सुनील जब
हाई स्कूल में दाखिल हुआ तो जाना कि शहर के रेल्वे क्षेत्र के सभी स्कूलों के
अग्रणी छात्र इसी स्कूल में आ गए हैं. सुनकर एक तरफ तो बड़ी खुशी हुई कि यहाँ की
पढ़ाई बहुत अच्छी होती होगी, तभी तो सारे स्कूल के छात्र यहां आ गए हैं. लेकिन मन
के अंदर एक डर भी था कि यदि पढ़ाई में ढिलाई हुई तो कक्षा के प्रथम तीन में स्थान
प्राप्त करना आसान नहीं होगा. इसी डर के कारण मन ही मन धीरे - धीरे निश्चय बढ़ने लगा कि मन
लगा कर पढ़ाई करनी पड़ेगी और करनी है. आईए सुनते हैं आगे की बात - सुनील के मुख
से.
“वह दिन मुझे याद है जब कक्षा 7 वीं की मार्कशीट (अंकतालिका)
देख कर पिताजी ने कहा था, - पिछले बरस भी तुम्हें इतने ही प्रतिशत अंक मिले थे. अब भी वही हैं, तो तुमने
क्या प्रगति की ?” मैंने बड़े शान से कहा था कि वह कक्षा छः की पढ़ाई थी और यह कक्षा 7 की पढ़ाई
हैं. यदि मेरे अंक प्रतिशत कायम हैं, तो मैंने कक्षा को स्तर के अनुपात में ही
प्रगति की होगी, अन्यथा अंक प्रतिशत कम हो जाते. पिताजी उससे आगे कुछ बोल नहीं पाए
या बोले नहीं. किंतु अब लग रहा था कि इतना काफी नहीं है – अब होड़ बढ़ गई है और
प्रतिशत कायम रखने से नहीं चलेगा, इसे बढ़ाना पड़ेगा ताकि अन्यों की ललकार को
चुनौती देते हुए, उनसे आगे रहा जा सके. इसी निश्चय के साथ हाई स्कूल में पढ़ाई
शुरु हुई.
यह वही
दौर था, जब भारतीय क्रिकेट टीम में मंसूर अलीखान पटौदी, सलीम दुर्रानी, दिलीप
सरदेसाई अपने अंतिम पड़ाव पार कर रहे थे. जब भारत ने हालेंड को हराकर विश्व कप
हॉकी पर कब्जा किया था. अजीत वाड़ेकर की कप्तानी में सुनील गवास्कर क्रिकेट खेलने
भारतीय टेस्ट टीम नें शामिल किए गए थे. विश्व चेम्पियन मुक्केबाज कैसियस क्ले
(मोहम्मद अली) पहली बार जो-फ्रेज्रियर से मात खाए थे. इसके बाद ही भारत की बदनाम
इमर्जेंसी आई थी.
उम्र भी
कुछ इसी पड़ाव पर थी. अंजाम यह हुआ कि खेलों में रुझान बढ़ गया. स्वाभाविकतः पढ़ाई
में इसका असर झलका. मुझे वह दिन भी याद है जब एक फुटबॉल टूर्नामेंट में मैं
सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी चुना गया था. पुरस्कार स्वरूप दो कापियाँ व एक पेंसिल दी गई
थी. सेमी फाइनल में दो गोल दागने के कारण खुश एक दर्शक ने 25 पैसे इनाम दिए थे
जिसका हम सब खिलाड़ियों ने चूईंग गम खरीद के खा लिया था. उन दिनों 25 पैसे की बहुत कीमत होती थी. चार बन्द-रोटियाँ
मिल जाते थे. वो दिन मुझे आज भी याद है कि 40 किलो चावल का मोल भाव 1रु. 1पैसे व
1रु. 2पैसे के बीच फंसकर तय हो नहीं पाया था. आज के बालक ऐसी बातें सुनकर उनका
मजाक उड़ाएंगे. सेमी फाईनल में खेलते हुए मेरे दाहिने पैर के अंगूठे का नाखून उखड़
गया था. किक मारते ही खून का फव्वारा निकलता था. गोलकीपर ने बॉल पकड़ते समय उस पर
खून देखा. तहकीकात हुई और लोग जान गए, किंतु मैने ग्राउंड छोड़ना मुनासिब नहीं
समझा. आखिर हम जीत गए. फाईनल में भी ऐसी ही हालत में खेला. हम फाईनल भी जीते और
मैं टूर्नामेंट का सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी घोषित किया गया था.
