मेरा आठवाँ प्रकाशन / MY Seventh PUBLICATIONS

मेरा आठवाँ प्रकाशन  / MY Seventh PUBLICATIONS
मेरे प्रकाशन / MY PUBLICATIONS. दाईं तरफ के चित्रों पर क्लिक करके पुस्तक ऑर्डर कर सकते हैंं।

बुधवार, 19 नवंबर 2014

सफरनामा हिंदी का



                                          सफरनामा हिंदी का
के तहत 05.11.2014 को हिंदी कुंज में प्रकिशत.

स्वतंत्रता के पूर्व भारत भ्रमण करने वाले विभिन्न यात्रियों के संस्मरणों में व उनकी जानकारी देते हुए लिखे गए, कई इतिहासकारों के लेखों ने यह आशय व्यक्त किया है कि भारत में (विशेषतः उत्तर भारत में) संवाद - संप्रेषण की प्रमुख भाषा हिंदी है. तब से अब तक कम से कम उत्तरी भारत  में  संवाद माध्यम का कोई विवाद नहीं है.

अब रही दक्षिण भारत की बात. उन्हीं पुराने यात्रियों के संस्मरणों मे मिलता है कि दक्षिण भारत में भी हिंदी से काम चल जाता है. मतलब स्पष्ट है कि हिंदी दक्षिण भारत में संवाद की प्रमुख भाषा नहीं है. वहाँ दक्षिणी भाषाओं का वर्चस्व है. खास कर वहाँ की दो भाषाएं - तेलुगु और तमिल, बहुत ही संपन्न भाषाएँ हैं. तेलुगु भाषी क्षेत्र आँध्र प्रदेश, पहले तामिलनाड़ू (पुराना मद्रास) का भाग हुआ करता था, सो तेलुगु की अपेक्षा तामिल भाषा ज्यादा मुखरित हुई.

भारत में भाषा की दौड़ स्वतंत्रता के विचार से शुरु हुई. देशवासियों को एक सूत्र में पिरोने के लिए, देश में एक भाषा सूत्र की जरूरत आन पड़ी. उत्तर भारत में हिंदी बड़े ही आसानी से यह काम करने लगी, लेकिन दक्षिण भारत में हिंदी की अपेक्षा तमिल व वहाँ की स्थानीय भाषाएं ज्यादा प्रभावी रहीं. ज्यादातर तमिल भाषा (मद्रासी) का जोर था. आजादी के इस संग्राम में खास तौर पर गाँधी व सुभाष बोस के नेतृत्व में नरम व गरम दल बने. मंजिल दोनों की एक ही थी किंतु रास्ते अलग थे.

सभी देशवासियों को इस संग्राम से जोड़ने के लिए नेताओं ने एक भाषा सूत्र पर जोर दिया. प्रमुखतः काँग्रेस के नेताओं ने उत्तर भारत में हिंदी को वर्चस्व दिया. यहां तक कि गाँधी जी ने भी इस बात को स्वीकारा कि देश को एक सूत्र में पिरो सकने वाली भाषा मात्र हिंदुस्तानी है. उन्होंने हिंदुस्तानी को खासी तवज्जो दी. किंतु अन्य अनुयायियों के विरोध के कारण तय किया कि हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित की जाए. नेहरू और जिन्ना के अभिमान-आत्माभिमान की लड़ाई ने हिंदूओं व मुस्लिमों में जो दरार डाली, उसका भी अच्छा खासा असर भाषायी राजनीति पर दिखता है.

यहाँ से शुरु हुआ हिंदी का विरोध. खास तौर पर गैर काँग्रेसी, इसे काँग्रेस का कदम मान कर विरोध करते रहे. उधर दक्षिणी नेताओं ने (खास कर तमिलनाड़ु के लोगों ने) जी तोड़ विरोध किया. दक्षिण में तमिल वर्चस्व पर थी, सो उनने उत्तर की वर्चस्व भाषा हिंदी के साथ होड़ करना शुरु किया. नतीजतन यह भाषायी विवाद न होकर उत्तर भारत व दक्षिण भारत का मुकाबला हो गया.  इनमें सहभागी-प्रतिभागी ज्यादातर राजनीतिज्ञ थे, इसलिए यह राजनीतिक लड़ाई का रूप धारण कर गई.

