मेरा आठवाँ प्रकाशन / MY Seventh PUBLICATIONS

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मंगलवार, 21 जुलाई 2015

लेश मात्र प्यार

लेश मात्र प्यार

उन दिनों मेरा हाथ अपने हाथ में लिए,
गोदी में ले सहलाते – तुम
और कभी तुम्हारा हाथ लिए ,
सहलाती – मैं,

कभी पार्क में, तो कभी सिनेमा हॉल में,
कभी नहर किनारे, तो कभी नदिया तीरे,
तब बातें कम ही होती थी ,
पर एक दूसरे के अहसासों का,
अहसास हो ही जाता था.

कितना मधुर वक्त था ना वह !

बात आगे बढ़ती गई,
कभी तुमने मेरे बालों से खेला,
कभी मेरे गालों को सहलाया,
कभी मैं तुम्हारे सीने पर सर रखकर सो जाती
और कभी तुम मेरे गोदी मे सर रखकर सोते,

तुम्हारे उस खुरदरे दाढ़ी की चुभन भी मुझे भाने लगी थी.
हमने शायद सोचा था कि जीवन शायद उसे ही कहते हैं -
मन से मन का मिलन, दिन प्रतिदिन प्रगाढ़ होता गया
फिर एक दिन लगा कि अब तो दो मन एक हो गए हैं,


मजबूरन दो अलग- अलग तन में बसे हुए हैं.
लगा, अब उन्हें भी एकीकृत कर देना चाहिए.
तुमने ही तो प्रस्ताव दिया था ना ,
और हाँ, मैंने स्वीकार भी किया था.

अब हम दंपति हैं.

दुनियाँ की एक नई तस्वीर उभरने लगी है.
लगने लगा कि इस प्यार और
मानसिक मिलन के अलावा भी
बहुत कुछ है संसार में.





हमने मानसिक मिलन के दौर में,
तो आसपास कुछ नहीं देखा.

इसमें अधिकार कम और जिम्मेदारियाँ ज्यादा हैं.
अपनी तो पता नहीं कहाँ गई,
पर अगली पीढ़ी की जिम्मेदारी में
सुबह – शाम का पता ही नही चलता.

शायद प्यार का यह एक और रूप है.
हम जिसे प्यार समझते थे वह तो
प्यार के सागर का शायद
सौवाँ अंश भी नहीं है,
लेश मात्र है.

अब हम अपने लिए कम और
औरों के लिए ज्यादा जीते हैं,
शायद यही प्यार का मर्म भी है.
और प्यार का धर्म भी.


अयंगर.
21.07.2015.





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