मेरा आठवाँ प्रकाशन / MY Seventh PUBLICATIONS

मेरा आठवाँ प्रकाशन  / MY Seventh PUBLICATIONS
मेरे प्रकाशन / MY PUBLICATIONS. दाईं तरफ के चित्रों पर क्लिक करके पुस्तक ऑर्डर कर सकते हैंं।

शनिवार, 25 जनवरी 2014

आप का सफऱनामा


रिएक्शंस

लक्ष्मीरंगम

आप का सफरनामा

  Saturday January 25, 2014  

Gold: 6690

 
 
2

आप का सफऱनामा

भारत में भ्रष्टाचार के उन्मूलन के लिए किए जा रहे अन्ना हजारे के मूवमेंट अगेन्स्ट करप्शन” आंदोलन में लोकपाल बिल पास कराने के लिए किए आंदोलन के दौरान केजरीवाल इसका हिस्सा बने. आंदोलन से उभरे केजरीवाल को लगा कि राजनीति कीचड़ है और कीचड़ को साफ करने के लिए कीचड़ में उतरना जरूरी है. साथ ही उन्हें यह जरूर ज्ञात हुआ होगा कि कीचड़ में उतरने से कीचड़ तो लगेगा ही. भले बाद में धो लिया जाए या धुल जाए...या न धुले दाग रह जाएँ.... बाद की बात है.

इस बात पर अन्ना जी से चर्चा भी हुई होगी . तभी तो खबरचियों ने खबर छापी कि अन्ना अपने आँदोलन को आंदोलन ही रखना चाहते हैं और वे इसका किसी भी प्रकार से राजनीतिकरण नहीं करना चाहते. उन्होंने तो शायद यह भी कहा था कि मेरा मंच आंदोलन का मंच है और कोई राजनीतिज्ञ यहां न आएँ – उनके लिए यहाँ कोई जगह नहीं है. साफ  हो गया कि अन्ना को राजनीति नहीं करनी है...     तथास्वरूप, आंदोलन बँट गया और केजरीवाल अपना चेहरा राजनीति की तरफ कर गए.

अन्ना आँदोलन के जो साथी राजनीतिक अभियान से भ्रष्टाचार मिटाने की सोच रखते थे वे केजरीवाल के साथ हो लिए .. बाकियों ने अन्ना का साथ चालू रखा. बहुत अच्छा लगा कि सैद्धान्तिक असहमति को भी कितनी शांति रखकर निपटाया गया. अब जब 2014 के लोकसभा चुनाव आ रहे हैं. राजनीतिक अभिलाषा रखने वाले अन्ना के कुछ और साथी, अब फिर आंदोलन छोड़ने की कह गए. लेकिन अन्ना फिर भी अपनी जगह अटल हैं.

केजरीवाल ने अन्ना के आंदोलन से अलग होकर पहले पहल एक राजनीतिक दल का गठन किया – आम आदमी पार्टी .. इसे हिंदी भाषियों ने आ.आ.पा. कहा जबकि अंग्रेजी भाषियों ने  A.A.P. कहा. आम आदमी पार्टी का अंग्रेजी का यह छोटा सा रूप आप के रुप से जन साधारण को भा गया अब आम आदमी पार्टी आप के नाम से ही जानी जाती है. शुरु में तो कहा गया कि भ्रष्टाचार उन्मूलन के लिए यह अन्ना के आँदोलन का राजनीतिक पक्ष है और इसे अन्ना का पूरा समर्थन है. पर समयेतर पता लगा कि ऐसा कुछ नहीं है अन्ना की इससे कोई लेना देना नहीं है. और तो और केजरीवाल, अन्ना से अलग हो गए हैं क्योंकि केजरीवाल राजनीति में आ गए हैं. अन्ना राजनीति से किसी भी प्रकार का वास्ता नहीं रखना चाहते.

आप पार्टी के अस्तित्व में आने के बाद भी अरविंद के साथी लोकपाल बिल के आंदोलन में शामिल हुए थे. वहाँ मंच पर आंदोलन के किसी नेता के वक्तव्य के बीच कुछ बोल गए. तुरंत अन्ना ने आप के कार्यकर्ताओं को मंच छोड़ने के लिए कह दिया और कहा कि आप इस आंदोलन का हिस्सा नहीं हैं. आप आंदोलन से अलग हो जाएँ.

