मेरा आठवाँ प्रकाशन / MY Seventh PUBLICATIONS

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गुरुवार, 26 फ़रवरी 2015

वाह रे तकदीर !!!.

वाह रे तकदीर !!!.


मु
हल्ले में एक स्वामीजी का परिवार होता था. वे नाम के स्वामीजी थे, न कि धर्मावलंबी गेरुआ पहनने वाले. पूरा परिवार व मुहल्ला उन्हें पापा के नाम से जानता - पुकारता था. परिवार भरा पूरा सर्व संपन्न था. किसी भी सामाजिक पारिवारिक या आर्थिक नजरिए से कमजोर नहीं, वरन् बहुत ही शक्तिशाली था. बहुत बड़ा दिल था, पति - पत्नी दोनों का. किसी के लिए भी, खासकर बच्चों के लिए उनका हृदय हमेशा खुला था. मुहल्ले के किसी भी बच्चे के लिए वे कुछ भी करने को तत्पर रहने वाले दंपति थे.
जैसे समाज कहता है, ईश्वर ने भी उनकी सुनी. घर में चार पुत्र रत्न हुए. किंतु उसी भगवान ने ही उन्हें एक पुत्री की तमन्ना भी दे रखी थी. कभी कभी तो लगता है कि ईश्वर कभी भी, किसी को भी परिपूर्ण नहीं रहने देता. कहीं न कहीं कोई कमी छोड़ ही जाता है. कुछ नहीं तो एक कामना ही सही, जो उन्हें अंदर ही अंदर खाई जाती है. शायद उसे परिपूर्ण मानव की ईश्वर से होड़ करने का डर है. वैसे भी आज मानव ईश्वर को तरह - तरह से ललकार ही रहा है. जब ईश्वर अपने तेवर दिखाते हैं तो आपदाएँ आ जाती है. रूप कोई भी हो – यह सब मानव के नियंत्रण से बहुत ही परे होता है जैसे – भूकंप, अकाल, बाढ़, सुनामी और कुछ नहीं तो आतंकवाद.

एक और बिडंबना देखी. पापा के मकान के पड़ोसी राव साहब के घर मात्र पुत्रियाँ ही थीं. सारी की सारी पुत्रियाँ थी बला की खूबसूरत, किंतु वे थे कि एक पुत्र रत्न को तरस गए थे. ऐसी चरम असामनताएँ बनाकर ईश्वर कहना क्या चाहता है ? अतिवृष्टि - अनावृष्टि की तरह अलग - अलग तरह से, दोनों कामनाएँ अ-परिपूर्णता लिए हुए. बड़ा ही अनोखा समन्वय. दोनों परिवारों में आपसी बच्चों को अपनाने की भी बातें होती थी, किंतु कुछ भी सही तरीके से हल नहीं हो पाया. शायद नारियाँ पुत्र - पुत्री को अपने कोख से ही जन्म देना चाहती थीं. अजीब, लेकिन कुछ हद तक स्वाबाविक और जायज ख्वाहिश थी उनकी. लेकिन उसे ईश्वर के अलावा कोई पूरी भी नहीं कर सकता था. खैर अंततः राव साहव को पुत्ररत्न की प्राप्ति तो हुई, किंतु पापा की पुत्री नहीं हुई. बेचारे बेटी के लिए तरसते रहे.

मुहल्ले के, सारे के सारे लड़के पापा के घर पर ही मजमा जमाते थे. उनकी सेवा में पापा की भार्या, जिसे सारे अम्मा पुकारते थे, कोई कसर नहीं छोड़ती थी. जब मर्जी चाय नाश्तों का दौर चलता ही रहता था. खेलने के लिए सारी सुविधाएं अक्सर पापा के घर से ही आया करती थीं. उनके बच्चे थे कि कभी - कभार साथियों से वसूली की सोच लेते थे, किंतु पापा और अम्मा जी से ऐसी बात कभी नहीं सुनी गई. पूरा घर, मुहल्ले के सभी बच्चों के लिए खुला रहता था, भले वे घर पर हों या न हों. हो सकता है घर की कोई अलमारी बंद कर जाते हों, पर किसी भी बच्चे पर यह बात कभी भी उजागर नहीं हुई.