ऐसी ही राय स्वतंत्रता के सारथी भी रखते थे. महात्मा गाँधी हिंदुस्तानी के पक्षधर थे और बाकी स्वतंत्रता संग्राम के अधिकतर महारथी हिंदी के पक्षधर थे. स्वतंत्रता संग्राम काँग्रेस के झंडे तले हुआ. इसलिए बहुत सारे काँग्रेसी नेता चाहे वे हिंदू भाषी रहे हो या नहीं गाँधी जी के प्रभाव के कारण हिंदी / हिंदुस्तानी के समर्थक हो गए. लेकिन उधर दक्षिण के प्रभावी नेता हिंदी के पक्षधर नहीं थे. उनका मानना था कि हिंदी किसी भी मायने में तेलुगु या तमिल से बेहतर नहीं है और हिंदी को स्वीकारने से हिंदी भाषियों को अनावश्यक प्रमुखता प्राप्त हो जाएगी. इसलिए उन्होंने हिंदी का विरोध किया.   

इधर बंगाल में भी बंगाली भाषा के प्रति खास लगाव था. उनकी भाषा भी साहित्य-संपन्न है. इसलिए वे भी हिंदी को पदासीन कर उसे अपनी भाषा से बेहतर बताने में संकोच करते थे. उधर गुजरात में गाँधी जी के विरोध में कोई, कहे ऐसा तो हो ही नहीं सकता था. लेकिन आज के दिन वे गुजनागरी (गुजराती-देवनागरी का मिश्रण) को राष्ट्रभाषा-राजभाषा बनाना चाहते हैं. इसके लिए उनका आंदोलन जारी है.

गाँधी जी खुद मानते और चाहते थे कि राष्ट्र को एक भाषा में पिरोने के लिए केवल हिंदुस्तानी ही सक्षम है और हिंदुस्तानी को ही राष्ट्रभाषा  बनाया जाना चाहिए. अन्यों का समर्थन न पाने पर बीसवीं सदी के दूसरे दशक में ही गाँधी जी ने हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित करने के सभी इंतजामात कर लिए थे. इसकी पूरी रूपरेखा तैयार कर ली गई थी. लेकिन काँग्रेस में रहे नेताओं के अलावा अन्यों ने इसका समर्थन नहीं किया. उन्हे लगता था कि  भारत की सभी भाषाएं समान रूप से राष्ट्रभाषा बनने की अधिकारिणी हैं, खासकर तमिल, तेलुगु, मराठी और बंगाली जो साहित्य-संपन्न हैं. ऐसा तर्क दिया गया कि तेलुगु व तमिल भाषाएं तो हिंदी की अपेक्षाकृत ज्यादा पुरानी भी हैं. उनका मानना था कि हिंदी के राष्ट्रभाषा बनने से हिंदी मातृभाषी लोगों को स्वाभाविकतः फायदा हो जाएगा तथा राजनीति के अलावा भी अन्य क्षेत्रों में हिंदी भाषी बाजी मार ले जाएंगे. इस समय जो हालात बने उससे लगता है कि हिंदी को काँग्रेस का मोहरा मान लिया गया और राजनीतिक रंग चढ़ने के कारण आज राष्ट्रभाषा तो क्या हिंदी राजभाषा भी सही तरह से नहीं बन सकी.

तमिलों ने तेलगु भाषा को दबाया क्योकि आँध्र कभी ओल्ड मद्रास प्रोविंस का भाग हुआ करता था, बंगाली भाषा के लिए वहाँ के लोग बोले. लेकिन आश्चर्य होता है कि साहित्य–संपन्न मराठी भाषियों ने कभी भी हिंदी के विरोध में आंदोलन किया हो, ऐसा कहीं नहीं मिलता. हो सकता है कि इसका कारण गोपालकृष्ण गोखले, बाल गंगाधर तिळक जैसे नेताओँ का नेतृत्व था, जो खुद गाँधी जी के सान्निध्य में हिंदी का साथ दे रहे थे. मुझे लगता है ऐसा मानने में कोई बुराई नहीं है.

इन सब कारणो से अहिंदी भाषियों ने, हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की मुहिम को, उन पर हिंदी थोपी जाने के रूप में देखा. इस खींचातानी के दौर में राष्ट्रभाषा शब्द के कई मतलब निकाल लिए गए. स्पष्ट ही नहीं होता कि कौन इस शब्द का किस मतलब से प्रयोग कर रहा है. प्रमुखतः  राष्ट्रभाषा के अर्थ बने –


1        राष्ट्र में सबसे ज्यादा प्रयुक्त होने वाली भाषा.
2        राष्ट्र में प्रयुक्त होने वाली एक (प्रमुख) भाषा.
3        राष्ट्र के प्रतीक चिह्न के रूप में राष्ट्रभाषा.

