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सोमवार, 4 मई 2015

कैंसर के कारक - तंबाखू और शराब


कैंसर के कारक - तंबाखू और शराब

बहुत बार सुना कि देश में, देश के किसी राज्य में या शहर में गाँधी जयंति पर मदिरा निषेध किया गया है. बचपन में यह बहुत अच्छा लगता था क्योंकि तब का आभास था कि भारतीय नेता - जनता गाँधी जी का सम्मान कर रही है. बड़े होते - होते इस का विशेष कारण पता चला और वह अच्छा लगना धीरे - धीरे कमता गया.

बहुत समय से भारत में तंबाखू व शराब की खपत को रोकने के लिए प्रयास जारी हैं. इसमें एक तरफ तो जनता के स्वास्थ्य की चिंता दिखती है लेकिन इस मद से बरामद आय के कारण इसे अमल में लाया नहीं जा पा रहा है. शराब व तंबाखू (आबकारी विभाग) से प्राप्त आय सही मायने में एक बड़ी रकम होती है जिसके बिना, एक समय सरकार चलाना काफी तकलीफ दायक होता था. इसके दूसरे भी पहलू हैं कि इसे रोका न जा सका. और इन कारणों से सरकार को जनता की सेहत की चिंता से मुक्त होना पड़ा.

हाल ही में कहीं पढ़ा है किसी ने मोदी जी को सुझाव भेजा है कि इन के दामों में दो - तीन गुना वृद्धि कर दी जाए एवं अतिरिक्त धन को उनके परिवार वालों के खाते में सब्सिड़ी के रूप में दे दिया जाए. इससे कुछ फायदे बताए गए हैं एक यह कि सरकार को ज्यादा कमाई मिलेगी. दूसरा कि परिवारों को भी रकम मिलेगी, इसलिए इनके सेवन का प्रतिरोध नहीं होगा. तीसरा कि सेवन करने वाला, ज्यादा खर्च के कारण सेवन में कटौती करेगा. चौथा कि बैंकों के खातों की संख्या बहुत बढ़ जाएगी. इन सबके अलावा इन उत्पादों को बनाने वाली कंपनियाँ भी फलेंगी – फूलेंगी और उनमें काम करने वाले मजदूर भी बेरोजगार नहीं होंगे. लेकिन मेरा मानना है कि कीमतें बढ़ाने पर भी परिवार वालों तक सबसिड़ी पहुँचाना लगभग असंभव काम है.

मुझे इसमें एक ही तकलीफ नजर आती है कि इनके सेवन करने वाले का धन सबसिड़ी रूप में उनके परिवार वालों तक पहुँचाने के लिए कोई तरकीब खोजनी होगी और इसके लिए एक प्रणाली बनानी पड़ेगी जो बहुत ही जटिल क्रिया है. यदि ऐसा हो सका तो सुझाव वाकई फायदेमंद होगा. हाँ सब का सामंजस्य सामाजिक परिस्थितियों के अनुकूल होगा जो किसी के हाथ में नहीं होगा.

एक और मुद्दा इन दिनों अखबार की सुर्खियों पर था – कि तंबाखू व शराब के सेवन से कैंसर होता है. जिस समिति को तंबाखू पर अंकुश लगाने के लिए चेतावनियों का आकार बढ़ाने को कहा गया, उसके सदस्य ही बोल पड़े कि  “तंबाखू के सेवन से कैंसर नहीं होता. कम से कम ऐसे किसी निष्कर्ष पर पहुंचने वाला कोई अध्ययन या तो हुआ ही नहीं है या फिर उसकी कोई रिपोर्ट सरकारी दस्तावेजों में उपलब्ध नहीं है. हंगामा तो होना ही था. बात जब खुली
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तो पता लगा कि जिन्होंने तंबाखू से कैंसर नही होने की बात कही थी, वे सब तंबाखू के व्यापार में किसी न किसी तरह से शामिल थे. बात थी कि तंबाखू के सेवन को कम करने के लिए व लोगों को शिक्षित करने के लिए सिगरेट पैकेटों व बीड़ी बंडलों पर दी जा रही चेतावनी को बड़ी दिखाने की. लेकिन बात ने कहीं और ही तूल पकड़ ली.

