एकान्तर कथा- राधे का बैंक खाता
श्रीनिवासन शहर के एक प्रतिष्ठित रईस थे.
उनके पास कई बंगले, कारखाने व और व्यापार थे.
वे अपने इकलौते बेटे राधे को संसार की
सारी सुविधाएँ मुहैया कराना चाहते थे. उनका मन था कि चाहे मजबूरी में या फिर शौक
से ही सही, उनके बेटे को कभी कोई काम करना ना पड़े. यानी नो नौकरी नो पेशा ओन्ली
मौज मस्ती. यही ध्यान में रखकर उनने एक दिन एक बेशुमार एकमुश्त दौलत बैंक के एक नए
खाते में डाला और शाम को घर जाकर अपने इकलौते पुत्र को उस खाते का गोल्ड डेबिट
कार्ड थमाया. साथ में हिदायत भी दी कि इस खाते में बेशुमार दौलत है जिसे जानने की
तुमको जरूरत नहीं है. हाँ खाते में अब कोई रकम नहीं डल पाएगी और यह भी कि किसी भी
तरह से खाते की रकम का ज्ञान उसे नहीं हो पाएगा. श्रीनिवासन ने बैंक में खास
हिदायत दे रखी थी कि किसी भी तरह से खाते की रकम की जानकारी कभी भी राधे को
प्राप्त न हो. वह जितना चाहे खर्च करे बेफिक्र होकर – जिंदगी भर के लिए निश्चिंत
रहे.
बस अब क्या था . सारे रोक टोक खत्म हो
चुके थे. राधे की जिंदगी में अचानक अनचाही मस्ती आ गई. आए दिन दोस्तों के साथ
महफिल सजती – खाते पीते और शौक फरमाते. हाँलाँकि राधे के पास की बुरी आदत या लत नाम
की कोई चीज नहीं थी, किंतु दोस्त थे कि खर्च करवाने में माहिर थे.
कुछ समय बाद राधे को अपनी जिंदगी खुशी
खुशी जीते देख कर एक दिन पिता श्रीनिवासन निश्चिंत हो गए और ठान लिया कि अब वे
खुशी खुशी भौतिक जिंदगी से दूरबगवत आरादना में मग्न हो सकते हैं. बस और क्या था,
सब कुछ लोगों को दान देकर, राधे को छोड़कर
न जाने कहाँ चले गए. राधे की माता का तो उसके बचपन में ही देहाँत हो चुका था.
श्रीनिवासन का भौतिकता से मन भर गया था, इसलिए वे सब कुछ त्याग कर शायद पहाड़ों पर
ध्यान करने चले गए थे.
इधर राधे कुछ दिन तो पिताजी के लिए परेशान
रहा, किंतु पिता के जानकारों ने जब उसे पूरी बात समझाई तो वह उन्हें भूलने लगा और
अपनी मस्ती में खोता गया. दिन महीने बरस बीतते गए. खाते की रकम घटती गई. एक दिन
बैंक के एक कर्मचारी ने राधे को चेताया कि इस तरह से पैसे खर्चने से कल को मुसीबत
आ सकती है, क्योंकि खाते में आवक तो है ही नहीं. रकम तो घटती ही जाएगी और राधे को
जिंदगी पूरी निकालनी है. यदि शादी ब्याह किया को आगे की पीढ़ी भी इसी में खाना
चाहेगी. किंतु इसका राधे पर की असर नहीं पड़ा. वह अपने रास्ते उसी तरह चलता रहा.
कुछेक बरस बाद फिर बैंक वालों ने चेतावनी
दी कि राधे कुछ तो हद करो. इस तरह तो कोई 25-30 सालों में खाता खाली हो जाएगा.
राधे को लगा पच्चीस- तीस साल ! अभी तो बहुत समय है. तब तक ना जाने मैं
रहूँगा भी कि नहीं. इसके लिए आज के मजे क्यों खोऊँ. गाड़ी अपनी रीत से पटरी पर उसी
गति से दौड़ती रही. अब बैंक वाले भी सोचने लगे कि इस लड़के को चेताना किसी काम का नहीं है. वह बदलने वाला नहीं है और एक दिन हो न हो इसके सर
पर मुसीबत आने वाली है.
फिर भी बैंक के एक बुजुर्ग ने सोचा कि यह
अपने अजीज श्रीनिवासन का बेटा है . उनके हम पर बहुत एहसान हैं इसलिए एक बार तो
मुझे राधे से बात कर लेनी चाहिए. यही सोचकर वे एक दिन राधे के पास गए और आराम से
बैठकर अच्छी तरह समझाने की कोशिश की कि बेटा अब खर्चों पर कुछ लगाम कसो वर्ना
तुम्हारा बुढ़ापा खतरे में पड़ सकता है. तुम काम कुछ करते नहीं हो. खाते में आवक
तो बंद है. खर्चे हो रहे हैं ऐसा कब तक चलेगा. एक दिन तो खाता खाली हो जाएगा. ऐसा
ना हो कि तुम्हारे जीते जी खाता खाली हो जाए. फिर तो तुम्हें जीने के लाले पड़
जाएंगे. ये जितने दोस्त आज तुम्हारे साथ मौज मस्ती कर रहे हैं सब कल को गायब हो
जाएंगे.
