मेरा आठवाँ प्रकाशन / MY Seventh PUBLICATIONS

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शुक्रवार, 16 फ़रवरी 2018

तबाही

तबाही

वे चाय ही पीने आए थे, दूध का
पतीला ही उँडेलकर चले गए.
इक रात ही रहने आए थे,
वो, घर ही जलाकर चले गए.

बस बहार का रस लेने,
बगिया में विहार को आए थे,
फूलों की महक के नशेमन वे,
पतझड़ सी आँधी बहा गए.

नदिया के यौवन को तरसे,
भरपूर निहारने आए थे,
नदिया तो उफान प'आ पहुँची,
हर फसल सड़ाकर चले गए.

वे खुद ही लुटने आए थे, 
पर लूट मचाकर चले गए,
घर - दीप जलाने आए थे
गृह दीप बुझाकर चले गए.
.......

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