मेरा आठवाँ प्रकाशन / MY Seventh PUBLICATIONS

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शनिवार, 9 अप्रैल 2022

ऐसे सिखाएँ हिंदी

 



ऐसे सिखाएँ हिंदी

 

किसी भी भाषा को सीखने  का पहला चरण होता है बोलना। बोलना  सीखने के लिए उस भाषा का अक्षरज्ञान जरूरी नहीं होता। किसी को बोलते हुए देखकर सुनकरवैसे उच्चारण का प्रयास कर किसी भी भाषा को बोलना सीखा जा सकता है। बहुत से लोग तो विभिन्न भाषाओं के सिनेमा देखकर ध्वनि व चित्र के समागम से ही शब्द का उच्चारण और अर्थ सीख लेते हैं। दोस्तों व परिवारजनों के साथ बात करते - करते नए शब्दों को सीखना और उनका सही उच्चारण करना आसान हो जाता है। इस तरह समाज में रहकर, समाज की भाषा बोलना सीखना एक बहुत ही आसान जरिया है। पर ऐसे में इस बोली में कुछ गलतियों का समावेश सहजता से हो जाता है।

अगला कदम होता है लिखना पढ़ना, जो बोलने के साथ - साथ भी सीखा जा सकता है। वैसे केवल पढ़ना भी कुछ अतिरिक्त मेहनत करके सीखा जा सकता है। इसी दौरान बोलने की प्रक्रिया के उच्चारण दोष सही किए जा सकते हैं। अन्यथा ये हमेशा - हमेशा के लिए घर कर जाते हैं। इसलिए शिक्षकों को चाहिए कि लिखने - पढ़ने की प्रक्रिया के दौरान शिक्षार्थियों के उच्चारण पर विशेष ध्यान देकर उनमें आवश्यक सुधार करें। गलत उच्चारण के कारण ही लेखन में वर्तनी की गलतियाँ होती हैं और भाषा में अशुद्धता आ जाती है।

अक्षर और मात्राओँ को सिखाने - सीखने के दौरान शिक्षकों  को निम्न विषयों पर ध्यान देना        चाहिए

 

1.      म और भ   में शिरोरेखा (मस्तक रेखा) की गलती से भ्रम हो जाता है किंतु इस पर ध्यान नहीं जाता कि म और भ में एक घुंडी का भी फर्क है। इस घुंडी का ख्याल करने से शिरोरेखा की गलती का कोई असर नहीं होगा।

2.      घ और ध में भी शिरोरेखा (मस्तक रेखा) की गलती से भ्रम हो जाता है किंतु इस पर ध्यान नहीं जाता कि घ और ध में भी एक घुंडी का भी फर्क है। इस घुंडी का ख्याल करने से शिरोरेखा की गलती का कोई असर नहीं होगा।

3.      क और फ में भी समानता होते हुए भी फर्क है। यदि क की गोलाई शिरोरेखा से जुड़ जाए तो फर्क मिट जाता है। इसलिए क की गोलाई को शिरोरेखा को बचाकर ही लिखा जाना चाहिए।

4.      , य और थ प की गोलाई में थोड़ी सी वक्रता से वह य का आकार ले लेता है। इस पर ध्यान दिया जाना चाहिए। उस पर य में घुंडी मात्र के फर्क से यह थ का रूप ले लेता है।

5.          इसी तरह ङ और ड़ में नुक्ता की स्थिति पर गौर करना जरूरी है।

6.          य को सही न लिखा जाए तो यह म सा दिखने लगता है। यहाँ य की वक्रता की प्रमुखता है।

शिक्षकों को चाहिए कि वे शिक्षार्थियों को इन फर्कों से अवगत कराएँ एवं सुनिश्चित करें कि वे इन गलतियों को करने से बचें।

इसी तरह मात्राओं ए (के) और  ऐ (कै) में फर्क भलीभाँति समझाया जाए। आज भी बच्चे एक में ए पर मात्रा लगाते पाए जाते हैं। उन्हें शायद इस बात का ज्ञान नहीं होता कि ए में ही मात्रा निहित है, इसके बदले ही मात्रा लगाई जाती है। ऐ में एक मात्रा अक्षर की है और दूसरी लगाई गई है। किसी अन्य वर्ण में ए के लिए एक मात्रा और ऐ के लिए दो मात्राएँ लगती हैं ( जैसे के और कै)। इस जानकारी के आभाव में बच्चे ऐनक को ए में दो मात्राएँ देकर लिखते हैं।

जैसे हम इमली लिखते समय इ पर इ की मात्रा नहीं लगाते वैसे ही एक में ए पर ए की मात्रा नहीं लगाई जाती। इनके अलावा मात्राओं के प्रयोग में विशेषकर सिखाया जाना चाहिए कि निम्न वर्णों में मात्राएँ सामान्य वर्णों से भिन्न तरीके से लगाई जाती है। (मेरे बचपन मे अ पर ए की मात्रा लगाकर ए लिखते थे, और ऐ की मात्रा लगाकर ऐ- इसलिए हम लोगों से ए पर मात्रा लगाने की गलती करीब - करीब नहीं होती)

