मेरे अपने
हाथ लिए राखी, लाँघ चली तुम,
जिस लाश को,
जिस कलाई को थामने,
थी भाग रही तुम,
वह मेरी लाश थी, और
वो कलाई मेरी.
राखी के धागों से बाँध दिया श्वास,
जान ही मैं दे सका, राखी की सौगात,
यह भी कोई तपस्या?
कि घुट घुट मरो,
अपनी ही जिंदगी, जीते हुए डरो.
भेद बिना, ऐसा तो होता नहीं,
बिना खुशी-गम के कोई रोता नहीं.
कौन सा ये भेद क्यों छुपाती हो तुम?
अपनों को ऐसे
क्यों रुलाती हो तुम?
खुश रहो तुम,
सभी हैं चाहते यहाँ,
तेरे कदमों में
रख दें हम सारा जहाँ,
पर मजबूर हैं –
तुमने ही नकारा हमें,
फिर किस उम्मीद
से हम पुकारा करें ?
मन को हल्का करो, आँखें रोशन करो,
रोशनी में जिओ,
रोशनी में रहो,
अंधेरों में जीना
तुम छोड़ दो,
अंधेरों में रहना
तुम छोड़ दो.
भेद दिल में लिए
क्यों घुटी जा रही हो?
ऐसी दिल की घुटन को
तुम तोड़ दो,
काश !!! अपनों पर तुम तुछ भरोसा करो, या
उन्हें अपना कहना
ही तुम छोड़ दो.
एम.आर.अयंगर.
behad samvednshil prastuti मन को हल्का करो, आँखें रोशन करो,रोशनी में जिओ, रोशनी में रहो,
जवाब देंहटाएंमर्म स्पर्शी ,बहुत खूब
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर अभिव्यक्ति .. आपकी इस रचना के लिंक की प्रविष्टी सोमवार (10.06.2013) को ब्लॉग प्रसारण पर किया जायेगा. कृपया पधारें .
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर.
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंसभी टिप्पणीकारों को प्रशंसा एवं प्रोत्साहित करने वाली टिप्पणियों के लिए धन्यवाद एवं
आभार.
अयंगर.