बात बहक
सी गई है. इसके चलते इधर स्कूल में सब जान
गए कि खेलों में मेरा मन लग गया है. हमारे
आदरणीय गणित के सर श्री राधे श्याम सिंह जी को यह बिलकुल नहीं भाया. उनने
बुलाकर जोरदार शब्दों में हिदायत दी कि इसी तरह गेंदा खेलता रहेगा तो दसवीं पास
नहीं कर पाएगा. आए दिन वे मुझे देखते ही कहते या बुला भेजते यह कहने को कि सुनील,
तुमने गेंदा खेलना कम नहीं किया है. कक्षा की खिड़की से, मैं अपने क्लास के दौरान,
तुमको खेलते देखता हूँ. बेटा बात मान ले, ऐसे खेलने से परीक्षा पास नहीं कर पाओगे.
बोर्ड की परीक्षा है. मैं उन्हें हामी दिलाता कि नहीं सर मैं खेलों के साथ पढ़ भी
रहा हूँ. पास तो हो ही जाऊंगा और प्रथम श्रेणी भी कायम रहेगी,. वे कहते नहीं इतने
से काम नहीं चलेगा. तुमको प्रतिशत बढ़ाना है. क्लास में और स्कूल में भी प्रथम आना
है. मैं उन्हें आश्वासन देता कि आपकी हर बात पर खरा उतरूंगा, किंतु उनका मन है कि
मानता ही नहीं. वे अपनी बात पर कायम रहते.
श्री
सिंह अपने काम पर समर्पित थे. 104-5 की बुखार में भी वे कंबल ओढ़कर कक्षा में
उपस्थित रहते और कोई सवाल देकर हल करने को कहते. फिर कक्षा के किसी छात्र से वे
ब्लेक बोर्ड पर बनवाते. बाकियों से पूछते यह ठीक है? और नहीं तो किसी और से उसे ठीक
करने को कहते. खुद सब कुछ देखते रहते और हिदायतें देते रहते. पता नहीं क्यों ? इतने ताप पर
भी उन्हें घर बैठना भाता ही नहीं था. इससे हमें तो लगता था कि हम बच्चों से उन्हे
इतना प्यार .या कहिए लगाव था कि अपनी तबीयत को भी वे हमारी खातिर नकार जाते थे.
गुरुजी
के बार - बार कहने का असर मुझपर यह हुआ कि मुझे डर सा लगने लगा कि सर इतनी बार ऐसा
क्यों कह रहे हैं ? फिर सोचता शायद मैं जो सोच रहा हूँ
सही नहीं है, उधर खेलों में दिलचस्पी बढ़ने लगी. अंततः मन में भरे डर के कारण
मैंनें खेलों के साथ - साथ पढ़ाई पर और जोर लगाया. मुझे इस बात का तो आभास था कि
मेरे साथी छात्र भी तो जी तोड़ कोशिश कर रहे होंगे कि वे क्लास और स्कूल में प्रथम
आएं. परीक्षा नजदीक आती गई और पढ़ाई की तरफ रुझान बढ़ता गया. एक समय खेलों का दौर
रुक सा गया. मन में डर लगा था कि यदि मैं कहीं गुरुजी को दिया वचन निभा न पाया तो ? लेकिन ऐसा होने
नहीं दिया जा सकता था. बात गुरुजी को दिए
गए जुबान की थी, वो भी उनको जो मुझे बहुत मानते थे. बस लग गए जी पढ़ाई करने.
बोर्ड
की हर परीक्षा के दिन एक बार तो कम से कम सर आते और पूछते – सुनील पेपर कैसा है ? सवाल बन रहा है ना ? जब हम बच्चों
से हामी सुनते तो उनको आनंद होता था. अपने विषय के दिन तो वे दो - तीन बार कक्षा
में धूमें. बार - बार पूछ रहे थे, जैसे उनको शक हो गया हो कि हम बच्चों से सवाल
शायद हल नहीं हो पाएंगे. परीक्षा के बाद बाहर जाते समय रोकते और पूछते – कितने
नंबर के प्रश्नों के जवाब लिखे, कितने मार्क्स मिल जाएंगे इत्यादि सवाल, जैसे
परीक्षा हमारी नहीं उनकी हो रही है. कभी - कभी तो ऐसा लगता कि परीक्षा की चिंता,
मुझे व मेरे अभिभावकों से ज्यादा गुरुजी को है. जिस दिन परीक्षाएं पूरी हुई उस दिन
तो सर ने सवालों की झड़ी लगा दी. मैंने तुमसे कहा था ना कि गेंदा कम खेला करो, तुम
रहे ढीठ, माने ही नहीं. अब देखना नतीजा – फर्स्ट क्लास आ जाए तो बहुत है. कितने
नंबर मिलेंगे ? कितने प्रतिशत मिलेंगे ? बेहद डरा दिया था. बार - बार लगता था, सर ऐसे क्यों टोक रहे हैं ? मैंने पेपर तो
ठीक ही किए हैं, नंबर भी अच्छे आएँगे. किंतु गुरुजी के विश्वास के सामने मुँह
खोलने की हिम्मत हो, तब ना कुछ कहेंगे.
