ऐसे
सिखाएँ हिंदी
मैं, मेरे हिंदी की शिक्षिका के साथ
किसी भी भाषा को
सीखने का पहला चरण होता है बोलना। और
बोलना सीखने के लिए उस भाषा का अक्षरज्ञान
जरूरी नहीं होता। किसी को बोलते हुए देखकर सुनकर, वैसे
उच्चारण का प्रयास कर किसी भी भाषा को बोलना सीखा जा सकता है। बहुत से लोग तो
विभिन्न भाषाओं के सिनेमा देखकर ध्वनि व चित्र के समागम से ही शब्द का उच्चारण और
अर्थ सीख लेते हैं। दोस्तों व परिवारजनों के साथ बात करते करते नए शब्दों को सीखना
और उनका सही उच्चारण करना आसान हो जाता है। इस तरह समाज में रहकर समाज की भाषा
बोलना सीखना एक बहुत ही आसान जरिया है। पर ऐसे में इस बोली में कुछ गलतियों का
समावेश सहजता से हो जाता है।
अगला कदम होता है
लिखना – पढ़ना, जो बोलने के साथ - साथ भी सीखा जा सकता है। वैसे केवल पढ़ना भी कुछ
अतिरिक्त मेहनत करके सीखा जा सकता है। इसी दौरान बोलने की प्रक्रिया के उच्चारण
दोष सही किए जा सकते हैं। अन्यथा ये हमेशा - हमेशा के लिए घर कर जाते हैं। इसलिए
शिक्षकों को चाहिए कि लिखने - पढ़ने की प्रक्रिया के दौरान शिक्षार्थियों के
उच्चारण पर विशेष ध्यान देकर उनमें आवश्यक सुधार करना चाहिए। गलत उच्चारण के कारण ही
लेखन में वर्तनी की गलतियाँ होती हैं और भाषा में अशुद्धता आ जाती है।
अक्षर
और मात्राओँ को सिखाने - सीखने के दौरान शिक्षकों
को निम्न विषयों पर ध्यान देना चाहिए –
1.
म और भ में शिरोरेखा (मस्तक रेखा) की गलती से भ्रम हो
जाता है किंतु इस पर ध्यान नहीं जाता कि म और भ में एक घुंडी का भी फर्क है। इस
घुंडी का ख्याल करने से शिरोरेखा की गलती का कोई असर नहीं होगा।
2.
घ और ध में भी शिरोरेखा
(मस्तक रेखा) की गलती से भ्रम हो जाता है किंतु इस पर ध्यान नहीं जाता कि घ और ध
में भी एक घुंडी का भी फर्क है। इस घुंडी का ख्याल करने से शिरोरेखा की गलती का
कोई असर नहीं होगा।
3.
क और फ में भी समानता
होते हुए भी फर्क है। यदि क की गोलाई शिरोरेखा से जुड़ जाए तो फर्क मिट जाता है।
इसलिए क की गोलाई को शिरोरेखा को बचाकर ही लिखा जाना चाहिए।
4.
