गलतफहमी
बीसवीं सदी की आखरी दशाब्दि. दिल्ली की सीमा पर बसा, तब परिचित, पर अब बहुचर्चित
शहर, काँक्रीट का जंगल, दिल्ली को पछाड़ने की होड़ में – नोएड़ा.
उन दिनों दिल्ली में नौकरी करने वाले अक्सर नोएड़ा में रहने आते थे. दिल्ली में मकान
मिलना – रहने के लिए ही सही – मुश्किल क्या नामुमकिन ही था – नौकरी पेशों के लिए.
सोनू भी नोएड़ा के एक कॉम्प्लेक्स में रहता था. एकाकी था, कोई 35 से 40 बरस के बीच
का. वह एक सामाजिक प्राणी था, दूसरों की मदद में हमेशा आगे रहता था, इसीलिए मुहल्ले
के बहुत सारे लोग उससे परिचित थे. बहुतों के घर आना जाना भी था.
एकाकी होने की वजह से भाभी लोग उससे मजाक भी कर लिया करते थे . मौके बे मौके
कभी - कभी खिंचाई भी हो जाती थी. बच्चों से उसे खासा लगाव था. यहाँ तक कि लाड़ में
बच्चे उसके नाम से खान पान की छोटी मोटी चीजें जैसे टॉफी, आईसक्रीम ले लिया करते
थे, पर उसने कभी किसी को मना नहीं किया.
एक बार की बात है – भारती और सुचित्रा भाभियाँ नीचे लॉन में बैठे गपिया रहीं थी. दिन
के कोई 11-12 बजे का वक्त होगा. रविवार था.
अपने समय, रविवार के हिसाब से सोनू नाश्ता करने मेस की ओर बढ़ रहा था. जैसे ही
उसने बिल्डिंग के बाहर कदम रखा –
सुचित्रा जोश में बोल पड़ी - भैया, आप तो बड़े छुपे रुस्तम निकले.
सोनू ने ऐसी किसी बात की उम्मीद नहीं की थी, सो वह भौचक्का रह गया. बात के सिर
पैर का पता नहीं था उसे.
उसने पूछा क्या बात है भाभी – आज सुबह से कोई नहीं मिला क्या...?
- बनो मत भैया, मुझे सब पता है. पार्टी नहीं देनी हो तो मत दो, पर छुप छुप के
काम ना किया करो.
सोनू के तो होश ही गुम हो गए. बात तो बिगड़ती नजर आने लगी. उसने फिर पूछा – क्या
बात है भाभी साफ साफ कहो ना..? पार्टी ही चाहिए तो अभी ले लो, आज ही ले लो, पर
किसी कारण नहीं, बस मजे करने के लिए.
- अच्छा, अब भी बन रहे हो. मैंने देख लिया है. अब तो मत छुपाओ.
क्या देख लिया भाभी ?
- मैंने उसे भी देख लिया है जो आपके साथ आती जाती है. रहती भी तो आपके साथ
ही है.
इस पर भारती की आखों में चमक आ गई. उन्हें सोनू की हर खबर रहती थी. उनके
आपसी संबंध बहुत ही अच्छे थे. उसे पता था कि सोनू के साथ कोई नहीं रहता.
पहले सोनू के माता-पिता रहा करते थे, किंतु एकाध साल पहले वे अपने पुरानी जगह
जाकर बस गए थे. कहते थे, यहाँ हमारी उम्र का कोई नहीं है. मन नहीं लगता. एक ये
छोरा है कि एक बार भी साथ बैठकर खा नहीं सकता. यदि हमें ही पकाकर अपने आप
ही खाना है तो यहाँ क्यों अपने शहर में जाते हैं. वहाँ कम से कम पास पड़ोस के लोग
जाने पहचाने हैं. हम लोग उम्रदराज हो गए हैं. सब अंकल - आँटी, दादा – दादी, नाना-
नानी सा संबोधन करते हुए इज्जत बख्शते हैं. खाना पकाने का आधा काम तो पास
पड़ोस की नई बहुएं कर जाती हैं. केवल नाम के लिए खाना आँटीजी बनाती है. उसे लगा
कि यह क्या बात हो गई कि सोनू के घर कोई रहती है साथ में. मिलाना तो दूर उसने
बताया भी नहीं. कहीं न कहीं कोई गड़बड़ तो है.
सोनू परेशान सा ताकता रहा.
भाभीजी आपने किसको देखा. कब देखा, पूरी बात तो बताईए. ऐसा मेरे साथ क्या है, जो
भारती भाभी को पता नहीं. किंतु सुचित्रा थी कि रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी. कहे जा
रही थी.
