बाबूजी का घरौंदा.
रोड़ा-रोड़ा जोड़-जोड़ कर
बना घरौंदा बाबूजी का.
ना !
ना ! बाबूजी के बाबूजी
का.!.....
बाबू जी की यहीं पैदाईश,
जीवन भर थी यहीं रिहाईश,
उनकी पूरी यहीं परवरिश,
यही घरौंदा उनका घर है,
घर से उनको प्यार हो गया.
दीवारों से प्यार हो गया.
लेकिन क्यों कर ?
तुमने इसका ईंट निकाला,
तुम कहते हो एक ईंट से..
क्या उनका घर ढह जाएगा ?
लेकिन निकले एक ईंट से,
यह कमजोर हुआ जाएगा.
घर से सबको जो लगाव था ,
वह कमजोर हुआ जाएगा.
गर भैया छोटे – बड़े, चचेरे,
किसी - किसी दिन यही समझकर,
एक-एक यदि ले जाएंगे,
धीरे- धीरे निकली ईंटें,
घर को ही कमजोर करेंगी.
अब बोलो तुम,
ऐसे घर पर ..
क्या होगा तूफां आएगा ?
या घमासान बारिश हो जाए,
कह सकते हो नहीं ढहेगा ?
बाबूजी का घर ढहता है,
और पड़े हैं बड़े मजे में ?
कैसे होगा ?
बाबूजी अब क्या कर पाएँ,
घर भी है कमजोर, व दिल भी,
ढहना अब या ढहना तब है,
गर ईंटा रोड़ा नहीं जुड़ेगा,
तो, तब का काम हुआ जाएगा.
आओ जोडें ईंटा रोड़ा,
बाबूजी का दिल रख लें हम,
उनको घर से प्यार हो गया,
दीवारों से प्यार हो गया,
रहे घरौंदा इसी तरह से,
कम से कम इतना कर लें हम.
अयंगर.
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