आज यह एक नया प्रश्न जनता के सामने खड़ा हो गया कि तंबाखू के सेवन से कैंसर होता है या नहीं. मैंने साथ में मदिरा पान को भी इसमें शामिल कर दिया है. बचपन में सुनते थे कि फलाँ व्यक्ति को कैंसर हो गया है और कहने वाला साथ ही दबी आवाज में यह भी कहता था कि बहुत ज्यादा शराब पीता था ना या पान - तंबाखू खाता था ना. यह बस इतनी सी बात, इतनी बार  सुनते थे, कि एक तथ्य सा प्रतीत होने लगा कि तंबाखू खाने (सेवन) ने से या शराब पीने से ही कैंसर होता है.  अब ऐसा लगता है कि हो न हो इस तरह की बातों से लोगों को शराब व तंबाखू से दूर रखना ही प्रमुख मकसद था. जहाँ तक मुझे जानकारी है मैं अपने ढंग से इसकी चर्चा कर रहा हूँ.

शराब खास तौर पर दो तरह की मानी जाती है. एक विदेशी जो नियामक स्तर के ब्रॉँडों की होती है और दूसरी देशी - जिसे दारू भी कहा जाता है. दारू की अपेक्षाकृत विदेशी शराब कीमती भी होती है और इसका असर भी नियमित होता है. शराब, अल्कोहल की वजह से शरीर पर असर करती तो है किंतु शराब सेवन की मात्रा व उसके साथ की खुराक निर्धारित करती है कि कितना असर करेगी. साथ ही साथ पानी, सोड़ा, कोल्ड ड्रिंक इत्यादि के साथ, मिलाकर पीने से भी शराब के असर में फर्क आता रहता है. कई तो बिना किसी मिलावट के सीधे बोतल से उंडेली शराब (नीट) पी जाते हैं. ऐसे लोगों पर यह बहुत ही ज्यादा असरकारक

होती है.  शराब के कारण शरीर के अंदरूनी भागों में जहाँ से शराब गुजरती है, घाव हो जाते हैं और धीरे - धीरे नासूर में बदल जाते हैं. जानकारी न हो पाने से या फिर समय पर सावधानी न बरतने से यही घाव एक समय कैंसर का रूप लेते हैं. घाव गंभीर होने पर उनमें से खून रिसने लगता है और जब इसकी मात्रा बढ़ जाती है तो खून उल्टियों के रास्ते बाहर आता है जो अंतकाल का द्योतक होता है. शराब का सबसे पहला असर एपेंडिक्स और लीवर पर होता है. इन पर असर होने पर ये फूलने लगते हैं. दोनों फूलते - फूलते अंत में फट जाते हैं  और व्यक्ति को खून की उल्टियों होने लगती हैं. एपेंडिक्स को लोग शरीर का डस्ट बिन (कचरे का डिब्बा) कहते हैं.

बात गौरतलब है कि डॉक्टर खासकर सर्दियों में ब्राँडी पीने की सलाह देते हैं किंतु मात्र एक या आधा पेग. वैसे ही छोटों को (कुछ महीने के बच्चों को भी दो एक बूंद डॉक्टर्स ब्राँडी दवा रूप में दी जाती है. बहुत छोटों को ब्राँडी में रूई भिगोकर एक छोटी बूंद नाक में डाली जाती है कि सर्दी दूर रहे. लेकिन इन सब में ब्राँडी की मात्रा काफी कम एवं एकदम नियंत्रित होती है. बड़ों के लिए भी प्रचलित है कि भरी सर्दी में गरम पानी में बना एक पेग (जाम) रम पीकर शरीर को ढँक कर रखने से सर्दी जाती रहती है. बात जहाँ बिगड़ती है वह यह कि पेग एक तक सीमित नहीं रह पाते और पीने के बाद भी शरीर को खुली हवा में छोड़ दिया जाता है . फलस्वरूप शरीर की गर्मी निकल जाती है और सर्दी बढ़ जाती है. यह ठीक वैसा ही है कि गर्मी में पसीने से तर घर आते ही पसीना सूखने से पहले ही फ्रिज से निकाल कर भर पेट पानी पी लिया – नतीजा तो सब जानते हैं गले में इन्फेक्शन हो जाता है, गला बैठ जाता है. फिर डॉक्टर की दवाई खाते हैं.