- अब तो आप ऑफिस भी अपनी कार में अकेले जाते हो, कार पूल तो करीब छोड़ ही
दी है. अपने साथ ले जाते हो और साथ में ही लेकर आते हो. आने जाने का समय भी
बदल गया है. निकलते हो जब सब लोग निकल चुके होते हैं और आते हो जब अँधियारा
हो चुका होता है ताकि कोई देख न ले.
सोनू को लगा हो न हो कहीं कोई गलतफहमी हो गई है. सुचित्रा भाभी ने कब किसे देखा,
जब तक बताएगी नहीं, तब तक बात सुलझ नहीं सकती. वह याद करने लगा कि ऐसी कौन
सी बात हुई जसका जिक्र भाभी इस तरह से कर रही है, जैसे मैंने कोई गुनाह ही कर दिया
हो. उम्र तो इतनी थी ही कि सरे आम शादी करके दुल्हन ला ही सकता था. और उसकी
आदतों के हिसाब से उस पर कभी भी कंजूसी का दाग तो लगा ही नहीं था. फिर अब ऐसा
क्यों. सोनू के चेहरे से हवाईयाँ उड़ने लगीं. वह भेद पा नहीं रहा था और इल्जाम पर
इल्जाम से वह और कमजोर हुआ जा रहा था. दिल हारने लगा था.
कुछ हिम्मत जुटाकर सोनू ने पूछ ही लिया – भाभी जी आपने यह सब कब देखा...? कितने
दिन, महीने हुए. कम से कम मुझे भी तो दिखाया होता कि किसे आप मेरी दुल्हन बनाए
जा रही हो ?
सुचित्रा फिर शुरु हो गई.
- भैया मैं फिर से कहती हूँ बनो मत. बात साफ-साफ मान लो, बता दो, उजागर कर
दो, पार्टी दे दो. सब ठीक हो जाएगा. सलवार सूट पहने वो आपके साथ बगल में, कार
की सामने वाली सीट पर बैठ कर आती जाती थी. एक दिन की बात थोड़े ही है. करीब
हफ्ते भर तो वह रही आपके साथ, आपके फ्लेट में. किसी की नजर ना पड़े, इसकी तो
पूरी कोशिश कर ली थी किंतु मैं तो ताड़ ही गई. वरना मजे करते रहे और किसी को
कानों कान खबर भी नहीं लगती.
इतने में भारती के दिमाग में कोई बात कौंधी. उसके चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई. सोनू को
लगा शायद बात बहुत ज्यादा बिगड़ गई है. वह निराश हो गया. भारती ने उससे कहा, भाई
साहब आप पहले नाश्ता कर आईए. पता नहीं इसे क्या हो गय़ा, सुबह - सुबह ये माजरा
लेकर बैठ गई. आप नाश्ता कर आईए फिर बात करते हैं. तब तक मैं इससे बाकी कहानी
समझती हूँ.
सोनू को कुछ राहत मिली. वह मेस की तरफ कूच कर गया. नाश्ते के दौरान भी सोनू का
मन अशाँत था, वह लगातार यही सोचे जा रहा था कि सुचित्रा भाभी ने ऐसा क्यों कहा.
उनने क्या देखा, जो इतनी बड़ी गलतफहमी का शिकार हो गई या ऐसा मैनें क्या कर दिया
जो लोगों को गलत लग गई. पेट में दाना जाते - जाते उसका मन और तेज दौड़ने लगा.
अचानक बिजली कौंधी. उसे लगा हो न हो सुचित्रा ने ज्योति को देखा होगा. दो तीन हफ्ते
पहले वह आई तो थी. हाँ साथ ही रहती थी, साथ में आती जाती थी. उन दिनों ज्योति को
उसके दफ्तर छोड़ने लाने के लिए उसने कार पूल छोड़ रखा था. सुबह कुछ देर से जाते थे
और शाम को देर से आते भी थे. ज्योति को उसके दफ्तर छोड़ना पड़ता था और उसके
दफ्तर से ही लाना पड़ता था क्योंकि उसे दिल्ली का कोई ज्ञान नहीं था.
शायद सुचित्रा उसी की बात कर रही थी. उसके मन को कुछ चैनो-आराम मिला. जब नाश्ता
– चाय पूरा करके वह लौट रहा था, तो सोचा कि सुचित्रा से पूछते चलते हैं. दोनों भाभियाँ
अभी भी लॉन में बैठे बातचीत कर ही रही थीं.
सोनू वहीं पहुँच गया और सुचित्रा से पूछने लगा. भाभीजी आपने जिसे देखा वह साँवली थी –
मेरे ही कद काठी की.
- हाँ. अब आए ना रास्ते पर.
यह कोई 20 एक दिन पहले की बात होगी.
- एकदम ठीक.
उसके हाथ में भी कोई बैग रहा होगा, आफिस जाने वाला.