किसी भी तरह के खेल से परहेज नहीं होता था. जो खेलो... सुविधा उपलब्ध हो जाती थी. सन् 60-80 के दो दशक उनने मोहल्ले को सभी बच्चों की भरपूर सेवा की. बच्चे भी उनके बर्ताव से बहुत खुश थे. स्कूल जाने के लिए सारे बच्चे पहले उनके घर पहुँचते, फिर सारे मिलकर स्कूल के लिए निकलते. वैसे ही किसी भी खेल के लिए जाने के पहले सब उनके घर पर ही इकट्ठा होते थे.

उस दौरान जब भारत में रेड़ियो आया ही था, पापा के घर करीब चार फुट ऊंचा एक रेडियो हुआ करता था जिसमें सिलोन, विविध भारती, रेड़ियो मास्को, वॉयस ऑफ अमेरिका के अलग अलग बैंड होते थे. कुल मिलाकर 13 बैंड वाला रेडियों था वह. बच्चे देर रात या भोर सवेरे, दिन - रात के किसी भी वक्त वहाँ जाकर क्रिकेट की कॉमेंट्री सुना करते थे. मैच मेलबोर्न में हो, जमैका में हो, बारबोडास में हो, एडेलेड में हो, पोर्ट ऑफ स्पेन में, लॉर्ड्स में या लीड्स में – या दुनियाँ में कहीं भी -  उस रेडियो में कॉमेंट्री आ ही जाती थी. रात - रात जागकर बच्चे कॉमेंट्री सुनते थे. किंतु अम्मा जी पढ़ाई की कीमत पर यह सब कुछ नहीं करने देती थी. यानी खेल का मजा लेना हो – खेल कर या सुनकर (उन दिनों टी वी अपने देश में आया ही नहीं था.) - छूट तो थी किंतु जायज मात्र – पढ़ाई का काम पूरा होने के बाद.

कभी कभी तो ऐसा लगता था कि वे किसी राजसी परिवार से जुड़े हैं. उनके रहने का ढंग ही राजसी था, पर कोई घमंड नहीं था. उनके सरकारी मकान (बंगला नहीं) के बगीचे में तरह तरह के पौधे लगे होते थे. कई पौधों के नाम तो बच्चों को आज भी पता नहीं होंगे. कुछ तो उनके संपर्क में आकर सीख गए होंगे. केक्टस, क्रोटेंस, लिली, रजनीगंधा और सब एक नहीं, तरह - तरह के – गुलाब, सेमंती, गेंदा के कई तरह के फूल - देखने में लुभावने लगते थे. उनमें ही कुछ केले के पेड़ होते थे. समय  - समय पर खाद आता था. उनके घर कोई माली नहीं होता था, पापा खुद बगीचे में काम करते थे. अपने बच्चों से कुछ करवाने की सोचते थे - जैसे कभी कभार पानी ही दे दें पौधों को, लेकिन बच्चे कब उनके हाथ आने वाले थे इन कामों के लिए. वे भी बच्चों के प्रति नरम स्वभाव के थे, इसलिए कोई जबरदस्ती भी नहीं करते थे.

घर पर आने वाले सारे बच्चे अनुशासन में रहते थे और यही वजह थी कि किसी के अभिभावक को इस बात पर कोई चिंता नहीं होती थी कि बच्चे स्वामी जी के घर पर हैं.

उन दिनों ही पापा के आखरी बेटे का जन्म हुआ. एक लड़की की ख्वाहिश ने परिवार की सदस्यो की संख्या बढ़ा ही दी थी. वह सबसे छोटा, स्कूली बच्चों के साथ खेलता रहता, मसखरी करता रहता. न जाने कितनी बार स्कूल जाते वक्त उनके कंधों पर बैठ जाता. बच्चों को भी बहुत ही लाड़ आता था  उस पर. आपसी प्रेम का अंजाम यह कि अक्सर वह कंधों पर बैठकर तसल्ली से पेशाब कर जाता. स्कूल ड्रेस भीग जाती और डर लगा रहता कि किस दिन स्कूल से बाहर खड़ा कर दिया जाए. पर नहीं – अम्मा इससे परिचित थीं. छुटके की ऐसी हरकतों से बचने के लिए, वे एक दो जोड़ा यूनीफार्म को प्रेस कर के रखती, कि बच्चे तुरंत नहाकर दूसरा यूनीफार्म पहनकर स्कूल जा सकें. इसी बीच अम्मा गीला यूनीफार्म धोकर सुखा देतीं, ताकि शाम को बच्चा अपने कपड़े पहनकर घर लौटे और उसके माता पिता नाराज न हों.

