मेरा आठवाँ प्रकाशन / MY Seventh PUBLICATIONS

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रविवार, 15 सितंबर 2013

अपनी भाषा - हिंदी.


अपनी भाषा - हिंदी


अपनी भाषा – हिंदी.

ऐसा कहा जाता है कि स्वर्ग तक बनती सीढ़ियों की प्रगति की रफ्तार देखकर देवता घबराए और इसे रोकने का निर्णय लिया. अनन्य तरीके खोजे गए और सरलतम उपाय जो समझ में आया किया और सीढ़ियाँ अधूरी ही रह गईं. देवताओ ने पता कर लिया कि सीढियाँ बनाने के काम से जुड़े सारे लोगों की भाषा एक थी, इसलिए उनमें एकताल व तन्मयता थी. देवताओं ने उनकी भाषाएं अलग अलग कर दी ताकि मानव एकजुट न हो सकें और इससे देवताओं को सफलता हासिल हो गई. शायद यही खेल अंग्रेजों ने हमारे देश में खेला जिससे आज भी हम भारतीय भाषायी एकजुटता के लिए तरस रहे हैं.

बात शायद किसी ने मनगढंत ही कही होगी या मजाक ही होगा लेकिन इससे यह बात समक्ष तो आती ही है कि भाषा का, गठबंधन में एक विशेष स्थान है. और इन्हीं पदचिन्हों पर चलते हुए हमारे हिंदी भाषी पूर्वजों ने भाषा की एकता पर जोर दिया एवं एक राष्ट्रव्यापी भाषा को चुनना चाहा. शायद राजनैतिक कारणों से, कुछ मतभेद हुए और लोंगों में सहमति नही बन पाई. फिर काँग्रेस के अधिवेशन में हिदी को राष्ट्रभाषा मानना एक मुद्दा ही बन गया.

राष्ट्रभाषा शब्द के लोगों ने इतने अर्थ निकाल लिए कि इस शब्द का कोई स्थिर अर्थ नहीं रह गया. राष्ट्र भर में बोली जाने वाली भाषाओं को कुछ ने राष्ट्र भाषा कहा तो कुछ ने इसे देश की भाषा समझा. भिन्नता मिटाने की चेष्टा किसी ने की हो, ऐसा कहीं से कोई वाकया नहीं मिलता. और तो और काँग्रेस का अपने अधिवेशन में इसे राष्ट्रभाषा के रूप में अपनाना अन्य राजनीतिक पार्टियों को शायद रास नहीं आया. और तब से अब तक राष्ट्रभाषा  शब्द का कोई भी स्थिर अर्थ नहीं निकल सका. सन्  1995 में राजभाषा सचिवालय से प्रकाशित एक गृह पत्रिका में मैने पहली बार – राष्ट्र भाषाएँ – शब्द देखा, पढ़ा. लेख तत्समय गृह मंत्री (श्री) एस.बी.चवन का लिखा था. इसके बाद दो एक जगहों पर राष्ट्रभाषाएँ शब्द दिखा पर अब भी इसका प्रयोग सीमित ही है.

शायद इसीलिए संविधान की भाषा समिति ने देश के राज काज की भाषा को राष्ट्रभाषा न कहकर राजभाषा कहा. इससे राष्ट्रभाषा शब्द का अस्तित्व करीबन खत्म ही हो गया. निश्चित व निष्कर्ष रूप में यह कहना मुश्किल है, पर ऐसा लगता है कि यदि काँग्रेस अपने अधिवेशन के पहले अन्य राजनीतिक पार्टियों से संपर्क करती, यदि लोंगों को विश्वास में लेकर किया जाता, तो हिंदी के प्रचार प्रसार से लोगों को शायद आपत्ति नहीं होती और हिंदी को पीठासीन करना आसान होता. शायद हिंदी के प्रति लोगों का रवैया आज जैसा नहीं होता और हमारी राज काज की भाषा हिंदी देश की राजभाषा नहीं बल्कि राष्ट्रभाषा ही होती. 14 सितंबर 1949 को हिंदी राजभाषा के रूप में अपनाई गई.

लेकिन आज भी हिंदी के समर्थक हिंदी को राष्ट्रभाषा कहते नहीं थकते. आज भी कई लोग राजभाषा एवं राष्ट्रभाषा के फर्क से वाकिफ नहीं है. इससे ऐसा लगने लगा है कि काँग्रेसी आज भी हिंदी को राष्ट्रभाषा ही समझते हैं, जिसके कारण हिंदी को राष्ट्रभाषा कहने में कांग्रेस अधिवेशन की बू आती है और लोगों के विचार भटक जाते हैं.

अपने अनुभव के आधार पर कह सकता हूँ कि हिंदी के प्रणेताओं ने हिंदी के चहेतों को भी ऐसा खेल खिलाया कि उन्हें भी हिंदी से नफरत सी हो गई. आज भी ऐसे कार्यालय हैं जहाँ हिंदी अपनाने पर, उसका अंग्रेजी अनुवाद माँगा जाता है. कार्यालय इस तरह के अनुवाद की सहायता कर लोगों को हिंदी के प्रति  उत्साहित कर सकता है.

