभी सुनते ही रह गए। आवाज में मधुरता
के साथ दर्द का अनोखा संगम
था। कार्यक्रम पूरा होने के बाद जलपान के साथ एक दूसरे से मिलने मिलाने का दौर
शुरू हुआ। संजना अपनी सहेलियों के साथ बातों में व्यस्त थी और दूर खड़ा रजत उसे
एकटक निहारे जा रहा था। अचानक संजना का ध्यान उस तरफ गया। दोनों की नजरें मिल गईं
और रजत ने झेंपकर आँखें चुरा लीं ।
अगले दिन क्लास में पहुँचते ही संजना का सामना रजत से
हुआ। औपचारिकता के नाते मुस्कुराहटों का आदान प्रदान हुआ। रजत तो मानो बात करने का
बहाना ढूँढ़ रहा था।
रजत --"आप बहुत अच्छा गाती हैं।"
संजना --"आप भी अच्छा लिखते हैं, मुझे पसंद आईं आपकी
कविताएँ।
बात वहीं रूक गई क्योंकि सामने से राघवन सर आ रहे थे।
राघवन सर सोशियोलॉजी पढ़ाते थे। लेक्चर शुरू होने के पाँच मिनट पहले ही सर क्लास
में पहुँच जाते थे।
संजना हमेशा दरवाजे के सामने वाली पहली बेंच पर बैठती
थी। उसके पीछे उसकी दोनों सहेलियाँ दिशा और प्रिया बैठती थीं। लड़कियाँ एक तरफ, तो लड़के दूसरी तरफ
बैठते थे। सोशियोलॉजी विषय जरा नीरस सा लगता था। दिशा और प्रिया जरा ज्यादा ही बोर
हो रहे थे और राघवन सर के लेक्चर में जरा सी भी बात करना खतरे से खाली नहीं था। पर
करें तो क्या करें ? चलो, लिखकर बातें करते हैं.
दिशा ने नोटबुक में लिखा -
"प्रिया, यार ये सोशियोलॉजी किसने बनाई है ?"
पास बैठी प्रिया ने पढ़ा और उसी के नीचे लिखकर जवाब दिया -
"मुझे क्या मालूम ? रुक, संजना से पूछते हैं।"
"प्रिया, यार ये सोशियोलॉजी किसने बनाई है ?"
पास बैठी प्रिया ने पढ़ा और उसी के नीचे लिखकर जवाब दिया -
"मुझे क्या मालूम ? रुक, संजना से पूछते हैं।"
राघवन सर बोर्ड की तरफ घूमे कि संजना ने हलका सा सिर
घुमाकर दोनों को चेताया - "प्रिया, दिशा, सर देख रहे थे तुम
दोनों को।"
तब तक नोटबुक संजना की बेंच पर सरका दी थी दिशा ने ।
संजना ने उसे खोला और पढ़ा। एक शरारती मुस्कान उसके
चेहरे पर बिखर गई। उसने नीचे लिखा - "मुझे लगता है, राघवन सर ने ही बनाई
होगी।"
नोटबुक फिर पिछली बेंच तक पहुँचाने के चक्कर में
संजना पकड़ी गई।
"संजना, स्टैंड अप ! "राघवन स्वर की गंभीर आवाज के चढ़े स्वर से संजना चौंककर
खड़ी हो गई।
"क्या चल रहा है ?
कब से देख रहा हूँ मैं तुम तीनों को।
इधर लाओ वो नोटबुक।"
संजना ने जरा सी गर्दन तिरछी कर पीछे बैठी प्रिया को
घूरा कि - मुझे फँसा दिया ना !!
प्रिया ने हलके से आँखों में ही इशारा किया कि 'जा यार, दे दे नोटबुक।
देखा जाएगा जो होगा सो।'
लाचार होकर संजना ने नोटबुक सर के हाथ में पकड़ा दी। कुछ
पन्ने पलटे सर ने और संवादों पर सरसरी नजर दौडाई।
एक व्यंग्य भरी मुस्कुराहट के साथ सर संजना को घूरते हुए सर की आवाज गूँजी, "अच्छा, तो सोशियोलॉजी मैंने बनाई है?"
सर के इतना कहते ही सारी क्लास में हँसी की लहर दौड़ गई और सबकी नजरें संजना पर टिक गईं।
"आपसे मुझे ये उम्मीद
नहीं थी संजना ।
मत भूलो कि आप लोग भावी शिक्षक हो । बचपना छोड़कर जरा
गंभीर होना सीखो...."
एक लंबा चौड़ा भाषण दिया सर ने और अंत में नोटबुक
संजना को लौटा दी। वह रुआंसी हो चली थी।
अनायास ही उसकी नजर लड़कों की अंतिम पंक्ति में पहली
बेंच पर बैठे रजत पर चली गई जो मंद मंद मुस्कुरा रहा था।
राघवन सर के लेक्चर के बाद दो लेक्चर और हुए। संजना
ने पीछे मुड़कर भी नहीं देखा. दिशा ने बात करने की कोशिश की पर कोई जवाब नहीं दिया।
तीसरे लेक्चर के बाद आधे घंटे का ब्रेक था। जेसना मैम के जाते ही संजना प्रिया पर
बरस पड़ी।
"तुम्हारी वजह से मुझे डाँटा सर ने..."
प्रिया - "अच्छा ! तुमने कुछ नहीं लिखा था उसमें?
चलो, गुस्सा छोड़ो, कैंटीन चलते हैं।"
चलो, गुस्सा छोड़ो, कैंटीन चलते हैं।"
संजना - "तुम लोग जाओ, मेरा मन नहीं है।"
ब्रेक में दो चार लोग ही रह गए थे क्लास में। रजत
मौका पाकर संजना के पास आया।
"आपको ज्यादातर गंभीर ही देखा है, आज पता चला कि आप
शरारत भी कर लेती हैं।
संजना - "क्यों ? नहीं कर सकती? हर इंसान में एक
बच्चा छुपा होता है, मुझमें भी है।"
रजत -"हाँ, वो तो दिख ही रहा
है। आज भूखे रहना है ?"
संजना-"मेरा टिफिन है, पर खाने का मन नहीं।
आप खाएँगे थोड़ा ?"
रजत-"निकालिए, नेकी और पूछ पूछ?"
इस तरह के छोटे छोटे वाकये क्लास में होते ही रहते और
संजना और रजत को तकरार व मनुहार के मौके मिलते रहते।
नोंकझोंक होती पर रजत के मजाकिया स्वभाव के आगे संजना
की नाराजगी टिक ना पाती।
अब अक्सर कॉलेज लाइब्रेरी में दोनों साथ पढ़ा करते।
रजत जब भी कुछ नया लिखता, सबसे पहले संजना को सुनाता था।कुछ प्रेम कविताएँ भी लिखी थीं उसने, जो स्पष्ट रूप से
संजना की ओर इंगित करती थीं। संजना भी रजत की ओर अजीब सा खिंचाव महसूस करने लगी थी,
लेकिन संस्कार कुछ ऐसे पड़े हुए थे कि उस अनुभूति को प्रेम का नाम देने की हिम्मत
ना होती।
----- (क्रमशः)
दूसरा भाग - अआगले हफ्ते इसी दिन
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