सबका समय मजे से बीतता गया. बच्चे बड़े होते गए. ऊंची पढ़ाई के लिए वे दूर दराज के कालेजों में दाखिला लेने लगे. इसी तरह बच्चे आपस मे बिछड़ते गए. लेकिन हर किसी त्यौहार या शादी बाराती – छुट्टियों - में सारे बच्चे एक जुट होते और कुछ हो न हो  अम्मा व पापा से मिलकर ही जाते. बाद में दौर आया उनकी नौकरियों का. कुछ तो ऱाज्य के ही अलग जिलों में नौकरी करने लगे तो कुछ देश के अन्य राज्यों में स्थापित हो गए. किंतु साल में कम से कम हर बच्चा एक बार छुट्टियों में अपने घर आता तो अम्मा - पापा से जरूर मिलता. अम्मा - पापा के लाड़ ने बच्चों में न अनुशासन पनपने दिया न ही पढ़ाई की तरफ कोई खास ध्यान देने दिया. उनमें से किसी को भी परढ़ी एकजदम रास नहीं आई.केवल एक ने ही कालेज में दाखिला लिया था बाकी तो इंटर में ही सिमट गए.

पापा के घर, पैसों की भरमार ने बिना इधर - उधर देखे बच्चों का ब्याह करा दिया. तब तक वे अपने पुश्तैनी बंगले में लौट आए थे. इसलिए सभी बच्चे अपने परिवारों के साथ उसी बंगले के विभिन्न भागों में ही रहते थे. बच्चे उस संपत्ति की भलीभाँति देख रेख नहीं कर सके. केवल एक ने ही नौकरी की, बाकी सब पापा के पैसों से बिजिनेस करने के पूरे जोश में थे. आदतों से बिगड़े बच्चों की गलत संगति ने उनकी संपत्ति के ह्रास में पूरा साथ दिया. धीरे धीरे संपत्ति घटने लगी और साथी छूटने लगे.

मोहल्ले के वे बच्चे, जो केवल दो भाई थे और छुट्टियों में घर आकर अम्मा – पापा से मिलने जाते थे, तो बेचारे दोनों बुजुर्ग उनसे पूछते बेटा क्या कमी थी हममें ? क्या नहीं था हमारे पास ? और भगवान ने इतने पुत्र भी दिए.  हमने उनके परवरिश में कौन सी कमी छोड़ी थी ? लेकिन देखो, एक भी सहारा नहीं बन सका. तुम दो भाई देखो किस तरह तकलीफों में पढ़कर भी आगे आए. भगवान हमसे किस जनम का बदला ले रहा है, जो हमें ऐसी सजा दे रहा है. इस बुढ़ापे में पापा कहाँ नौकरी करते फिरें ? बेचारे अम्मा - पापा के आंखों से उनके बच्चों के साथियों के सामने गंगा - यमुना बहने लगते. बच्चे भी बेचारे करें तो क्या करें ? हालात तो काबू से बाहर ही हो चुके थे. हालातों की नाजुकता देखकर वे वहां से चले जाते और कभी - कभी तो बुजुर्गों को तकलीफ देने से बचने के लिए वे छुट्टियों में आकर भी उनसे मिले बिना चले जाते. दिल तो दुखता था किंतु मिलना, नहीं मिलने से ज्यादा दुखदायी होता था.

मोहल्ले के बच्चों से सुना  भी है कि देखो सर्वसंपन्न परिवार का मुखिया आज 70 साल की उम्र में एक छोटे से ठेकेदार के पास 5000 रुपए की नौकरी कर रहा है.