अलग - अलग लोगों ने अलग - अलग समय में इस शब्द का अलग - अलग अर्थों में प्रयोग किया. जिसका नतीजा यह हुआ कि लोग समझने लगे कि हिंदी भाषी खुद इस बात से भली - भाँति अवगत नहीं हैं कि राष्ट्रभाषा व राजभाषा में क्या भिनन्ता है.

महात्मा गाँधी ने राष्ट्रभाषा के लिए निम्न आवश्यक गुणों का होना जरूरी बताया था –

1.   सीखने में आसानी.
2.  राजनीतिक, धार्मिक व आर्थिक-वाणिज्यिक व्याख्यानों को लिए उपयोगी.
3.  ज्य़ादातर नागरिकों की भाषा हो.
4.  यह एक निश्चित अवधि के लिए न होकर हमेशा के लिए हो.

इन सिद्दान्तों के आधार पर गाँधी जी की नजर में हिंदुस्तानी राष्ट्रभाषा के लिए सबसे उचित लगी. गाँधीजी ने अंत तक राष्ट्रभाषा के लिए हिंदी का नहीं बल्कि हिंदुस्तानी का साथ दिया. उनका कहना था कि हिंदुस्तानी - हिंदुओं एवं मुसलमानों दोनों को साथ लेकर चलने का सामर्थ्य रखती है. लेकिन काँग्रेस के नेता केवल हिंदी चाहते थे. आज ऐसा लगता है कि यहि हिंदुस्तानी को राष्ट्रभाषा बनाने पर जोर होता, तो देश में बसे उत्तर व दक्षिण के मुसलमान भी साथ आते और राष्ट्रभाषा-राजभाषा  का पथ आज जैसै पथरीला नहीं होता.

कईयों ने तर्क दिया कि संस्कृत भाषा, हिंदी भाषी व तमिल भाषी दोनों निकायों को मान्य राष्ट्रभाषा होगी. पर इसमें मुश्किल यह था कि यह दोनों निकायों के सदस्यों द्वारा बोली नहीं जा सकेगी. अंततः यह राष्ट्र के प्रतीक भाषा का रूप धारण कर जाएगी. राष्ट्रभाषा के लिए यह तो ठीक है पर राजभाषा के लिए यह अनुचित है. राष्ट्रभाषा का यह सुझाव हिंदी भाषियों को खास कर रास नहीं आया क्योंकि राष्ट्रभाषा के आड़ में वे हिंदी को राजभाषा भी बनाना चाहते थे या फिर उन्हें राष्ट्रभाषा व राजभाषा की भिन्नता का ज्ञान ही नहीं था. हालाँकि वे हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की बात करते थे, किंतु राजभाषा बनाना चाहते थे.

स्वतंत्रता के बाद जब गाँधीजी ही नहीं रहे, तब हिंदुस्तानी का कोई पैरवीकार ही नहीं बचा. सब हिंदी के पक्षधर बचे. उर्दू होड़ से बाहर ही हो गई. बस हिंदी थी और अपने ही घर की तमिल. संविधान की भाषा समिति ने भी राष्ट्रभाषा शब्द के प्रयोग से परहेज किया और राजभाषा के रूप में एक नया शब्द ईजाद किया. इसका उनने भारत देश की राजकाज की भाषा के रूप में तात्पर्य दिया. राजभाषा सचिवालय की पत्रिका राजभाषा भारती के एक अंक के अनुसार भाषा समिति के अंतिम निर्णय के समय तमिल व हिंदी के बीच टकराव हुआ और हिंदी नेहरूजी के अध्यक्षीय मत से विजयी हो गई. तब से हिंदी के प्रति तमिल भाषियों का विरोध जारी है. कालांतर में वह राजनीतिक रूप धारण कर गया जो अभी भी हावी है. सावधानीपूर्वक देश की अन्य प्रमुख भाषाओं को संविधान के अष्टम अनुच्छेद में एकत्रित कर उन्हें राज्य की राज्यभाषाएं कहा. यह भाषाएं अपने अपने भाषाई राज्य की कामकाजी भाषाएँ थीं या बनीं.