- हाँ एकदम सही पहचाना. अब बताइए - पार्टी कब दो रहे हैं?
सोनू सोचने लगा – हाय राम इसे हो क्या गया है ?
उसने भारती से कहा देखो भाभी – अब तो आपको समझ में आ ही गया होगा कि ये
किसकी बात कर रही हैं और किस बात की पार्टी माँग रही हैं ? पार्टी तो मैं दे दूँगा पर बात
साफ हो जानी चाहिए. भारती फिर भी समझ नहीं पाई थी.. बोली मेरे तो कुछ समझ में
नहीं आ रहा.
सोनू ने खुलकर कहा – भाभी. ये ज्योति की बात कर रही हैं.
उनको झटका सा लगा. सुचित्रा, हाय ये तू क्या कह रही है ? वो तो...
इतने में सोनू बीच में बोल पड़ा. भाभी जी अब तक जो हो गई सो हो गई. मैं इस मुहल्ले
के आधी से ज्यादा भाभियों को मेरी गाड़ी में सामने की सीट पर बैठाकर अस्पताल ले जा
चुका हूँ, ला चुका हूँ. सारा मुहल्ला मुझे देखता रहा किसी ने कभी भी कुछ भी नहीं कहा.
शायद लोगों ने उन्हें पहचान लिया होगा. आपने नया चेहरा देखा, इसलिए पहचाना नहीं
और पूछने के बदले अपनी ही गलतफहमी का शिकार हो गईं. लेकिन आज आपने जिस बात
पर मेरी हवा निकाल दी, इससे मेरी समझदारी बहुत बढ़ी है..
एक विनती आपसे जरूर करूँगा कि किसी भी समय, किन्ही भी हालातों में, मेरी गाड़ी में,
मेरे साथ, गलती से भी, सामने वाली सीट पर मत बैठना, वरना कोई और देख ले तो कह
बैठेंगे कि सोनू ने सुचित्रा से शादी कर ली है. संजीव क्या कर बैठेगा ? यह तो बाद की बात
है. मेरे लिए मुहल्ले में रहना मुश्किल हो जाएगा. आपके घर में क्या होगा ? भगवान ही
जाने. सुचित्रा भाभी सकपका गईं.. कि सोनू क्या कह रहा है ?
इतना कहकर सोनू अपने घर की तरफ रुख कर गया.
अब सुचित्रा परेशान हो गई.
उसने सोनू के जाने के बाद भारती से पूछा – सोनू किस तरह बात कर रहा था. उसे तो
तमीज भी नही है कि भाभियों से कैसे बात की जाती है, देखो क्या कह रहा था ? कि मेरी
गाड़ी के समने वाली सीट पर मत बैठना वरना लोग कहेंगे..
बदसलूकी की बातें.
भारती ने बात को सँभाला. थोड़ा शांत हो जा .. मैं समझाती हूँ. फिर उसने सारी बात का
खुलासा किया कि जिसकी बात तू कर रही थी ना वह उसकी छोटी बहन है. पाँच साल
छोटी. रेलवे में काम करती है. हिंदी में बहुत अच्छी है. इससे भी अच्छी. वो रेलवे बोर्ड में
प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेने के लिए हर साल आती है और हर साल ईनाम लेकर जाती है.
उसी के लिए सोनू पूल छोड़कर अपनी गाड़ी में हफ्ते भर अलग से आता जाता है. तूने उसे
ही देखा होगा. मैं उससे मिली हूँ, उसका ही नाम ज्योति है.
खुश रह, उसने उल्टा सीधा कुछ भी नहीं बोला. वरना जब वो पगला जाता है ना, तो उसकी
बात तो कानों में चुभने लगती है दिल छलनी कर देती हैं.
तेरा ऐसा मजाक मुझे भी अच्छा नहीं लगा. सुचित्रा की बारी थी अब सहमने की – उसने
कहा मुझे तो एक बार भी नहीं लगा कि वो भाई बहन हैं. कितना हँसी मजाक करते रहते
थे वो कार की तरफ आते जाते.. इतनी बड़ी गलत फहमी कैसे हो सकती है मुझको.
लेकिन भारती ने फिर से समझाया .. सुन ले मेरी बात.. वो उसकी छोटी बहन है और कोई
बात नहीं है. शाँत हो जा खुश रह . चल घर चाय पीते हैं.
दोनों उठकर भारती के घर चाय पीने चल पड़े. वहाँ सोनू पहले से बैठा गौरव के साथ चाय
पी रहा था. भारती कि दबी दबी खिलखिलाहट ने समझा दिया था कि बात साफ हो गई है
किंतु सुचित्रा झेंपती हुई भारती के पीछे पीछे किचन में चली गई.
एम.आर अयंगर.
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