सब कुछ सुनकर भी
राधे, दूसरी कान से सब कुछ निकाल दिया. रवैया जस का तस बना रहा. अंततः एक दिन वही
हुआ जिसका सबको आशा थी, डर था. बैंक का
खाता खाली हो गया और बैंक ने आगे रकम देने से मना कर दिया. राधे अब बूढ़ा होने के
कगार पर था . कुछ मेहनत मजदूरी करने लायक भी नहीं रहा. अब वह पैसों के लिए दोस्तों
की तरफ ताकने लगा. एकाध हफ्ते किसी दोस्त ने साथ दिया तो दूसरे हफ्ते किसी दूसरे
ने. लेकिन इस तरह कब तक चलता. धीरे धीरे दोस्त कन्नी काटने लगे और राधे की दोस्तों
की महफिल छोटी होती चली गई. एक दिन वह अकेला हो गया. दुनियाँ उसका मजाक उड़ाती, पर
सहायता करने कोई सामने ना आता था. राधे अपने पिताजी के पुराने मित्रों की तरफ
बढ़ा. कुछ सहायता तो मिली पर वह ज्यादा दिन चल नहीं सकी. हारे राधे के पास हाथ
फैलाने के अलावा कोई रास्ता बचा भी नहीं था. जिस दिन भीख में कुछ मिल गया तो खा
लिया वर्ना भूखा रह जाता. इसी बदनसीबी में एक दिन राधे इस संसार से विदा हो लिया.
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हमारी हालत भी आज
राधे की तरह ही है. बुजुर्गों को चाहिए कि वे अपना बचपन याद करें और बालकों को
चाहिए कि वे पुराने किलों व शहरों के इतिहास की तरफ ध्यान दें. किलों के अंदर पीने
के पानी के इंतजामात को अच्छी तरह समझें. अच्छा हो कि शालाओं में यह पढ़ाया भा
जाए. जयपुर के जयगढ़ किले में बरसात के पानी को इक्ट्टा कर इस्तेमाल करने के लिए
इंतजामात किए गए हैं. ऐसा बहुत सारे किलों में मिलता है किंतु जयगढ़ का इंतजाम तो
काबिल ए तारीफ ही है. कई पुराने मंदिरों में बावड़ियाँ मिलेंगी जो आज खंडहर बनकर
पड़ी हैं. गुजरात में खासतौर पर बावड़ियों का तो भंडार ही है. कहने को तो धरती का
85 प्रतिशत पानी है, लेकिन शायद पीने योग्य 5 प्रतिशत ही है. फिर भी हमने बरसात के
पानी को पीने योग्य बनाने की कला को क्यों नकारा ? जबकि हमारे
पूर्वजों को इसका भरपूर ज्ञान था और वे इसे बहुत बड़े पैमाने पर उपयोग करते थे.
हमने इसे जी भर कर नकारा. बल्कि विज्ञान को साथ लेकर ऐसा कुछ इंतजाम किया कि बरसात
का पानी भूल से भी धरती पर न पड़े. खासकर शहरों में तो अंधेर मची है. कीचड़ से
सबको चिढ़ है. इसलिए सभी ने अपने अहातों के सीमेंटिंग करवा लिया है. शाम को आराम
कुर्सियों में बैठकर चाय पकोड़े खाने का मजा लेते हैं.
पंचायत, नगर निगम,
सरकार कितना भी बोले, विज्ञापन निकाले, कानून बनाए, किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता.
प्लाट की बाऊंडरी से बाऊंडरी तक घर की इमारत बन रही है. जो थोड़ी बहुत जगह बची तो
वह सीमेंटिंग हो गई या फिर अलंकार के लिए हॉलो ब्रिक्स लगाकर रख दिए. इससे परिणाम
यह हुआ कि बारिश का पानी तो मिट्टी में नहीं पड़ता वो अलग किंतु छत पर का पानी भी
सीमेंट के ऊपर से बहकर बाहर निकल जाता है.
वही हाल है हमारी
सोसाईटियों का जिसने सड़क के दोनों करफ के घर से घर तक यानी दीवाल से दीवाल तक
(वाल टू वाल) काँक्रीट की या डामर की सड़क बनवा दी है. आजकल काँक्रीट की सड़कों का
फेशन हैं कहते हैं ज्यादा चलते हैं.
घरों के अहातों से निकलकर पानी सड़क पर आता है
और सड़क पर बहते बहते किसी पक्की नाली में चला जाता है . जहाँ से उसका रास्ता किसी
बड़े नाले से होते हुए किसी नदी, झील या तालाब की ओर जाता है. शहरों में खास कर यह
तो एक आम दृश्य है.
इन सब सुविधाओं के
लिए हमने क्या किया - बरसात के पानी का
धरती मे समाने के सारे रास्ते बंद कर दिए. जिस तरह राधे के पिता श्रीनिवासन ने
राधे के खाते में आवक पर रोक लगा दी थी. राधे की तरह हमें भी पता नहीं था कि बैंक
में कितना पैसा है, बस खर्चते गए. भूजल दोहन में हमने वाह वाही लूट ली. आज राधे की
तरह हम भी भीख माँगे पड़े हैं किंतु कोई दे सके तब ना.
नदियों में पानी
कुछ पहाड़ों से आता था तो कुछ बरसात से. हमने उन पर भी बाँध बना दिए ताकि पानी आगे
जा ही न सके. बाँध के पक्की नहरों से पानी खेतों में पहुँचाया, यह सोच कर कि
ज्यादा से ज्यादा पानी खेतों को मिले. लेकिन यह नहीं सोचा कि बीच की सारी जमीन प्यासी
रह जा रही है. इतने सालों से प्यासी धरती में भूजल कहाँ से आएगा.
दुख इस बात का होता
है कि आज भी हम समझने से इंकार करते हैं कि विज्ञान को वरदान मानकर अभिशाप की तरह
प्रयोग करने का ही नतीजा है कि आज हम सब पानी को तरस रहे हैं.
कम से कम अब तो
सुधरें अन्यथा आने वाली पीढ़ियाँ इतना कोसेंगी कि नरक में भी स्थान मिलना मुश्किल
हो जाएगा.
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