प, य और थ – प की गोलाई
में थोड़ी सी वक्रता से वह य का आकार ले लेता है। इस पर ध्यान दिया जाना चाहिए। उस
पर य में घुंडी मात्र के फर्क से यह थ का रूप ले लेता है।
इसी तरह ङ और ड़
में नुक्ता की स्थिति पर गौर करना जरूरी है।
शिक्षकों को
चाहिए कि वे शिक्षार्थियों को इन फर्कों से अवगत कराएँ एवं सुनिश्चित करें कि वे
इन गलतियों को करने से बचें।
इसी तरह मात्राओं
ए (के) और ऐ (कै) में फर्क भलीभाँति
समझाया जाए। आज भी बच्चे एक में ए पर मात्रा लगाते पाए जाते हैं। उन्हें शायद इस
बात का ज्ञान नहीं होता कि ए में ही मात्रा निहित है, इसके बदले ही मात्रा लगाई
जाती है। ऐ में एक मात्रा अक्षर की है और दूसरी लगाई गई है। किसी अन्य वर्ण में ए
के लिए एक मात्रा और ऐ के लिए दो मात्राएँ लगती हैं ( जैसे के और कै)।
इनके अलावा
मात्राओँ के प्रयोग में विशेषकर सिखाया जाना चाहिए कि निम्न वर्णों में मात्राएँ
सामान्य वर्णों से भिन्न तरीके से लगाई जाती है। यह वर्ण विशेष रूप में लिखे जाते
हैं।
जैसे रु, रू, हृ।
साधारणतः उ और ऊ की मात्राएँ वर्ण के नीचे
लगाई जाती है, पर र में यह पीठ पर लगती है। वैसे ही ऋ की मात्रा साधारणतः पैरों पर
लगती है, पर ह वर्ण में कमर पर लगाई जाती है। ह वर्ण के साथ जुड़ने वाला हर वर्ण
कमर पर ही जुड़ता है. जैसे आह्लाद, आह्वान, असह्य , चिह्न, अल्हड़, दूल्हा,
कान्हा, और उन्होंने। आप चाहें तो इन्हें अपवाद कह सकते हैं और इसीलिए इन पर विशेष
ध्यान देना जरूरी है। रु और रू पर विशेष ध्यान देना इसलिए भी जरूरी है कि र पर ऊ
की मात्रा पीठ से सटी नहीं होती, बीच में एक छोटी लकीर होती है जिसे अक्सर नजरंदाज
किया जाता है। वैसे ही श पर र की टँगड़ी लगने पर उसका रूप बदल कर श्र हो जाता है।
मात्राओँ में एक
और मात्रा है जिस पर विशेष ध्यानाकर्षण की आवश्यकता है। वह है र की मात्रा। निम्न
शब्दों पर गौर करें।
प्रथम, पर्यटन, ट्रक।
क्रम, कर्म,
ट्रेन।
अब इनके विस्तार
देखिए –
प्रथम – प्
+ र + थ + म - (र पूरा है)
पर्यटन – प
+ र् + य + ट + न - ( र आधा है)
ट्रक - ट् + र
+ क - (र पूरा है)
क्रम
– क्
+ र + म - (र पूरा है)
कर्म – क
+ र् + म - ( र आधा है)
ट्रेन – ट्
+ रे + न - (र पूरा है)
इनमें आप देखेँगे
कि सभी शब्दों में र आधा नहीं है, जैसे कि आभास होता है।
जहाँ र की मात्रा
पैरों पर है वहाँ अक्षर आधा है, पर र पूरा है।
इसे (क्र) र की
टँगड़ी कहते हैं, जो गोलाकार वर्णों में ट्र जैसी हो जाती है।
र की जो मात्रा
सर पर टोपी जैसे लिखी जाती है उसे र का रेफ कहा जाता है और उसमें र आधी होती है।
ध्यान
दीजिए कि अन्य भारतीय भाषाओं की तरह हिंदी में भी मस्तक पर लगने वाली व्यंजन
मात्रा का (शिरोमात्रा) उच्चारण अक्षर से पहले होता है और पैरों पर लगने वाली
मात्राओं का (पदमात्रा) उच्चारण अक्षर के बाद होता है।
पर इसमें एक
अपवाद भी है – अनुस्वार।
देखिए शब्द चंदन
को – अनुस्वार को हटाकर लिखें तो पंचमाक्षर नियमानुसार चन्दन लिखा जाना चाहिए।
