मेरा आठवाँ प्रकाशन / MY Seventh PUBLICATIONS

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मंगलवार, 21 अगस्त 2012


दशहरा

रावण - लंकापति नरेश,
अब क्या रह गया है शेष ?
त्रिलोकी ब्राह्मण, त्रिकाल पंडित,
अतुलनीय शिवोपासक,
क्या सूझी तुझको ?
क्यों लाया परनारी ?
कहलाया अत्याचारी, व्यभिचारी.

रामचंद्र जी के लंकाक्रमण हेतु,
सागर पुल के शिवोपासना में,
प्रसंग पाकर भी, ब्राह्मणत्व स्वीकारा,
अपना सब कुछ वारा !!!

राजत्व पर ब्राह्मणत्व ने विजय पाई,
यह कितनी दुखदायी !!!
अपना नाश विनाश जानकर भी,
तुम बने धर्म के अनुयायी  !!!

यह धर्म तुम्हारा कहाँ गया?
जब सीता जी का हरण किया.
शूर्पणखा के नाक कान तो,
लक्ष्मण ने काटे थे,
क्यों नहीं लखन को ललकारा ?
क्या यही था पुरुषार्थ तुम्हारा ?

शायद तुमको ज्ञान प्राप्त था,
दूरदृष्टि में मान प्राप्त था,
त्रिसंहार विष्णु के हाथों,
श्राप तुम्हारा तब समाप्त था.


कंस-शिशुपाल, कृष्ण सें संहारे गए,
हिरण्याक्ष-हिरण्यकश्यप, नृसिंह से संहारे गए,
अब रावण–कुंभकर्ण की बारी थी,
सो राम से संहारे जाने की तैयारी थी,
वाह जगत के ज्ञाता,
जनम जनम के ज्ञाता,
अपना भविष्य संवारने हेतु,
वर्तमान दाँव पर लगा दिया ?

श्राप मुक्त होकर तुम फिर,
देव लोक पा जाओगे,
इस धरती पर क्या बीते है,
इससे क्यों पछताओगे.?

इसालिए इस लोक पर अपना ,
छाप राक्षसी छोड़ गए,
पर भूल गए तुम भारतीय को,
कब माफ करेगी यह तुमको?
स्मरण करोगे इस कलंक को,
सहन करोगे युग युग को.

अब भी भारत की जनता के,
है धिक्कार भरा मन में,
दसों सिरों संग बना के पुतले,
करती खाक दशहरा में.

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