इधर आप अपने राजनीतिक उद्देश्य के लिए उथलपुथल करने लगीनवंबर 2013 के विधानसभा  चुनाव में दिल्ली की सभी सीटों से लड़ने की घोषणा कर दी गईसारे वॉलेंटियर (कार्यकर्ता) –दिल्ली में घर-घर जाकर आप के बारे अवगत कराते और आपसेजुड़ने के लिए कहते.  अपनी मंशा बताते और उनकी मंशा सुनतेआपको इस तरह कई मुद्दे मिले ,कई नए कार्यकर्ता मिलेकरीबन सभी मोहल्लों में आपकी सभाएँ  हुईँसारे मुद्दों को मिलाकर आप का मेनिफेस्टो बना जो ज्यादातर दिल्ली के नागरिकों की  समस्याओँ से भरा पड़ा था. आप के सारे के सारे कार्यकर्ता राजनीति में नए थे इसलिए उनके खुद के पास मेनिफेस्टो के नाम से कम ही मुद्दे थे..

अन्य पार्टियाँ तो आप को नौ-सिखिया कहकर नकार ही रही थी. नवागंतुक आप ने उस समय इसका विरोध करना भी उचित नहीं समझा. किसी ने कहा जमानत जब्त हो जाएगी. किसी ने कहा 4-5 से ज्यादा सीटें नहीं ही मिलेंगी. सब अपने आप में संतुष्ट थे. खुद आप को भी दिल्ली की 70 सीटों मे से 14-15 से ज्यादा सीटें मिलने की उम्मीद नहीं थी.

दिसंबर 2013 के दूसरे सप्ताह में जब चुनाव के नतीजे सामने आए तो सब के सब (आप के लोग भी) इसे अजूबे की तरह देखने लगे. समझ में नहीं आया कि ऐसा क्या कर दिया है कि आप को इतनी साख मिल रही है. नतीजतन पूरे 70 नतीजों मे भजपा 32 सीटों के साथ प्रथम स्थान पर रही, आप को 28 सीटें मिलीं और वह दूसरी बड़ी पार्टी बनकर उभरी. कांग्रेस को मात्र 8 साटें मिली और वह तीसरे स्थान पर काबिज हुई. एक स्थान सपा को और एक निर्दलीय को मिला.

अब आई मुसीबत. पहले पहल भाजपा ने सबसे बड़ी पार्टी होने की वजह से सरकार बनाना चाहा, पर मुमकिन न हो सका. कांग्रेस भाजपा के समर्थन दे नहीं सकती. आप ने समर्थन लेने – देने से मना कर दिया था और निर्दलीय एवं सपा के समर्थन से सरकारी आँकड़ा पूरा नहीं हो पा रहा था. इसलिए जब उप राज्यपाल ने भाजपा को आमंत्रित किया तो वे यह कहकर लौट आए कि जनता ने उन्हें बहुमत नहीं दिया है.

अब आई आप की बारी. अपने कथनानुसार आप न समर्थन लेना चाहती थी न देना. इसलिए उसका सरकार बनाना मुश्किल था. कांग्रेस तो सरकार बनाने की संभावना ही नहीं थी. अब शुरु हुई राजनीति... आप को घेरने की. आप बचता फिर रहा था और दूसरे घेरने में लगे थे. यदि सरकार नहीं बनती तो राष्ट्रपति  शासन लागू होता और छः महीनों के भीतर पुनर्मतदान होता . शायद इन्हें लोकसभा के साथ ही कराया जाता.

इसी आधार पर अन्य दोंनों पार्टियों ने आप को घेरने की पूरी कोशिश की और जनता का समर्थन भी हासिल किया. मुद्दे का एक रोचक मोड़ था - कांग्रेस द्वारा आप को बिन मांगे निशर्त समर्थन देना. आज के जमाने में प्रेमी का प्यार और बेटे पर ऐतबार भी निशर्त नहीं होता वहां कांग्रेस का निशर्त समर्थन पर विश्वास करना मुश्किल सा लग रहा था.  कांग्रेस के समर्थन से आप में सरकार बनाएं या नहीं का मुद्दा उभरा. सरकार बनाना मतलब प्रशासन चलाना. नौ-सिखियों ने इसकी उम्मीद भी नहीं की थी, सो घबराए. तरह - तरह से सरकार नहीं बनाने की चेष्टाएं करने लगे. कहा हम पुनर्निर्वाचन के लिए तैयार है. राजनीति में समर्थन का मतलब होता है – अपना - अपना उल्लू सीधा करना. शायद इस चाल में कांग्रेस व भाजपा मिल गए थे क्योंकि आप के अभ्युदय से दोनों को ही खतरा था.साथ में यह भी सोचा जा रहा था कि भाजपा को सरकार से दूर रखने का यह अच्छा मौका है. अगर फिर चुनाव हुए और आप इस तरह शो नहीं कर पाई, तो भाजपा पूर्ण बहुमत पा सकती है. ऐसा सोचकर भी कांग्रेस ने निशर्त समर्थन दिया हो, संभव है. तीसरा कि कांग्रेस के समर्थन से बनी सरकार कांग्रेसियों के मामले शायद न उजागर करे (उछाले), यह भी एक मंशा हो सकती है.