यानी अनुस्वार को हटाकर उसकी जगह अगले वर्ण वर्ग के पंचमाक्षर स्थित अनुस्वार वर्ण
का प्रयोग करना चाहिए। इस तरह देखा जा सकता है कि अनुस्वार मस्तक पर लगते हुए भी
अक्षर के बाद उच्चरित होता है। इसी तरह कंगन (कङ्गन), मुंडन (मुण्डन), बंधन (बन्धन),
चंबल (चम्बल) लिखे जाते हैं। ऐसा देखा गया है कि हिंदी में स्नात्तकोत्तर
विद्यार्थी भी पंचांग शब्द को बिना अनुस्वार के लिखने से कतराते हैं । इसे सही में
पञ्चाङ्ग लिखा जाना चाहिए। यहाँ एक बात ध्यान देने योग्य है कि वैयाकरणों ने
पंचमाक्षर नियम बनाकर वर्गों के अनुस्वार की समस्या तो हल कर दिया, पर वर्गेतर
वर्णों की समस्या तो जस की तस है।
हिमाँशु या हिमांशु - इसे अनुस्वार बिना कैसे
लिखें हिमान्शु या हिमाम्शु तय नहीं है। सारा दारोमदार निर्भर करता है कि आप शब्द
को कैसे उच्चरित करते है। अब यह तो वैयक्तिक समस्या हो गई न कि व्याकरणिक। इसीलिए
शायद वर्गेतर वर्ण वाले शब्दों में
अनुस्वार को पंचमाक्षर से विस्थापित करने का प्रावधान नहीं है।¶ÆÉÞगार
अब कुछ वर्तनी की
ओर –
1. आधा श –
गोलाकार वर्णों के साथ आधा श – विश्व सा लिखा जाता है, पर कोनों वाले वर्णों के
साथ काश्मीर सा लिखा जाता है। कुछ शब्द हैं जिनमें दोनों तरह की लिपि मानी जा रही
है - जैसे पश्चात, आश्वासन, कश्ती इत्यादि।
2. ऐसा ही
एक शब्द है - (¶ÆÉÞगार ) शृंगार , यहाँ आधे श पर ऋ की मात्रा लगाई जा
रही है, जो अपवाद है (ऐसा कहा जाता है कि मात्रा लगने पर हर वर्ण व्यंजन का रूप ले
लेता है। इस अर्थ में शृ में भी श आधा ही है)। लेकिन अक्सर लोग इसे श्रृंगार लिखते
हैं, जो एकदम ही गलत है। शृंगार मे श पर ऋ की मात्रा है, जबकि श्रृंगार में श के
साथ आधा र भी जुड़ा है और उस पर ऋ की मात्रा है।
कुछ दक्षिण
भारतीय भाषाओं के वर्ग में दो ही अत्क्षर
होते हैं. जौसे क और ङ। इसलिए उन्हें ख,
घ, छ झ के उच्चारण में तकलीफ होती है. संभव है कि वे ‘खाना खाया’ और ‘गाना गाया’ का उच्चारण ‘काना काया’ की
तरह ही करें। इसी तरह वर्ग का तीसरा अक्षर न होने के कारण वे ग, ज,ब,द का भी सही
उच्चारण नहीं कर पाते। वे गजेंद्रन को कजेंद्रन कहेंगे। कमला व गमला की वर्तनी एक
सा लिखेंगे, फिर पढ़ने में अदला - बदली हो जाएगी। ऐसी
जटिलताओँ पर शिक्षकों का ध्यानाकर्षण आवश्यक है ताकि वे समय पर विद्यार्थी के उच्चारण
में सुधार कर सकें। शिक्षकों को चाहिए कि इस तरह की त्रुटियों को बालपन में सुधार
दिया जाए। उम्र के बढ़ने पर सुधार में बहुत कठिनाई होती है। उच्चारण की गलतियाँ
अक्सर वर्तनी में देखी जाती हैं। शब्द विद्यार्थी में द और य का मिश्रण है और
संयुक्ताक्षर द्य बना है. अक्सर लोग ध्य को द्य समझने की गलती करते हैं। इस पर विशेष
ध्यान दिया जाना चाहिए। पता नहीं क्यों भाषाविदों ने श्र को तो संयुक्ताक्षर माना
पर द्य को नहीं। इसी तरह दिल्ली व उत्तरी राज्यों में राजेंद्र को राजेंदर उच्चरित
