मेरा आठवाँ प्रकाशन / MY Seventh PUBLICATIONS

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सोमवार, 6 मार्च 2017

अनहोनी

अनहोनी


ना तुम धरा, 
ना मैं गगन,
पर क्षितिज पाना चाहते हैं
रेल की दो पटरियों को  
हम मिलाना चाहते हैं।

रात दिन के चक्र में,
संध्याएँ ही आनंदमय हैं
हम हरसमय और हर हमेशा,
संध्या में रहना चाहते हैं. 
रेल की दो पटरियों को 
हम मिलाना चाहते हैं

रात ही राका मिलन को
उठ रहे अनथक लहर हैं
खेल सदियों से चला,
हो रहा आठों पहर है,
हम इन लहरों का सुसंगम
राका से कराना चाहते हैं
रेल की दो पटरियों को
हम मिलाना चाहते हैं.

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