मीड़िया और जनता कहने लगीं – सरकार का पैसा बरबाद कर रहे हो. आप ने दोनों पार्टियों को मुखिया को पत्र लिखा कि इन 16-18 मुद्दों पर समर्थन की बात स्पष्ट करें. इन मुद्दों में खास तौर पर कहा गया कि पिछली सरकार के करतूतों को उजागर किया जाएगा. शायद इसी लिए कि कम से कम इससे डर कर समर्थन की बात धरी रह जाए. लेकिन कांग्रेस करीब सवा- डेढ सौ साल पुरानी पार्टी इन झांसों मे  कहां आती. समर्थन जारी रहा. कांग्रेस ने जवाब दिया, जिसके कई स्वरूप सामने आए... निशर्त समर्थन से शुरु होकर वहां तक गया, जहाँ कहा गया - जब तक जनता की भलाई हो रही है, हमारा समर्थन लागू है . इसलिए सरकार बना लो. भाजपा ने तो जवाब ही नहीं दिया. फिर भी, आप अपने मुद्दे को लेकर आम जनता के पास, फिर मोहल्लों और नुक्कड़ों तक गई. हल नहीं मिला . सरकार बनाना पड़ा. आप को डर था कि कांग्रेस किसी भी दिन सरकार गिरा सकती है इसलिए सँभल कर चलना जरूरी था. सरकार चलाने में पूर्णरूप से समर्थ नहीं होने के कारण ही शायद आप बार – बार कांग्रेस को ललकार रही थी कि गुस्से में ही कांग्रेस गलती करे और समर्थन वापस ले ले. लेकिन कांग्रेस बच कर चलती रही, समर्थन जारी रखती रही. कुछ कांग्रेसियों ने तो अपने कार्य़लय के आगे नारे भी लगाए कि समर्थन न दिया जाए  /  वापस लिया जाए. पर कांग्रेस आलाकमान ने अपनी राय नहीं बदली. शायद कांग्रेस को उम्मीद थी कि ये कुछ गलत - सलत करके अपनी सरकार का बेड़ा गर्क खुद ही कर लेंगे . पर ऐसा भी नहीं हुआ. निशर्त समर्थन ने एक अलग हवा फैला दी कि कांग्रेस और आप में गठबंधन है, जो छुपाया जा रहा है. सरकार गठित होते ही भाजपा उमड़ पड़ी कहा – जिस कांग्रेस के भ्रष्टाचार को उजागर करने के लिए कमर कस ली थी उन्हीं से समर्थन लिया. इसका मतलब हुआ कि यह सरकार भी भ्रष्टाचार से लिप्त रहेगी. दूसरा यह कि जिस केजरीवील ने अपने बच्चों की कसम खाकर कहा – न समर्थन लेंगे - न ही समर्थन देंगे, उनने समर्थन लिया भी तो एक भ्रष्टाचारी पार्टी से. इस पार्टी से क्या उम्मीद की जाए – इनका क्या भरोसा कियाजाए. हालातों के बदलाव को किसी  ने समझने की कोशिश नहीं की. राजनीति में अक्सर ऐसा ही होता है.

सरकार बनने के बाद पहली बैठक के दिन ही मजाक बन गया. विधान सभा में आप का कोई विधायक कभी गया ही नहीं था. किसे कहां जाना है किधर बैठना है कुछ भी पता न था. आप के सारे नेता और कार्य़कर्ता टोपी पहने थे. मीडिया भी यह जान नहीं पा रही थी कि कौन नेता है कौन कार्य़कर्ता है. कौन से व्यक्ति का क्या नाम है – इत्यादि. मीडिया ने इसे उछाल कर खूब आनंद लिया.