देशी शराब, जो जगह - जगह अपने - अपने तरीके की बनाई जाती है, का कोई मानक नहीं होता. इसलिए इसके असर के बारे में कोई निश्चित तौर पर कह नहीं सकता, लोग ज्यादा नशा पाने के लिए तरह - तरह की चीजें मिला कर इसे (दारू को) नशीला बनाते हैं जब नशे की सीमा एक हद से आगे बढ़ जाती है तो यह विषैला हो जाता है और तुरंत मौत का कारण बनता है. नशे के बढ़ते स्तर से उसका असर भी बढ़ता जाता है. नशे के साथ ठंडक, मिठाई, ताँबे के मिश्रण खतरनाक फल देते हैं.  ऐसा भी सुना है कि बेहद नशा करने वाले देशी शराब में धतूरा भी मिलाते हैं जो खुद ही पागल करने में सक्षम होता है. एक बार एक गाँव में किसी ने कहा था. कि जो एक बार में एक बोतल विस्की पी लेता है, इस देशी शराब का वह एक पेग भी नहीं पी पाएगा. सच दूसरा घूँट भी चखा नहीं गया.

विदेशी शराब तो अपनी कीमतों के कारण हर किसी को नसीब नहीं होती. इसलिए लोग देशी दारू की तरफ भागते हैं. इसका चलन तो बंद ही कर देना चाहिए तंबाखू और शराब से देश को कितनी मुद्रा राजस्व में मिलती है यदि इसकी कल्पना कर सकें तो लगेगा कि इसके लिए शराबखोरी को बढ़ावा दिया जाना चाहिए. लेकिन जन साधारण का भी तो मन रखना पड़ता है ना. कुछ कारण ऐसे भी हैं जिनकी वजह से देशी शराब का बंद होना ना मुमकिन है. इनकी चर्चा हम बाद में करेंगे. अब आते हैं तंबाखू के सेवन के बारे में – जो सस्ती होने के कारण हर किसी को उपलब्ध रहती है.

तंबाखू के सेवन की कई विधियाँ हैं जिनमें खैनी (चूने के साथ मल कर खाने वाली प्रक्रिया), गुड़ाखू (दंत मंजन जैसे प्रयोग में लाना). जरदा (तंबाखू) वाला पान, बीड़ी – तंबाखू पत्ते में लपेटे तंबाखू को जलाकर उसके धुएं का सेवन करना, सिगरेट (स्टाईल से फिल्टर लगाकर कागज के रोल में तंबाखू को जलाकर धुएं का सेवन करना. इनके अलावा दो प्रमुख व विशेष तरीके हैं चुरुट (सिगार व पाईप) चुरुट तंबाखू के पत्ते में लपेटा तीक्ष्ण सुगंधित तंबाखू होता है. एक चुरुट एक बार तो पीया ही नहीं ज सकता. लोग हर बार जलाकर दो - तीन कश मारते हुए दो- चार दिन में एक सिगार पीते हैं. सबसे पुराना तरीका है – हुक्का. इसका चलन इतना ज्यादा है कि लोग कहते हैं – इसका हुक्का पानी बंद कर देंगे यानी खान – पीना बंद.

पाईप में हर बार साफ कर नया तंबाखू भर कर जलाने की सुविधा उपलब्ध है. उसका धुआँ फिल्टर से होकर गुजरता है. सबसे पुराना व प्रचलित तरीका है – हुक्का. जिसमे आंगारों पर तंबाखू छिड़की जाती है और धुएँ को पानी से पार करा कर सेवन किया जाता है. इसमें यंत्र के हर भाग की सफाई संभव है तथा समयानुसार पानी भी बदलते रहने की सुविधा है.



इस तरह हम समझ सकते हैं कि खैनी सबसे खतरनाक तरीके का तंबाखू सेवन है. उसके बाद है गुड़ाखू. कम मात्रा में किया गया सेवन कम हानिकारक होता है. किंतु खैनी खाने वाले हमेशा उसे मुँह में दबाए रहते हैं. हद तो वे लोग करते हैं जो तंबाखू मुँह में दबाकर सो भी जाते हैं. इससे होंठों, मसूढ़ों व गालों बीच घाव हो जाते हैं. यही बढ़ते बढ़ते नासूर बन जाता है और कैंसर पर जाकर रुकता है. दिन में एक दो बार करने – मलने पर  गुड़ाखू दवा का काम करती है और पेट साफ रखती है. हाजमा व गैस की तकलीफों से निजात दिलाती है लेकिन लोग दवा नहीं नशा करते हैं. फलस्वरूप यह दो बार नहीं बीस बार हो जाती है जो पेट के अंदरूनी भागों को नुकसान पहुँचाती है. तंबाखू वाला पान खैनी का ही एक बदला हुआ रूप है इसमें और भी सामान समाते हैं इसमें भी तंबाखू का रस पेट में जाता है तथा कमोबेश खैनी जैसा ही असर करता है. खैनी और पान खाने वाले पहली पीक को थूकना पसंद करते हैं क्योंकि उसमें तंबाखू के रस की मात्रा बहुत ज्यादा होती है. कुछ बाद में भी थूकते रहते हैं फलस्वरूप वे आस पास के दीवारों, सड़कों व कोनों को गंदा करते रहते हैं. पेट में जाने वाला तंबाखू का रस शरीर के अंदरूनी भागों पर प्रतिक्रिया करता है और धीरे धीरे वहाँ घाव उत्पन्न करता है. जो बढ़ते बढ़ते नासूर बनता है उसके बाद की हालातों के चलते वही नासूर कैंसर का रूप धारण करता है.

