मेरा आठवाँ प्रकाशन / MY Seventh PUBLICATIONS

मेरा आठवाँ प्रकाशन  / MY Seventh PUBLICATIONS
मेरे प्रकाशन / MY PUBLICATIONS. दाईं तरफ के चित्रों पर क्लिक करके पुस्तक ऑर्डर कर सकते हैंं।

रविवार, 12 जून 2011

जान का ऑफर

जान का ऑफर
रंजन और राधिका एक दूजे से बेहद प्यार करते थे. राधिका कर्नल की बेटी थी. इसलिए उसको समाज में खुले विचरने की आदत थी. समय ऐशो आराम से कटता था. उसके लिए पुरुषों से दोस्ती आम बात थी. वैसे डिफेंस कालोनियों में शायद इस तरह के प्रतिबंध नहीं हुआ करते.
प्यार में दोनों दिनों दिन घुलते गए. उनका प्यार परवान चढ़ने लगा. प्यार की सरहदों के पार पहले कभी कभी और फिर अक्सर वे एकांत में आलिंगन करते और जीने मरने की कसमें खाते रहते.
रंजन एक भावुक इंसान था. प्यार के बहाव में अक्सर वह जीने मरने की कसमें खाता था. शायद ऐसी कसमें राधिका के लिए कोई ज्यादा मायने नहीं रखती थी. लेकिन फिर भी वो उन सबको सुनती और चुप कर जाती. कभी कभी तो रंजन यहां तक कह जाता था – राधिका तुम यह क्या कह रही हो – यह तो कुछ नहीं है कभी जान माँग कर तो देखो – मैं तुम्हारे लिए जान भी दे सकता हूँ.
प्यार के दो पंछी खुले आसमान में विचरण करते थे. कोई सीमाएं न थीं. उनके प्यार में दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की होने लगी. पर दुनियां हर किसी को आसान जिंदगी नहीं देती. यही तो किस्मत के खेल हैं.
इसी मुहल्ले में एक नए ब्रिगेडियर का तबादला हुआ. जब वे आए तो, साथ आया उनका जवान बेटा संदीप. बे-लगाम राधिका का उससे मिलना स्वाभाविक था, सो मुलाकात हुई.
इसे दुर्भाग्य कहें या सौभाग्य राधिका और संदीप की आंखे चार हो गईं. अंदर ही अंदर वे एक दूजे को चाहने लगे. दोनों जवान, डिफेंस परिवार, जहाँ रोक टोक कम.. फिर क्या था दोंनों के साथ साथ परिवार वालों के भी रिश्तों में चाशनी भरने लगी.
उधर राधिका रंजन को भूलने की सोच भी नहीं रही थी. उसे शायद इस बात का एहसास भी नहीं था कि दो नावों में पैर रखना कितना खतरनाक है. राधिका ने संदीप को भी इसकी खबर नहीं होने दी. वह भीतर ही भीतर रंजन और संदीप की, हर पहलू में तुलना करती और बेहतर को पाना चाहती थी.
संदीप से बढ़ते रिश्तों के द्वारा उसे तुलना करने के लिए नए आयाम मिलते और दिन प्रतिदिन उसका निर्णय एक और कदम आगे बढ़ता.
जानकारी की आड़ में रंजन, अब भी राधिका को उतना ही चाहता था जितना पहले चाहा करता था. उसके "जान हाजिर है" के संवाद आज भी जारी थे.
धीरे धीरे राधिका को संदीप, रंजन से बेहतर लगने लगा. अपने आपको सँभालते हुए उसने रंजन से यह बात कह देनी चाही. पर प्यार में कसमें खाना जितना आसान होता है..... वियोग की बात करना उतना आसान नहीं होता .. सो राधिका अक्सर सोचती पर कह नहीं पाती ..उसे समझ नहीं आ रहा था कि कहे तो कैसे कहे. रंजन की इस पर क्या प्रतिक्रिया होगी. माहौल.. को वह कैसे सँभाल पाएगी. इसी कशमकश में दिन बीतते गए. राधिका धीरे धीरे परेशान सी होने लगी कि रंजन से छुटकारा कैसे पाया जाए. अब वह रंजन से मुक्ति पाने के लिए बेचैन थी.
राधिका चाहती थी कि मौका पाते ही वह रंजन से सारी बातें कह दे और दोनों खुशी खुशी अलविदा कह सकें. शायद राधिका को इसका एहसास नहीं था कि यह इतना आसान नहीं है, जितना लग रहा था. पर समय माहौल और रंजन से किए गए अनेक तरह के वादे आड़े आ रहे थे और वह रंजन से कह नहीं पा रही थी. अब वह लगभग तड़पन का स्थिति तक पहुंच चुकी थी.
इसी कसमकश को दौरान एक दिन रंजन राधिका के घर आया. घर में राधिका अकेली थी. फिर वही प्यार का बातें – दौर चलता रहा और आदतन रंजन कहता रहा, तुम कभी माँग कर तो देखो- मैं तुम्हारे लिए जान भी दे सकता हूँ. अचानक राधिका का माथा ठनका. न जाने क्या सोच कर झटके से उठी और घर के भीतर चली गई. दो मिनट में जब लौटी तो उसके हाथ में पापा का रिवॉल्वर था. कमरे में आते ही उसने रंजन के सीने में गोलियाँ उतार दी – और बोल पड़ी -  रंजन तुम कहा करते थे ना.. मैं तुम्हारे लिए जान भी दे सकता हूँ.. लो आज मैंने अपना अधिकार ले लिया. रंजन, अपना टूटती साँसो को समेटे .. कह पड़ा.. राधिका मैंनें तो जान देने की इच्छा जताई थी. तुम्हे जान  देने का ऑफर किया था, जान  लेने का अधिकार तो नहीं दिया था. मेरे जान की जरूरत थी तो माँग कर देखती. यह तुमने क्या किया. मेरे खून का इल्जाम अपने सर ले लिया.
राधिका जैसे सपने से जागी .. यह मैंने क्या कर दिया .. लेकिन अब वक्त बीत चुका था और रंजन की साँसें थम चुकी थी.

एम.आर.अयंगर.
09907996560.

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

Thanks for your comment. I will soon read and respond. Kindly bear with me.