सरकार बनते ही आप पर अपने वादा निभाने का दबाव आ गया. अफरा तफरी में आप ने सही मीटर वालों को 667 (700 ली. पानी प्रतिदिन का वादा था) लीटर प्रतिदिन पानी मुफ्त देने का आदेश दिया. साथ में एक शर्त भी रख दी कि यदि एक भी लीटर पानी ज्यादा खर्चा तो पूरे पानी का बिल भऱना पड़ेगा. अब तक तो पहला बिल आ ही गया होगा .. लेकिन कहीं से कोई आवाज नहीं आई कि हुआ क्या. कितनों ने ज्यादा खर्च कर पूरा बिल भरा या सारा पानी मुफ्त ही प्रयोग हुआ. इधर केंद्र पानी की दरें बढ़ाने का ऐलान कर चुकी हैं. लेकिन इसके अलावा – जिनके मीटर खराब है, जिनके मीटर नहीं हैं या फिर जिस इलाके में पाइपलाइन ही नहीं है – के बारे में कुछ नहीं कहा. विपक्षों ने खूब चीखा चिल्लाया – लेकिन न जानें क्यों अपने आप चुप हो गए.

फिर आया बिजली का वादा – दरें आधी करने की. बिजली उत्पादकों ने असंतोष जताया और कहा मुश्किलें बढ़ेंगी. सरकार ने उन विद्युत उत्पादकों का ऑडिट का आदेश दे डाला. लेकिन अब तक ऑडिट के शुरु होने की खबर कहीं से नहीं आई.  बिजली के मूल दरों को आधा कर दिया गया लेकिन किसी ने आवाज नहीं उठाई कि मूल दरों को आधा करने से कीमत आधी नहीं हो जाती क्योंकि बिल में मूल दरों के अलावा अन्य दर भी होते हैं जो सलामत हैं. फिर बात दब सी गई. इससे ऐसा आभास होने लगा कि कहीं न कहीं पर्दे के पीछे भी कुछ हो रहा है.

आप यह जान ले कि सारे मुद्दे एक दिन में हल नहीं हो सकेंगे. और जनता भी आपसे ऐसी उम्मीद नहीं करती. हाँ कांग्रेस और भाजपा आपको भड़काने का काम जरूर करेंगी ताकि आप जल्दबाजी में की गफलत कर बैठें और उन्हें घेरने का मौका मिले. शांति से अपना काम करते रहें हड़बड़ी ना करें. काम हो रहा है इसका आभास जनता को कराते चलें. मुख्य मुद्दों की तरफ ध्यान केंद्रित करें बाकी सामान्य काम तो लोकसभा चुनाव के बाद भी हो सकते हैं.

इन दो मुद्दों पर आदेशों के बाद आप के कार्यकर्ताओं का आत्मविश्वास हद से ज्यादा बढ़ गया. यों कहिए कि आत्मविश्वास अतिविश्वास (ओवरकॉन्फिडेंस) में बदल गया. नेताओं की भाषा में फर्क आ गया. रूखे, सूखे और दंश भरी भाषा, किसी पर भी खरी टिप्पणी से उपजी निराशा जनता का रुख मोड़ने लगी. विपक्ष भी कहने लगा, मीडिया भी कहने लगीं, लेकिन आप के नेताओं पर असर होता नहीं दिखा. और तो और केजरीवाल की भाषा भी बिगड़ गई. उनकी भाषा नेता, मंत्री मुख्यमंत्री की न होकर आम आदमी की ही भाषा रह गई. आम आदमी में भी भाषा का आदर होता है .. कहीं भी तू-तू, मैं मैं नहीं किया जाता. मेरी समझ में, अपने पद से हटकर भी आपकी भाषा में संस्कृति का आभाव नहीं होना चाहिए.

बहुत दुख हो रहा था पर समझाएँ कैसे. वक्तव्य के नमूने के तौर पर बताया जा सकता है – पुलिस पैसे खाती है. पुलिस - चोर में मिली भगत है. पुलिस पैसे लेकर काम करती है. गृह मंत्रालय से थाना अधिकारी के तबादले की पर्चियाँ आती थी  यानि पुलिस के पैसे गृह मंत्री तक पहुँचते हैं. शिंदे की भी नींद खराब करूंगा      (क्योंकि मुझे सड़क पर सोना पडा है).  हाँ मैं अराजक हूं. ऐसे वक्तव्य राजनीतिज्ञ, नेताओं और मुख्यमंत्रियों से उम्मीद नहीं की जा सकतीं. भाजपा नेताओं पर थूकने की बात पर माफी मांग ली गई लेकिन कहना अपने आप में कुसंस्कृति थी.