तमिल व हिंदी के बीच के टकराव के ही कारण शायद 1963 का राजभाषा अधिनियम जम्मू-कश्मीर के अलावा तमिलनाड़ु में भी प्रभावी नहीं है. अंग्रेजी जो पहले 15 साल तक अस्थायी रूप से हिंदी का साथ देने वाली थी अब करीब स्थायी हो गई है. इस अधिनियम के अनुसार, सन 1965 में जब हिंदी को पूर्ण रूपेण  राजभाषा बनाने का समय आया तो इस बाबत अध्यादेश जारी हो गए थे. लेकिन तमिलनाड़ु भड़क गया और भभकने लगा. हिंदी का विरोध जोरों से हुआ. शायद अग्निस्नान की घटनाएं भी हुई. फलस्वरूप हालातों को सँभालने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरूजी ने संसद में वक्तव्य दिया कि जब तक सारे राज्य हिंदी को राजभाषा स्वीकार नहीं लेते तब तक अंग्रेजी हिंदी का साथ देते रहेगी. अब भी अंग्रेजी राजभाषा के पद पर हिंदी के साथ आसीन है. हालातों के मद्देनजर ऐसा लगता है कि अब अंग्रेजी हटने वाली नहीं है.

तब से अब तक तमिल राजनेताओं ने हिंदी के प्रति द्वेष को खूब फैलाया और राजनीतिक रोटियाँ सेंकी. भाषायी राजनीति तो एक ठोस मुद्दा बन गया. पहले पहल पूरा दक्षिण भारत इस आग की चपेट में था धीरे धीरे यह तमिलनाड़ु तक सिमटा. अब देखा जा रहा है कि दक्षिण भारत के बाशिंदे जिन्हें उत्तर भारत में नौकरियों की तलाश करनी है या धंधा बढ़ाना है, वे तमिल नाडु के स्कूलों में हिंदी की पढ़ाई के लिए जोर दे रहे हैं. हो सकता है निकट भविष्य में कुछ मूल्यवान नतीजे उभरकर आएँ. वहाँ की सरकार अभी भी अपने रवैये पर अडिग है.  इसी वर्ष सितंबर माह में ही यू.जी.सी. के परिपत्र के विरोध में तमिलनाड़ु के मुख्यमंत्री ने वहाँ के दो विश्वविद्यालयों में हिंदी शिक्षण पर पाबंदी लगा दिया.

इधर हिंदी भाषी राष्ट्रभाषा व राजभाषा के बीच के फर्क से अनभिज्ञ दोनों शब्दों का एक ही तरह से प्रयोग करते है. राजभाषा तो अब पारिभाषित हो गई है किंतु राष्ट्रभाषा अब भी भ्रमित करने वाली है. इसका सही मंत्व्य किसी भी सरकारी परपत्र या विज्ञप्ति में नहीं मिलता. फिर भी हिंदी भाषी, हिंदी को सरे आम राष्ट्रभाषा कहते रहते हैं, जो अहिंदी भाषियों को गलत संदेश देता है. इससे अहिंदी भाषी समझते हैं कि उन पर हिंदी थोपी जा रही है. इससे उनका हिंदी के प्रति विरोध बढ़ता जाता है. हाल ही में मोदी सरकार ने एक अधिसूचना जारी की कि सरकारी पोर्टलों, ईमेल, ट्विटर इत्यादि पर सरकारी संदेश हिंदी में दें. मौका मिला, बस इस पर विरोध शुरु हो गया. बाद में सरकार द्वारा कहा गया - यह केवल प्रस्ताव है, कोई बाध्यता नहीं है. यदि सरकार कहती कि हिंदी में भी दें तो शायद इतना विरोध नहीं होता और हिंदी भाषी राज्य अपनी सूचनाएं हिंदी में दे रहे होते. बाद में जब हिंदी भाषी राज्य पूरी तरह इसे अपना चुके होते, तब अन्यों के बारे में सोचा जा सकता था. लेकिन नहीं हमें भी तो जल्दी है. चावल चढ़ाने के बाद पकने तक का समय तो देना ही पड़ेगा.

भारत जैसे वृहत् राष्ट्र में कोई बात थोपी नहीं जा सकती,.. जनता के  प्रतिशोध के आगे सरकारें गिरी हैं. अच्छा है कि सौहार्दपूर्ण वातावरण बनाया जाए. हिंदी को इतना संपन्न कर दिया जाए कि लोग जानकारियों के लिए हिंदी सीखना पसंद करें. न कि हिंदी सीखने पर दबाव बनाया जाए. आज जैसे लोग अंग्रेजी की तरफ आकर्षित होते हैं, वैसे ही वे हिंदी की तरफ आकर्षित हों - ऐसा कुछ किया जाए। मेरी नजर में इससे बढ़िया तरीका संभव नहीं है. इसमें तमिलों की रंजिश भी कमती जाएगी, या फिर हो सकता है इसी होड़ में वे तमिल को और भी संपन्न बनाने में योगदान करें.