हम सब
अपने - अपने घरों को रवाना हो गए. गर्मी की छुट्टियाँ मनाई. फिर आया, परीक्षा
परिणाम का दिन. सब सुबह सुबह अखबार पाने के लिए स्टेशन वाली दुकान के पास, स्टेशन
के सामने अखबार वाले के पास अलग - अलग अखबार खरीद कर, अपने - अपने रोलनंबर की तलाश
में लग गए. अपना नंबर प्रथम श्रेणी में देखने के बाद साथियों का – जिनसे तुलना थी
या कहे होड़ थी – नंबर देखते. सब प्रथम श्रेणी में पास हो गए हैं. अब आया प्रतिशत
का खयाल. 60 प्रतिशत से ऊपर तो सभी प्रथम श्रेणी में हैं. पर कौन कितना ऊपर है, यह
तो मार्क शीट ही बताएगा. परीक्षा की अंकतालिका दूसरे – तीसरे दिन स्कूल से मिलती
थी. इसलिए स्कूल के चक्कर फिर शुरु हो गए. हर विद्यार्थी चाहता था कि मेरे अंक
सबसे पहले मुझे ही पता चलें. इसलिए हर कोई स्कूल जाता था. तीसरे दिन सबह जब स्कूल
पहुँचा तो देखा सिंह सर गेट के पास ही खड़े हैं.
पहुँचते
ही पहला सवाल दागा –
कौन सा
डिविडन लाए हो...
मैंने
जवाब दिया सर पहला.
कितने
प्रतिशत आए हैं.
सर पता
नहीं मार्क शीट मिलेगा तो पता चलेगा.
बोले - जा मार्क शीट लेकर
आ..देखते हैं.
मैंने
पूछा - सर क्या मार्क शीट आ गई है ?
सर ने
कहा - हाँ लेकिन प्रिंसिपल सर खुद बाँट रहे हैं.
मेरी
हवा ही खिसक गई. प्रिंसिपल सर पिताजी को अच्छे से जानते थे. कहीं रिजल्ट के बारे
पिताजी को बता दिया हो तो?
किसी
तरह हिम्मत बाँध कर प्रिंसिपल सर के कमरे तक पहुचा. जैसे शायद वे मेरा ही इंतजार
कर रहे हों, तुरंत पुकार कर बोले –आओ सुनील, आओ, अंदर आओ. मैं सहमें कदम सर की तरफ
बढा.
पूछे - रोल नंबर क्या
है ?
मैने
बताया.
फाईल के
पत्ते पलटते हुए, उनने मेरा मार्कशीट निकाला और बोले यहाँ दस्तखत कर दो. दस्तखत करते ही, मेरा
मार्क शीट पकड़ाते हुए बोले देखें तो कैसे
मार्क्स आए हैं. थोड़ी देर देखा फिर बोले - गुड़ 78 प्रतिशत.
अब
मार्क शीट देखने की बारी मेरी थी. मैंने देखा प्राप्तांक 400 में से 312 थे. यानी
78 प्रतिशत.. दिल धक कर गया. 314 वाले को मेरिट स्थान मिला था. लगा काश दो अंक और
मिल गए होते. पर अब क्या होना था. शहर के
ही अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में एक लड़की को 314 अंक मिले थे.
बाहर
निकला तो चेहरे पर खुशी के बदले मायूसी थी. गेट पर सर अब भी खड़े थे. पूछ पड़े –
कितने आए. मैंने कहा 78 प्रतिशत. फिर पूछे दूसरों के कितने आए. मैन सिर हिला दिया –
पता नहीं के अंदाज में. उनने मेरे मार्क शीट को गौर से देखा और बोले – शाबास सुनील
– तुमने जो बोला कर दिखाया. मैंने सबका मार्क शीट देखा है. स्कूल में तुम्हारे ही
सबसे ज्यादा नंबर आए हैं. लेकिन गेंदा नहीं खेलते होते तो तुम आज मेरिट में होते.