बात जहाँ अटकने लगी वह थी पापा के बच्चों की खुद की पढ़ाई और परवरिश. जिन्हें किसी भी चीज की कमी नहीं थी, बड़ों का असीम प्यार प्राप्त था उनके यहाँ कमी हो गई अनुशासन की. ज्यादा लाड़-प्यार ने बच्चों को अनुशासन नहीं सिखाया. घर के जिस एक बच्चे ने अपने आप समाज में रहकर अनुशासन सीखा था, उसे परमात्मा ने बहुत ही कम उम्र दी. समाज में रहने वाले खुरापाती तत्वों के कारण, वह अपने नौकरी के दौरान, गबन के केस में फँसा दिया गया. जिससे उसे मानसिक तनाव होने लगा. बहुतेरी कोशिशों के बाद भी जब उभर नहीं पाया, तो घर में खबर दी. पापा उसके लिए चिंतामग्न हो गए और अंततः चिंताओं से उभर नहीं पाए. उनका देहाँत हो गया.

बाबा की अंत्येष्टि में आए बालक को अब अपनी चिंता खाने लगी कि अब कौन सहारा ? वहाँ से विदा होने के पहले ही वह संसार से बिदा हो लिया. उसके दिल की धड़कन ने साथ नहीं दिया. शादी-शुदा – पत्नी व बालक को छोड़ गया,

बच्चों को हर तरह की बीमारियाँ होने लगीं. खाना- पीना और बैठे रहना उनकी आदत सी बन गई. बूढ़ी अम्मा परेशान रहने के अलावा कुछ भी नहीं कर सकती थी. अंततः एक दिन इन सब परेशानियों से वे अचानक मुक्त हो गईं. उनकी इह लीला समाप्त हो गई.

भाईयों ने मिलकर, अकेले या दोस्तों के साथ अलग अलग धंधे शुरु किए किंतु एक भी सही नहीं चला. पापा के रहते मुर्गी पालन में कुछ सफलता मिली थी, लेकिन उनके हटते ही मुर्गियाँ भी बीमीरियों से मरने लग गई और धंधा चौपट हो गया.

जमीन की खरीदी - बिकवाली भी की किंतु साथियों ने कमीशन खा - खाकर  कमाई तो क्या, मूल भी डुबा दिया.

समाज के ऊपरी तबके में रहने के कारण वे बच्चे, न किसी बुजुर्ग से सलाह मशविरा करना चाहते थे, न ही कोई गुणी उनको समझाना चाहते थे. सारे बच्चों में धनी होने का घमंड जो समा गया था. शायद खाना – पीना और पढ़े लिखे न होने के कारण जोस्तों द्वारा दिएओ गए धझोके को समय से न पहचानना, ही इसका मुख्य कारण था, जो अन्य बीमारियों को भी समेट लाया. देखते - देखते एक - एक कर सारे भाई जग से विदा हो गए. .एक घर में बेचारी इतनी बेवाएं किस तरह रहती होंगी भगवान ही जानता है.

दुख तो बहुत होता था किंतु करने के लिए कुछ बचा न था. केवल भगवान से प्रार्थना की जा सकती है कि बच्चों को लायक बनाकर बेचारी - दुखियारी बहुओं का बेड़ा पार लगाए.

बड़ों ने कहा है दिन फिरते देर नहीं लगती, इस लिए घमंड तो करना ही नही चाहिए. चाहे ज्ञान का हो, धन का हो, या रूप का. जहाँ घमंड घर कर गया वहां से सारी संपत्ति सरकने लगती है. ज्ञान का भंडार भी घमंड के साथ ह्रास हुआ जाता है.

छोटी उम्र में इन तथ्यों को समझना मुश्किल होता है और जब समझ आने लगती है तब तक उम्र ढल चुकी होती है और अब समझ में आने का कोई लाभ होता नजर नहीं आता. इसलिए हमें चाहिए कि बड़ों के अनुभव का, उनके द्वारा प्रदत्त राय या सीख को अपना लें एवं उसका मीठा फल बुढ़ापे में खाएं. लेकिन कितने ऐसे कर पाते हैं ? इस मतलबी दुनियाँ में परखना भी मुश्किल हो जाता है कि कौन सही राय दे रहा है और कौन मतलबी.
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एम. आर अयंगर.
मो. 8462021340 
ई-मेल – laxmirangam@gmail.com
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सी -  728,  कावेरी विहार
एन टी पी सी टाऊनशिप
जमनीपाली, कोरबा, 
(छ.ग.) 495450.

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