जिस तरह से हिंदी भाषी हिंदी को राष्ट्रभाषा एवं राजभाषा के पदों पर एक साथ विठाना चाह रहे हैं, वैसे ही सोचा जाए तो हमारा राष्ट्रीय खेल हॉकी से बदलकर अब कबड्डी या क्रिकेट कर देना चाहिए. ना जाने कितने बुद्धिजीवी इस तर्क से सहमत होंगे.

साराँशतः विश्लेषण करने से जो बातें सामने आती हैं वे निम्न हैं-

1.   हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने में काँग्रेस ही शामिल थी .. इसलिए राजनीतिक विरोध हुआ.
2.  जिस तरह हिंदी को पदासीन करने की कोशिश हुई उससे थोपे जाने का भाव जगा.
3.  प्रयासरत हिंदी भाषियों को राष्ट्रभाषा व राजभाषा में अंदर समझ में नहीं आया.
4.  अहिंदी भाषियों को लगा कि हिंदी के पदासीन होने से हिंदी भाषियों को अवाँछित (नाजायज) लाभ होगा.
5.  हिंदी-एतर भाषियों को लगा कि हिंदी का पदासीन होना, अन्य भाषाओं को हिंदी से कम आँका जाना है.
6.  हिंदी राष्ट्रभाषा बनने से अहिंदी भाषियों को मजबूरन हिंदी सीखना पड़ेगा.
7.  अध्यक्षीय मत से हारने के कारण तमिलों ने (खासकर राजनीतिज्ञों ने) हिंदी का पुरजोर विरोध किया.
8.  अहिंदी भाषियों ने महसूस किया कि अंग्रेजी के बदले हिंदी सीखने से विदेशी नौकरी या शिक्षा पाना नामुमकिन हो जाएगा जबकि हिंदी के पक्षधरों ने अंग्रेजी के बदले हिंदी सीखने का तर्क कभी नहीं दिया.
9.  हिंदी सीखने की मजबूरी के कारण दक्षिणी लोगों ने और एक और भाषा सीखनी पड़ने के कारण उत्तरी भारतीयों ने – त्रिभाषा सूत्र को कोई तवज्जो नहीं दी. उसकी अकाल ही, एकाँत में मृत्यु हो गई.

एक बात अंततः समझ नही आया कि राजनीतिज्ञ आम जनता को हिंदी के विरोध में बहका गए, बरगला लिए. इससे शायद यह भी निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि आम जनता ने भी हिदी के प्रति कोई विशेष रुचि नहीं दिखाई. इसलिए उन्हें राजनीतिज्ञों के कहे पर चलने में कोई ऐतराज नहीं हुआ.

भाषा के आधार पर देश को राज्यों में विभाजित करना शायद पहली व सबसे बड़ी भूल थी. ऐसा न होने पर भाषाय़ी गुटबाजी होने से बच जाती. पूरे देश में विभिन्न जाति - भाषा के लोग बस जाते और एक अच्छा सम्मिश्रण तैयार होता. लेकिन अब बात बीत चुकी है, बिगड़ चुकी है.

सोचने के लिए एख मुद्दा यह भी हो सकता है कि

1.   संस्कृत को राष्ट्रीय प्रतीक के रूप में राष्ट्रभाषा घोषित कर दी जाए.
2.  हिंदी के साथ तमिल को भी देश की राजभाषा का स्थान दिया जाए और अंग्रेजी को परे कर दिया जाए.

यह केवल मेरी मानसिकता है, सोच है. क्योंकि मुझे लगता है कि इससे हालात पहले की अपेक्षा सुधरेंगे. ऐसी उम्मीद है.

आज तमिल व हिंदी के बीच का संघर्ष इंडिया - पाकिस्तान का मैच जैसा हो गया है. मैच किसी भी खेल का हो, दोनों पक्ष तन जाते हैं खेल के बारे में कोई नहीं सोचता कि कितना बढ़िया खेला गया है. सब कुछ दाँव पर लगा दिया जाता है जैसे हमारी अस्मिता का सवाल है.


एम रंगराज अयंगर.
16102014

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

Thanks for your comment. I will soon read and respond. Kindly bear with me.