मैंने सोचा शायद इन्हें ही शिक्षक कहते हैं जो कभी भी शिष्यों से संतुष्ट होने का
भाव प्रकट नहीं करते ताकि उन्हें संतुष्ट करने के लिए शिष्य और भी मेहनत करें.
मार्क
शीट लेकर आदतन मैं सीधे घर पहुँचा. घर पर सभी मेरे मार्क शीट का इंतजार कर रहे थे.
सबसे पहले पिताजी को दिखाया.
कितना
परसेंटेज है...
78.
मेरिट
का लास्ट क्या है.
जवाब –
314.
थोड़ा
दिल लगाते, मेहनत कर लेते तो तुम भी मेरिट में होते. शहर में सबसे ज्यादा किसके –
कितने मार्क्स है.
अंग्रेजी
माध्यम के एक लड़की के 314.
क्या –
दो नंबर के लिए तुम एक लड़की से हार गए ?
पिताजी
ने एकाध मिनट के लिए उस पर नजर दौड़ाई और फिर मार्क शीट लौटा दी. न ही शाबासी, न
ही मुबारक बाद बस – तुम एक लड़की से हार गए. मन मसोस कर रह गया कि इनकी खुशी कब
झलकेगी.
जब
पढ़ाई पूरी हो गई और नौकरी करने लगा – तब बातों बातों में पता चला कि पिताजी ने
मेरे इस सफलता पर ऑफिस में मिठाई बाँटी थी. लेकिन खुशी हम पर जाहिर इसलिए नहीं
किया कि बरखुरदार कहीं संतुष्ट होकर न रह जाएं कि इतनी मेहनत बहुत है. अभी आगे की
पढ़ाई भी करनी है.
तब कहीं
जाकर दिल को चैन मिला कि मेरे पिता व गुरु ने एक ही रास्ता अपनाया कि शिष्यों पर
अपनी संतुष्टि उन्हें जाहिर मत करो वरना उनकी संतुष्टि के काऱण आगे की प्रगति
अवरुद्ध हो जाएगी. अब लगता है कि कितनी मुश्किल से उनने अपनी खुशी जाहिर करने से
अपने आप को रोका होगा. कितना बड़ा त्याग – बच्चों को लिए, शिष्यों के लिए.
ऐसा ही
हुआ इंजिनीरिंग की परीक्षा पास करने पर. मैंने फोन पर खबर दी कि मैं फर्स्ट डिविजन
में पास हो गया हूँ. जवाब आया थेंक्स. मैने दोबारा बताया और दोबारा वही जवाब. समझ
नहीं आ रहा था कि उधर से कहना क्या चाह रहे हैं. मुलाकात पर मैने सीधे पूछ लिया. मैं
आपको पास होने की खबर दे रहा हूँ और आप हैं कि थेंक्स कहे जा रहे हैं, न शाबासी, न
ही मुबारकबाद, ऐसा क्यों ? जवाब मिला – तुम्हें हॉस्टल में रखकर पढ़ाने के लिए जो रुपए भेजता था, उससे
कुछ की जिंदगी में कोई कमी तो आई ही होगी. तुम्हें भले इसका भान और ज्ञान न हो. पर
सच्चाई तो यही है. मैंने थेंक्स इसलिए कहा कि तुमने परिवार वालों के उस त्याग का
सही इस्तेमाल किया और उसे बेकार नहीं जाने दिया. तुम्हारे इस सहायक पूर्ण कार्य के
लिए मैंने तुम्हें धन्यवाद दिया. मुझे लगा कि तुम्हारा इंजिनीयर बन जाने से बड़ा
गुण यह है कि तुमने दूसरों के त्याग को सही अपनाया और उसका सफल प्रयोग किया. यह
गुण तुम्हें जिंदरृगी में बहुत साथ देगा.
दूसरों की सहयता को कभी भी बेकार न जाने देना.
आज भी,
जब किसी के भी परीक्षा में अच्छे नंबरों से पास होने की बात आती है तो आँखें
उन्हें याद करके नम हो जाती हैं. बस सबके सामने, हर जगह आँसू ढल नहीं पाते लेकिन
आँखों में घूमते रहते हैं. आँखें नम तो हो ही जाती हैं.”
इतना
कहते ही उसकी आँखें नम हो गई वह रुआँसा सा हो गया. साथ में बैठा मैं अपने आपको रोक
नहीं पाया , मेरी मी आँखे नम हो गई.
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अयंगर
26.11.2014. कोरबा.
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