मेरा आठवाँ प्रकाशन / MY Seventh PUBLICATIONS

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मंगलवार, 17 मई 2016

नन्नी दीदी.

नन्नी दीदी.
दीदी तुम चली गई,
पता ही नही चलने दिया,

जब मैं नागपूर से लौटा,
तब बात किया था आँटी से,
कि बहुत दिन हुए,
उनकी और आपकी खैर-खबर लूँ,
पर सुना तो कान फट ही गए,
बोली कहाँ है नन्नी,
वो तो चली गई,

तब पूछा तो बताया चार दिन हो गए,
फिर कहा, मैंने मना किया था
तुम्हारे घर वालों को कि
तुम्हें न बताएं,
अभी तो स्टेंट लगवाकर आए हो,
पता नहीं यह खबर क्या गुल खिला देती.

मैंने अपनी बहना को यह खबर सुनाई,
जवाब मिला मुझे पता है, खबर आई थी ,
और तुम्हें बताने में संकोच था.
लेकिन उसका यह संकोच,
मेरे लिए तो जीवन भर के
पश्चाताप का विषय बन गया.

बहुत बाद पता चला,
तुम भी उसी अस्पताल गई थी
जहाँ से मैं हो कर आया था.
उतने ही दिन रहकर आई,
जितने मैं रहकर आया था,

मुझे दुबारा बुलाया गया था,
मैं फिर जाकर आया,
तुम्हें तो बुलाया नहीं गया था,
पर पुनः जाना पड़ा,

काश ! मैं यह सब जान पाता!

तुम फिर जो गई तो बस गई,
वहाँ ,से वहीँ चली गई.
कहाँ यह तो किसी को पता नहीं,
केवल पार्थिव शरीर यहाँ सबके पास छोड़ गई.

सबने सबको खबर दी ,
मुझे छोड़कर,
सोचकर कि दिल कच्चा है,
आज जब पता लगा कि
तुम पहले ही चली गई तो क्या
कम तकलीफ हुई,
कुछ होना था तो हो गया होता.
तुम्हारे साथ बिताए वो पल आखरी ही हो गए
किसको पता था ऐसा भी हो सकता है.

खबर पड़ते ही आँखों में बचपन तैर गया.
सन 1965 से 75 तक
जब हर ग्रीष्म में नानी के घर के रास्ते में,
तुम्हारे घर होकर जाते थे,

और वो लँगड़ी चिड़िया
जिसका हम बच्चों को इंतजार रहता था.
वो लँगड़ी गौरैया,

सही समय न जाने कहाँ से फुर्र करती आ जाती
और एस्बेस्टोस के शीट व
उसे बाँधने वाले एंगल के बीच
खोह में अपनी जगह बैठकर
तुमको ताकती रहती.

आँटी तुम्हारे थाल में भात परोसती,
तो तुम कुछ दाने थाल के बाहर
कुछ दूरी पर रख देती,

बस फिर क्या था,

लँगड़ी गौरैया फुर्र से उतरती और
उन चावल के जदानों को चुगती,
निर्भय चुगने के बाद, फिर वह
अपनी जगह जाकर बैठ जाती,

तब तुम अपना भोजन शुरु करती,
और तभी वह गौरैया उड़कर
बाहर कहीं निकल जाती.
फिर अगले दिन आने के लिए.

पता नहीं कितने बरस,
गौरैया और तुम्हारा साथ था.
हमारे लिए वो नन्नी का लँगड़ी गौरैया थी.
जब तुम जब हैदराबाद आ गई तो
तभी शायद गौरैया वहीं छूट गई.

फिर भी जब भी तुमसे मुलाकात हुई ,
तुम्हारी लँगड़ी गौरैया का जिक्र जरूर आया,

तुम्हें तो पता नहीं लेकिन
जब भी हमने अपने घर पर
तुम्हारा या तुम्हारे परिवार का जिक्र किय़ा,
वह लँगड़ी गौरैया का जिक्र निश्चित ही हुआ.

अब तुम चली गई,
मुझे विश्वास है तुम्हारे पास लँगड़ी गौरैया भी चली आएगी,
मुझे तो लगता है कि तुम
हमें छोड़कर उस लँगड़ी गौरैया के पास ही गई हो.

जहाँ भी गई हो
ईश्वर से हमारी प्रार्थना है,
तुम्हें रूह को सनातन शाँति प्रदान करें.
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