इसी बीच खिड़की एक्सटेंशन में सामाजिक अनियमितताओँ की खबर आई और कानून मंत्री खुद वहां पहुंचे. रात को तमाशा सा हुआ और सुबह आप और दिल्ली की पुलिस वाक्-विवाद में भिड़ गई. कौन सही कौन गलत, यह तो बाहर नहीं आया पर आरोप-प्रत्यारोप खूब हुए. कानून मंत्री को हटाने तक की बात की गई. दिल्ली के एक न्यायालय ने कानून मंत्री पर केस दर्ज करने की सलाह दी और केस दर्ज भी हुए. आज इसमें कहानी कुछ और ही आ रही है कि कानून मंत्री ने अपने साथियों के साथ लेकर लाठियाँ भी चलाईँ . सच क्या है कैसे उजागर होगा --- भगवान ही जाने. दो चार वीडियों भी मँडरा रहे है इंटरनेट पर.

उधर राखी बिड़लान के अपनी तरह के किस्से हैं. मोहल्ले में सभा के दौरान उनके कार का शीशा फूट गया. पुलिस कंप्लेंट हो गई कि किसी अराजक तत्व ने पत्थर मार कर शीशा फोड़ दिया है. मिनिस्टर के कार का शीशा है भई. उधर खबर आई कि शीशा पत्थर से नहीं क्रिकेट की गेंद लगने से टूटा है और जिससे टूटा है उसके पिता ने राखी से माफी मांग ली है. बात फिर भी आगे बढ़ी तो केजरीवाल ग्रूप ने राखी से मामला वापस लेने को कहा. फिर क्या हुआ पता नहीं सब शांत है. शायद पुलिस केस (एफ आई आर) - करने का उद्देश्य इन्शूरेंस से पैसे लेने का रहा होगा. हाय तौबा मचा दिया. फिर एक मसले में एक महिला को जिंदा जलाने के बारे सूचना पर राखी जी वहां गई. और पुलिस से झंझट हो गया. कहा गया कि उस महिला के घर आप का एक विधायक किराएदार था/है .. इसलिए राखी जी इसमें ज्यादा दिलचस्पी ले रहीं हैं. समझ नहीं आया कि किराएदार होने न होने से इसमें क्या फर्क पड़ता है. लोगों को इंतजार करना चाहिए था कि किसी गैर किराएदार की ऐसी घटना पर यदि राखी इस तरह काम नहीं करती तो उनके पास खासा मुद्दा होता पर सब्र किसे है. लोकसभा चुनाव के पहले ही हर काम हो जाना है. ताकि चुनाव में इसका फायदा हो सके.

इसमें एक बात खुलकर सामने आई कि दिल्ली पुलिस दिल्ली सरकार के आधीन होन. दिल्ली की पुलिस दिल्ली के आधीन न हो तो किसके आधीन हो. यह दिल्ली पुलिस है. केंद्र सरकार पता नहीं कब से इसे अपने नियंत्रण में रख रही थी. शीला दीक्षित सरकार ने ङी कई बार केंद्र से इस बारे में कहा किंतु केंद्र दिल्ली पुलिस दिल्ली को सौंपने के लिए तैयार नहीं थी. अब केजरावाल ने यह मुद्दा उठाया. शायद केंद्र से बात भी हुई तथा पत्र भी लिखे गए. लेकिन समय दिए बिना 48 घंटों के अंदर   गृह मंत्रालय के समेमुख धरना देने को तत्पर हो गए. पुलिस ने उन्हेमं रेल भवन पर रोका तो वे वहीं धरने पर बैठ गए. इस घटना की चहुँ ओर से टिप्पणी हुई. मुद्दा था - पहला कि धारा 144 के क्षेत्र में धरना , वह भी मुख्यमंत्री द्वारा... जायज या नाजायज.. दूसरा 26 जनवरी गणतंत्रदिवस सामने - धरना 20 तारीख से शुरु हुआ था. केंद्र  सरकार सकपका गई. क्या करें और क्या न करें. सवाल आता है कि क्या संवैधानिक पद पर आ जाने से उसके अधिकार छिन जाते हैं कि वह धरना नहीं दे सकता या फिर संदिधानानुसार सारे विकल्प खत्म करने के बाद ही वह धरना दे सकता है.