अब चलिए धूम्रपान पर. सबसे सरलतम व सस्ता उपाय बीड़ी. बीड़ी की खासियत है कि कश न लगाने पर वह बुझ जाती है. इसके उड़ते हुए अंगारे कपड़े जला देते हैं . इसलिए अक्सर पाएंगे कि बीड़ी पीने वाले के कुर्ता या कमीज में छेद जरूर होंगे. बीड़ी पीने वाले इसके बुझने के गुण का इस्तेमाल करते हुए एक ही बीड़ी को जलाकर, बार - बार पीते हैं. कहा जाता है कि पुनः जलाई हुई बीड़ी का धुआँ ज्यादा विषाक्त होता है क्योंकि उसमें जले तंबाखू के कार्बन का धुआँ मोनो ऑक्साईड व डाई ऑक्साईड भी ज्यादा मात्रा में होते हैं. यह श्वास प्रणाली व दिल पर असर करता है. अक्सर बीड़ी पीने वाले खाँसते नजराएँगे. उन्हें टी बी की बीमारी होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है. यह तो बीड़ी के साथ खैरात में मिलती है. जो घाव शरीर के भीतर उभरते हैं वही नासूर बनकर कैंसर की राह लेते हैं.

यदि बीड़ी के एक ही बार जलाने का प्रण कर लें तो कई लोग बीमारियों से बच सकते हैं. ऐसे लोगों के लिए सरकार या बीड़ी सिगरेट कंपनी वाले छोटी साईज की बीड़ियाँ या सिगरेट बना सकते हैं.

सिगरेट में फिल्टर होने के कारण धुआँ छन कर आता है और उससे श्वास नली में कार्बन व तंबाखू के अंश नहीं आते. यहाँ तक तो ठीक है किंतु धुएं के साथ बाहर लिपटे कागज का धुआं भी तो श्वास में जाता है.. यह कश नहीं मारने से भी जलता रहता है और पास पड़ोस के लोगों को जबरन धूम्रपान कराते रहता है. इसलिए सिगरेट, पीने वाले से ज्यादा, उनके साथ रहने वालों के लिए ज्यादा हानिकारक है. यही क्रिया पेसिव स्मोकिंग कही जाती है. जो खुद धूम्रपान करता है, उसे एक्टिव स्मोकिंग  कहते हैं.

इसी कारण सार्वजनिक स्थलों पर धूम्रपान की सख्त पाबंदी तुरंत जरूरी है. हमारे देश में कानून तो बनते हैं पर पालन नहीं होता . यह हर क्षेत्र का रोना है.

सिगार बड़े लोगों के स्टाईल होते हैं. वे मात्र दिखावे के लिए पीते हैं. लेकिन पूर्व व दक्षिणी गाँवों में मजदूर (स्त्रियाँ भी) आदतन चुरुट पीते हैं. उनका वे उत्कृष्ट बीड़ी सा प्रयोग करते हैं और बीड़ी जनित बीमारियों के बड़े रूप में आह्वान करते हैं. उन लोगों को टीबी जैसी श्वास की बीमारी होती है. बिगड़े हुए हालात कैंसर का रुख करते हैं.

आज भी तंबाखू सेवन का सबसे पुराना व उत्तम तरीका है हुक्का. जो पहले राजा महाराजा शौक के तौर पर रखते थे . लेकिन गाँवों के चौपालों में सार्वजनिक हुक्का होता है. सही ख्याल न करने पर एक दूसरे की लार आपस में मिलती है और बीमारियाँ यहाँ से वहाँ आती जाती हैं. इसमें तंबाखू का धुआँ पानी से छन कर आता है. साफ रखने पर इससे बढ़िया तरीका अब तक देखा नहीं गया है. पर कितने इसे केवल अपने लिए रखते हैं और नियमित तौर पर साफ करते रहते हैं या पानी बदलते रहते हैं इसपर अनुसंधान की जरूरत है.