हर अभिभावक चाहेगा और उसे चाहना भी चाहिए कि उसके दिल का टुकड़ा आसमान की ऊंचाइयों को छुए. यदि उस मुकाम के लिए उसे हिंदी सीखनी या सिखानी पड़े तो लक्ष्य प्राप्ति के लिए वह हिंदी सीखेगा भी और सिखाएगा भी. अपने बच्चे को हिंदी के स्कूलों में भी पढ़ाएगा. तथ्यों की मेरी जानकारी के तहत भारत  एक धर्म निरपेक्ष राष्ट्र है भाषा निरपेक्ष नहीं. इसलिए यहाँ आप किसी को भी, कोई भी धर्म अपनाने से रोक नहीं सकते, लेकिन भाषा के मामले में ऐसा नहीं है और भारतीयों को हिंदी सीखने लिए कहा जा सकता है. मेरी समझ में  नही आता  कि राजनीतिक समीकरणों के लिए हमने हिंदी की ऐसी हालत क्यों बना दी.

हिंदी सीखने में कुछ कठिनाइयाँ हैं जिन पर मैं यहाँ विचार करना चाहूंगा. विभिन्न भाषा भाषी हिंदी का उच्चारण सही तरीके से नहीं कर पाते. हिंदी के जानकारों को चाहिए कि उन्हें सही उच्चारण से अवगत कराएं न कि उन पर हँसें. कई बार तो ऐसा समझ में आया है कि गलत उच्चारण के तर्कसंगत कारण हैं जिनमें से कुछ का मैं यहाँ उल्लेख करना चाहूंगा.

दक्षिण भारतीय  “खाना खायाका उच्चारण काना काया के रूप में करते हैं. वह इसलिए कि तामिल वर्णमाला में प्रत्येक वर्ग में दो ही अक्षर होते हैं जैसे क, ङ. वहाँ ख,ग,घ अक्षर नहीं होते. इसालिए कमला व गमला शब्द कि लिपि तामिल में एक जैसी होगी. वे गजेंद्र को कजेंद्र कहेंगे. हमें लोगों की ऐसी समस्याओं को समझना चाहिए और हिंदी में उनकी रुचि का स्वागत करना चाहिए, न कि उनकी गलतियों पर हँसना चाहिए. लोग हँसेंगे – ऐसी भावना आने के बाद कोइ भी आगे हिम्मत नहीं कर पाएगा. यदि किसी उत्तर भारतीय को दक्षिणी भाषा के शब्दों का उच्चाण करना पड़े तो कठिनाइयाँ समझ में  जाएँगी. दक्षिण भारतीयों की जुबान काफी लचकदार होती है इसलिए क्लिष्ट से क्लिष्ट शब्दों का उच्चारण भी वे आसानी से कर लेते हैं.  और यही एक खास कारण है कि दक्षिण भारतीय उत्तर भारतीयों की अपेक्षा उत्तम व सफल स्टेनोग्रफर होते हैं.

अब पूर्व की तरफ चलें. बंगाल का साहित्य बहुत ही धनी है. फिर भी वहाँ की भाषा में दो अक्षर एक जैसे हैं. क्या यह उचित माना जाए कि बंगाली जैसे समृद्ध भाषा के दो अक्षर एक से हों. अब देखिए Biswas शब्द को अपनी भाषा में विश्वास लिखते और बिश्वास उच्चरित करते हैं उनके इस उच्चारण से साफ जाहिर होता है कि दोनों व का उच्चारण भिन्न है और यह तब ही संभव होगा जब ये दो अलग अलग वर्ण रहे हों. अंग्रेजी के दो वर्णों के लिए एक ही  वर्ण व लिखा जाता है लेकिन उनका उच्चारण अलग अलग होता है. ऐसा नही है कि बंगाली में व का प्रयोग नहीं होता. यदि मेरी याददाश्त धोखा नहीं दे रही तो सन् 1960 के दशक में बंगाली पत्रिका नवकल्लोल को अंतिम पृष्ठ पर अंग्रेजी में Navakallol लिखा जाता था लेकिन अब उसे Nabakallol लिखा जाता है. 

बंगाली भाषा के उच्चारण के बारे में लोग मजाक करते थे कि मुँह में रसगुल्ला डालकर हिंदी बोलिए, आपका उच्चारण बंगाली भाषा की तरह हो जाएगा. इसी तरह का असर बंगभाषियों के हिंदी उच्चारण में  मिलता है. कोई भाषाविद ही इसका पर्दे के पार की खबर दे पाएगा. भंग भाषी आपसे पूछेंगे – चा खाएगा, सिगरेट खाएगा, लेकिन वे जलपान करते हैं, धूम्रपान करते हैं, मदपान करते हैं, रसपान करते हैं.

