मेरा आठवाँ प्रकाशन / MY Seventh PUBLICATIONS

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बुधवार, 7 नवंबर 2018

अतिथि अपने घर के




अतिथि अपने घर के

बुजुर्ग अम्मा और बाबूजी साथ हैं, 
उन्हे सेवा की जरूरत है,
घर में एक कमरा उनके लिए ही है 
और दूसरा हमारे पास.

दो कमरों के अपने मकान में
बिटिया को सहीं ढंग से पढ़ने की जगह नहीं थी,
इसलिए अपने दो कमरों के मकान को किराए पर देकर,
एक छोटे तीसरे कमरे वाला मकान किराए पर लिया था.

बड़े भैया हैं, 
पद-पैसा–प्रतिष्ठा सब कुछ है,
शांत स्वभाव के भी हैं, पर
भाभी को इन बुजुर्गों का साथ सुहाता नहीं है.
और इनको भी वहाँ संतुष्टि नहीं है.
आते हैं, मिलते हैं, चले जाते हैं,
साथ रह नहीं पाते, 
न ही रख पाते हैं.

भैया घर में कुछ कह नहीं पाते,
और ये, सुपुत्र हैं, अनुज हैं – 
कहना नहीं चाहते,
बात साफ है, 
अंजामे तौर पर मैं पिसती हूँ.

कहीं बाहर भी जाना हो तो, 
बुजुर्गों की चिंता सताती है,
इसलिए बाहर जाकर भी, 
बाहर का पूरा आनंद नही लिया जाता.

अभी दोंनों की तबीयत जरा नासाज है,
ननदजी आई हैं देखने, 
ननदोई रिटायर्ड हैं,
साथ आए हैं, 
समय का तो कोई आभाव ही नहीं है.


बड़ी हैं, 
तो घर पर अधिकार है, 
वे चाहती तो हैं, कि कुछ करूँ,
पर इससे पहले उनके लिए घर में इंतजामात भी तो करने होंगे,

मतलब, उनको या हमको कमरा नहीं मिलेगा,
मतलब, सबके बाद सोना और सबसे पहले उठना,
दिन में सोना  ?...
नौकरी जो करनी है..


कमरा तो गया ही, 
किचन भी हाईजेक हो जाएगा,
अब नाश्ता मे क्या होगा, 
लंच पैक में क्या और डिनर ..
मैं तय नहीं करती .

खैर हम तो फिर भी आते जाते, 
बाहर कुछ खा पी लेते हैं,
बेचारी बेटी पर तरस आता है, 
किसी तरह किसी बहाने 
नानी के पास भेज देती हूँ,
कभी कभार सोने कि लिए मैं भी चली जाती हूँ,

पर ये बेचारे कहीं आ-जा नहीं सकते,
घर की पूरी जिम्मेदारी जो है.
भाभी की जिम्मेदारी भले ही न हो,
ननद जी का तो हक बनता है, 
सेवा करने का,

सब झेलना पड़ता है, मजबूरन
सब सहना पड़ता है, 
सब सह रहे हैं
अपने ही घर में अतिथि बनकर रहना पड़ता है
रह रहे हैं.....वो भी 
चेहरे पर बिना किसी शिकन के...

......

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