इन सब परिस्थितियों व तरीकों को जानने के बाद यह कहना आसान हो जाता है कि तंबाखू या मदिरापान कैंसर  का कारक बन सकता है. लेकिन कोई जरूरी नहीं कि हर तंबाखू खाने वाले को या मदिरापान करने वाले को कैंसर हो. यह सब निर्भर करता है कि वह कितनी सावधानियाँ बरतता है. मैं ऐसे व्यक्तियों से भी परिचित रहा हूँ जो जृंदगी के आधे से ज्यादा समय तक पान खाते रहे या सिगरेट पीते रहे.  लेकिन जीवन भर कभी भी उनको कैंसर की शिकायत नहीं हुई. साथ में ऐसे लोगों से भी परिचित हूँ, जिनने किसी भी रूप में तंबाखू को नहीं चखा किंतु कैंसर से पीड़ित हैं. हाँ जिन लोगों ने सारी हदें पार कर तंबाखू का सेवन किया और मदिरापान किया उनको कैंसर होने की संभावना तो बढ़ ही जाती है.

(https://macarisms.files.wordpress.com/2012/10/lungcancer.jpg)

इन सब से मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचता हूँ कि मात्र तंबाखू या मदिरा ही कैंसर के कारक नहीं हैं. उसके साथ असावधानियाँ कैंसर को ज्यादा करीब खींचती हैं. सेवन के तरीके के साथ सावधानियाँ बरतने का सही क्रम चले तो शायद तंबाखू व मदिरा भी कैंसर के कारक न ही बनें.

फिर भी यह तो सर्व विदित है कि जब सेवन में किसी तरह की असावधानी से तकलीफ हो सकती है तो सेवन करना त्यागने में बुराई ही क्या है. और हमारे बुजुर्गों ने यही तरीका अपनाया और मदिरा व तंबाखू को गैर सामाजिक करार दिया – इससे असहमत होने का कोई कारण नजर नहीं आता.

शराब पीकर हुड़दंग करने वालों के खिलाफ उठने वाले आवाज को जबरन तो दबा नहीं सकते. उन्हें भी तो एहसास कराना पड़ता है कि हम आपके साथ हैं. सड़कों पर नशाखोरी की हालत में किए गए दंगों की वजह से हो रही कमाई से भी कुछ लोग पलते हैं. शराबियों को लूटने वाला भी एक तबका है. शराब के बाद कबाब व शबाब की बिक्री भी बढ़ती है वरना उनका हिसाब कैसे चलेगा.

इस तरह शराब से केवल मुसीबतें ही नहीं, खुशीबतें भी आती हैं. इसी कारण शराब को रोकने की बात, कर तो सकते हैं किंतु रोक नहीं सकते. शराब बनाने वाले, कच्चामाल इकट्ठा करने वाले, दिन भर की मेहनत के बाद शाम को शराब पीकर मस्त रहने वाले मजदूरों की जिंदगी में शराब एक अहम चीज है.

कितनों को इससे वंचित कर सकोगे. कहाँ तक न्यायोचित है. शराब की फेक्टरियाँ रखने वाले रसूखदारों का क्या होगा.  शराब की बिक्री में लगी तमाम जनता कहाँ से कमाएगी - खाएगी. बोतल बनाने वाले, उस पर का लेबल बनाने वाले, पैक करने वाले, फिर माल ढोने वाले, मालवाहक गाडियों के मालिक, गाड़ियाँ चलाने वाले ड्राईवर, किलीनर व उनकी मरम्मत की दुकान खोल बैठे मालिक व वहाँ के मेकानिक हेल्पर इत्यादि, कितनी एजेंसियों से होकर शराब दुकानों तक पहुँचती है. इन सब एजेंसियों के कामगार बेकार निरुद्योगी हो जाएंगे. कितने लोगों पर कहर बरपेगा. कभी सोचा है इनकी तादाद कितनी होगी. करोडों के पार तो होगी ही.

अब उनकी क्या बात करें जो सिगरेट से सारा तंबाखू निकाल कर उसके साथ कुछ और नशीली चीजें (गाँजा, चरस इत्यादि) मिलाकर सेवन करते हैं. हो सकता है कुछ देर के लिए वे स्वर्ग का आंनंद पाते हों लेकिन जल्दी ही वे स्वर्ग का भी अनुभव करते हैं स्वर्ग- वासी होकर. अपने आप को स्वर्ग पहुँचाने का यह एक उत्तम उपाय लगने लगा है.

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सारे चित्र साभार इंटरनेट से लिए हुए हैं.
एम.आर.अयंगर.






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