पंजाब लिखी जाने वाली गुरुमुखी लिपि में  आधा अक्षर लिखने का प्रवधान नहीं है. इसीलिए पंजाबी स्कूल को सकूल, स्त्री को सतरी या इस्तरी, इंद्र को इंदर, शब्द को शबद कहते हैं. लेकिन द्वयत्व की मात्रा होने की वजह से वे मम्मा, दद्दा,चम्मच,कथ्था, गय्या जैसे शब्दों का उच्चारण आसानी से कर लेते हैं. आज भी हिंदी ने इस द्वयत्व की मात्रा को नहीं अपनाया है. हिंदी को चाहिए कि अन्य भाषाओं की ऐसी खूबियों को स्नेह से अपने में समावेस करे और अपना सामर्थ्य बढाते रहे.

महाराष्ट्र में ज को झ सा जोर देकर उच्चरित किया जाता है. वहाँ ( मराठी भाषा में) अक्सर छोटे को तू व बड़ों को तुम कहकर संबोधित किया जाता है. "आप" शब्द शायद मराठी में काफी बाद में आया है इसलिए अभी केवल शिक्षित वर्ग ही इसका प्रयोग करता है।

इन तथ्यों को विचारने पर यह प्रतीत होता है कि जिस तरह ठंडे प्रदेशों में टाइट और गर्म प्रदेशों में ढीले पोशाक पहनना नियति है , जिस तरह ठंडे प्रदेशों में आमिष भोजन व मदिरा सेवन को आवश्यक सा बन गया है उसी तरह प्रदेशों की बोली में भी वहाँ के वातावरण का समुचित असर देखने को मिलता है. ऐसा देखा गया है कि ठंडे प्रदेशों कि भाषा अपेक्षाकृत सरल उच्चारण वाली होती है और गर्म प्रदेशों की भाषा कठिन उच्चारण वाली होती है. इसीलिए दक्षिण भारतीय भाषाएं उत्तर भारतीयों के लिए काफी कठिन है. भौगोलिक कारणों से शायद दक्षिण भारतीयों के जुबान में ज्यादा लचीलापन होता है जो उन्हें कठिन शब्दों का सही उच्चारण करने में सहायक होती है.

उधर आसाम में और इधर गुजरात के कच्छ इलाके में स को ह सा उच्चरित किया जाता है. ऐसा लगता है कि इन्ही किन्ही कारणों से सिंधी – हिंदी , सिंधु – हिंदू शब्द बने होंगे. सिंधु घाटी की सभ्यता  से ही शायद हिंदू घाटी की सभ्यता रही होगी. इससे हिंदुओं का संबंध होने का यह भी एक कारण हो सकता है.

हिंदी वर्णमाला में अक्षरों का रूप स्वरूप परिवर्तन भी काफी हुआ है. वर्तनी के नियम भी बने व बदले हैं. अ,झ,ख,ण,श्र,क्ष,त्र और ज्ञ अक्षर बाद की देन है पहले इन्हें अलग तरह से लिखा जाता था. लेखनी की सुविधा, विशिष्ट शब्दों में अक्षरों – अक्षरयुग्मों के बाच संशय ने इन की जरूरत को जन्म दिया. पहले ख अक्षर रव जैसा लिखा जाता था यदि इसे र और व  का युग्म पढ़ें तो अर्थ ही अलग हो जाता था, इसलिए इनके बीच जोड़ का प्रवधान देकर ख बनाया गया. पंचाँग को सही लिखना हो तो पञ्चाङ्ग लिखना होगा – सरलीकरण ने इसे नया रूप दिया. पंचमाक्षर नियम के अनुसार किसी भी शब्द में पूर्ण बिंदु ( अनुस्वार) के बदले उसके बाद आने वाले अक्षर के वर्ग का पंचमाक्षर ही लगाया जाना चहिए. या यों कहिए कि हर वर्ग के लिए एक अनुस्वार हमारी वर्ममाला में दिया गया है और उसे उस वर्ग के अक्षरो के साथ ही प्रयोग करना चाहिए. इसके उदाहरण हैं - पञचाङ्ग. भण्डार, चन्दन, कम्बल, इञ्च और कङ्काल. लेकिन इस दुविधा (?) से बचाने के लिए पूर्ण बिंदु (अनुस्वार) का सहारा लेकर हिंदी को सरलीकृत किया गया अब ऊपर के शब्दों को आसानी से – पंचाँग या पंचांग , भंडार, चंदन, कंबल, इंच व कंकाल सा लिखा जा सकता है. इसके साथ वर्ण माला में के हर वर्ग में अनुस्वार की आवश्यकता खत्म हो गई है और कुछ ही समय में यह अपने आप ही लुप्त हो जाएगा. ऐसा ही हाल हुआ था उऋण के साथ –यहाँ पहले बडी ऋ लिखी जाती थी जहाँ छोटी ऋ का प्रावधान हो गया बड़ी ऋ लुप्त हो गई.

वर्तनी के एक परिवर्तन से - हुआ का बहुवचन हुए तथा पाया का बहुवचन पाये – बना. यानि स्वर के बहुवचन में स्वर ब व्यंजन के बहुवचन में व्यंजन को स्थान दिया गया. इससे सरली करण हुआ और मूल रूप की जानकारी उपलब्ध रही.


क्रमशः

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