मेरा आठवाँ प्रकाशन / MY Seventh PUBLICATIONS

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मंगलवार, 21 अगस्त 2012

चाँद पाना चाहता हूँ.

चाँद पाना चाहता हूँ...

मैं चला अब चाँद लाने...
पांव धरती पर टिकाकर,
कद नहीं चाहूं बढ़ाना,
छोड़ना धरती न चाहूं,
किस तरह संभव करूं मैं,
सोचकर मन मारता हूं
चाँद लाना चाहता हूँ.

पूरबी संस्कृति को छोड़ना संभव नहीं,
बालपन से वृद्धता तक मैं तो बस इसमें पला हूँ,
सभ्यता पश्चिम में मैं,
जीवन के मजे को देखता हूँ,
चाहता दोनों सँजोना,
नाव दोनों पर सवारी  !!!
सोचकर मन मारता हूँ,
मैं तो खुद से हारता हूँ.

बैठकर अपने नगर में,
पेरिसों के ख्वाब देखूं,
सोचता हूँ सोच भर से,
मैं वहां तक पहुँच जाऊं
अपने नगर की मस्तियों से,
वंचित नहीं होना है मुझको,
पर चाहिए जग के मजे भी,
मैं नहीं चाहूँ सफर की यातनाएं,
क्यों सफर के जोखिम उठाऊं,
सफर में क्या क्या न गुजरे,
सोचकर मन मारता हूँ,

कुछ न खोना चाहकर मैं,
हर चीज पाना चाहता हूँ,
खुद मैं अपनी मूर्खता को,
सोचकर मन मारता हूँ,

पर चाँद पाना चाहता हूँ.

4 टिप्‍पणियां:

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