किया जाता है क्योंकि गुरुमुखी लिपि में अक्षरों को आधा करने का प्रावधान नहीं है,
पर द्वयत्व का प्रावधान है। शिक्षकों को इस पर विशेष गौर करते हुए उचित सलाह देकर
त्रुटियों का निवारण करना चाहिए।
अब आईए अनुनासिक
व अनुस्वार के प्रयोग पर। वैसे वर्तनी के आद्यतन नियमों के अनुसार तो जहाँ शब्दों
या तात्पर्यों का हेर - फेर न हो, वहाँ अनुनासिक की जगह अनुस्वार का प्रयोग हो
सकता है। पर जिसे पता होगा वह गलती करेगा ही क्यों ? सबसे उत्कृष्ट उदाहरण
हैं - हँस (हँसने की क्रिया) और हंस ( एक
जलचर पक्षी)। अब सवाल आता है कि किसका कहाँ प्रयोग उचित है। एक नियम जो जानने में आया है वह यह कि जहाँ
अनुस्वार या अनुनासिक वाले शब्द को वर्ग के अंतिम अनुस्वार के साथ लिखा जा सकता है,
वहाँ अनुस्वार लगेगा, वर्ना अनुनासिक। जैसे मंगल ( मङ्गल), चाँद ( इसे चान्द लिखने
से उच्चारण बदल जाता है, अतः यहाँ अनुनासिक ही लगेगा)।
जब किसी शब्द में
वर्ग के पंचमाक्षर का ही द्वयत्व हो, या पंचमाक्षरों का ही समन्वय है तो उसे
अनुस्वार से विस्थापित नहीं किया जा सकता ।
उसे आधे अक्षर के साथ ही लिखा जाना चाहिए। जैसे हिम्मत, उन्नति, जन्म,
कण्णन इत्यादि। इनको हिंमत, उंनति, जंम, कंणन नहीं लिखा जा सकता।
अनुनासिक का
प्रयोग अक्सर वहाँ होता है जहाँ मात्राएँ शिरोरेखा पर न लगी हों – जैसे बाँध,
फँसना, गूँज इत्यादि। जहाँ शिरोरेखा पर मात्राएँ हों तो वहाँ अनुनासिक की जगह अनुस्वार का ही प्रयोग होता है। जैसे में, मैं,
चोंच, भौंकना इत्यादि। याद रहे कि पहले में और मैं में भी अनुनासिक लगाया जाता था।
अब आते है कुछ
शब्दों के विशिष्ट उच्चारण पर – ‘ब्राम्हण’
उच्चरित होता है पर लिखा जाता है ‘ब्राह्मण’।वैसे ही आल्हाद कहा जाता है पर आह्लाद लिखा जाता है.
वैसे ही आर्द्र,
सौहार्द्र इत्यादि । शिक्षकों को चाहिए कि ऐसे विशेष शब्दों के उच्चारण व वर्तनी
पर विशेष ध्यान देते हुए विद्यार्थियों को लभान्वित करें।
इन सबसे हटकर एक
और समस्या जो मुख्य तौर पर देखी गई है कि प्रादेशिक भाषा का उच्चारण - जो
विद्यार्थियों के हिंदी उच्चारण में आ जाता है. शिक्षकों को चाहिए कि वे बालपन से
ही इस त्रुटि का निवारण करने का प्रयत्न करें। सही उच्चारण से लिपि में वर्तनी की
शुद्धता बढ़ती है।
आशा है कि शिक्षक
गण, इसमें से जो भी स्वीकार्य हो, उससे बच्चों को लाभान्वित करेंगे।
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जवाब देंहटाएंनिशा जी, बहुत बहुत आभार आपका. आप ने इससे पहले भी मेरी रचनाओं को सराहा है.पर ब्लॉग पर मुझे वे टिप्पणियाँ दिख नहीं रही हैं. यदि ऐतराज न हो तो अपने संपर्क साझा कीजिए. तहे दिल से शुक्रिया. रचनाएं बिना छूटे पढ़ने के लिए आप ब्लॉग में शामिल हो सकती हैं. मेरी प्रकाशित रचनाएं (पुस्तकों)के लिए आप संपर्क करें. मेल laxmirangam@gmail.com, WATSAPP 8462021340, VOICE PHONE 7780116592.
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