दूसरा प्रश्न यह उठता है कि दिल्ली पुलिस दिल्ली के आधीन क्यों न हो. पुलिस और कानून व्यवस्ता की जिम्मेदारी एक के ही पास होनी चाहिए. या दिल्ली की सरकार केो पुलिस दे दी जाए या फिर केंद्र सरकार दिल्ली के कानून व्यवस्था की जिम्मेदारी भी ले. यह तो ऐसा हुआ कि कपड़े धोने का अधिकार तुम्हारा और पहनने का मेरा. खेत में बोने, बुवाई, गुड़ाई और पानी देने का अधिकार तुम्हारा और फसल काटने का अधिकार मेरा. गाय को खिलाना पिलाना नहलाने का अधिकार तुम्हारा और दूध - गोबर पर अधिकार मेरा. यह कौन सा न्याय है. सरकार को इस पर विशेष विचार करना होगा. अब रही बात मुख्य मंत्री के धरने की तो सर्वोच्च न्यायालय इस पर विचार करने लगा है. जो निर्णय आएगा वह एक कानून सा उभरेगा.

आप ने सदस्यता खुली छोड़ दी है सदस्य बनाए जा रहे हैं लेकिन उनमें कितने खुद भ्रष्टाचारी हैं, इनका कोई संज्ञान लेता नहीं दीखता. इसके लिए कोई तरीका होना चाहिए अन्यथा आप की खासियत न रह कर यह भी आम हो जाएगी. इतना कुछ होने के बाद भारती जी को संयम बरतने हेतु कहा गया है. मैं तो आप के सारे कार्यकर्ताओं से विनती करना चाहूंगा कि बोलचाल में अत्यधिक संयम बरतें. इससे आप की छबि बिगड़ी है और बिगड़ रही है. उसे सँभालें और बचाए रखें. आप खास हैं तो खास रहें, आम न बन जाएं.

भाषा के बारे आप को संयम बरतना बहुत ही जरूरी है अन्यथा 14 की उम्मीद से जहां 28 मिले वे लौटकर 4 या 7 भी हो सकते हैं. जनता का मन बदलते समय नहीं लगता. अब तो आप को दिल्ली नहीं सारे देश में चुनाव लड़ना है. ज्यादा मेहनत लगेगी. लाखों करोड़ों सदस्यों के कारण समस्याएँ भी बढ़ेंगी. यदि खुद ही समस्या बन गए तो देश की समस्याएँ कैसे और किससे सँभलेंगी. ऐसा न हो जाए कि लोगों के भरोसे का बाँध सब्र तोड़कर निकल जाए . उसे लोकसभा चुनाव तक फिर से बाँधना तो नामुमकिन ही है. लहर का फायदा नहीं ले सके, तो फिर लहर बनाना पड़ेगा जो इतना आसान नहीं है. 1977 को बाद आज 2014 में (37 साल बाद) भाजपा की लहर देखने को मिली. आप के असर से कुछ कम हो गई है यदि आप हट जाए, तो शायद भाजपा बहुमत पा जाए. भाजपा और आप दोनों को मुख्य मत शहरों से ही आने वाले हैं. गावों में अभी भी कांग्रेस का जोर है . देखे ये आप और भाजपा की लहरें गाँवों में कितना काम कर पाती हैं.

आप का लोकसभा चुनाव लड़ना लगभग तय है. नेता कि निर्णय सोच विचार कर करें. केजरीवाल को सी एम से पी एम बनाने की हालातों में उचित सी एम का चुनाव जरूरी है - अन्यथा आधी छोड़ पूरी को दावे, आधी रहे न पूरी पावे.

अंत में फिर से कहना चाहूंगा कि आप के कार्यकर्ता , नेता व मंत्री अपनी भाषा पर पूर्ण संयम बरतें. कार्य विधि संवैधानिक रखें. बात करें , पत्र लिखें और यदि इस पर भी बात न बने तो आगे की कार्रवाई जन समर्थन के साथ करें. अन्यथा भले इस चुनाव में आप कोई हस्ती बनकर उभरें, पर अगले चुनाव में आम बनकर रह जाएगे.

एम.आर.अयंगर.

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

Thanks for your comment. I will soon read and respond. Kindly bear with me.