निम्न वर्ण विशेष रूप में लिखे जाते हैं।    

जैसे रु और रू। साधारणतः उ और ऊ  की मात्राएँ वर्ण के नीचे लगाई जाती है, पर र में यह पीठ पर लगती है। वैसे ही र की टँगड़ी और ऋ की मात्रा साधारणतः पैरों पर लगती है, पर ह वर्ण में कमर पर लगाई जाती है। ह वर्ण के साथ जुड़ने वाला हर वर्ण कमर पर ही जुड़ता है। द वर्ण के साथ कुछ व्यंजन नीचे जुड़ते हैं तो कुछ बाद में जुड़ते हैं जैसे हृदय, ह्रस्व,  आह्लाद, आह्वान, असह्य , चिह्न, अल्हड़, दूल्हा, कान्हा, उद्गम, उद्यान, उद्भव, उद्धार और उन्होंने। गौर करने की बात है कि ह से जुड़कर वर्ण के पहले उच्चरित होने वाला वर्ण  कमर में ह से पहले होता है और अन्य ह के बाद। आप चाहें तो इन्हें अपवाद कह सकते हैं और इसीलिए इन पर विशेष ध्यान देना जरूरी है। रु और रू पर विशेष ध्यान देना इसलिए भी जरूरी है कि र पर ऊ की मात्रा पीठ से सटी नहीं होती, बीच में एक छोटी लकीर होती है जिसे अक्सर नजरंदाज किया जाता है। वैसे ही श पर र की टँगड़ी लगने पर उसका रूप बदल कर श्र हो जाता है।श पर र की टँगड़ी से श्र बनता है और श पर ऋ की मात्रा से शृ बन जाता है। पर अक्सर लोग श्री लिखने की गलती करते हैं. शृ जैसा लेखन अभी यूनीकोड के हिंदी फाँट निर्मला यू आई (Nirmala UI) में ही है, यूनीकोड मंगल फाँट में शृ जैसा नहीं आता है. इससे शृंगार व शृंखला जैसे शब्द गलत वर्तनी के साथ श्रृंगार व श्रृंखला लिखे जाते हैं।

मात्राओँ में एक और मात्रा है जिस पर विशेष ध्यानाकर्षण की आवश्यकता है। वह है र की मात्रा। निम्न शब्दों पर गौर करें।

प्रथम,  पर्यटन, ट्रक।

क्रम, कर्म, ट्रेन।

अब इनके विस्तार देखिए

प्रथम प् +  +  +    - (र पूरा है)

पर्यटन  + र् +  +  +   - ( र आधा है)

ट्रक -  ट् +  +     - (र पूरा है)

क्रम क् +  +     - (र पूरा है)

कर्म  + र् +     - ( र आधा है)

ट्रेन ट् + रे +        - (र पूरा है)

इनमें आप देखेँगे कि सभी शब्दों में र आधा नहीं है, जैसे कि आभास होता है।

जहाँ र की मात्रा पैरों पर है वहाँ अक्षर आधा है, पर र पूरा है। इसे (क्र) र की टँगड़ी कहते हैं, जो गोलाकार वर्णों में ट्र जैसी हो जाती है।

 की जो मात्रा सर पर टोपी जैसे लिखी जाती है उसे र का रेफ कहा जाता है और उसमें र आधा ही होता है। गौर करने पर पता चलेगा कि व्यंजन युग्मों में भी पहला अक्षर आधा होता है और दूसरा पूरा किंतु जन साधारण में गलत आभास है । ध्यान दीजिए कि अन्य भारतीय भाषाओं की तरह हिंदी में भी पैरों पर लगने वाली मात्राओं का (पदमात्रा/पादमात्रा) उच्चारण अक्षर के बाद होता है।

पर इसमें एक अपवाद भी है अनुस्वार – गौर कीजिए, अनुस्वार यानी जो स्वर का अनुसरण करता है। जहाँ लगा है उसमें के स्वर के बाद आता है। इसीलिए हमें प्रतीत होता है कि यह अगले वर्ण के पहले आ रहा है। इसी कारण लोगों को इसमें अपवाद नजर आता है।

देखिए शब्द चंदन को अनुस्वार को हटाकर लिखें तो पंचमाक्षर नियमानुसार चन्दन लिखा जाना चाहिए। यानी अनुस्वार को हटाकर उसकी जगह अगले वर्ण वर्ग के पंचमाक्षर स्थित अनुस्वार वर्ण का प्रयोग करना चाहिए। इस तरह देखा जा सकता है कि अनुस्वार मस्तक पर लगते हुए भी अक्षर के बाद उच्चरित होता है। इसी तरह कंगन (कङ्गन), चंचल (चञ्चल),मुंडन (मुण्डन), बंधन (बन्धन), चंबल (चम्बल) लिखे जाते हैं। ऐसा देखा गया है कि हिंदी में स्नात्तकोत्तर विद्यार्थी भी पंचांग शब्द को बिना अनुस्वार के लिखने से कतराते हैं। इसे सही में पञ्चाङ्ग लिखा जाना चाहिए। यहाँ एक बात ध्यान देने योग्य है कि वैयाकरणों ने पंचमाक्षर नियम बनाकर वर्गों के अनुस्वार की समस्या तो हल कर दिया, पर वर्गेतर वर्णों की समस्या तो जस की तस है। हिंदी में एक मात्र व्यंजन मात्रा शिरोरेखा पर लगती है वह है रेफ और उसे वर्ण के पहले लिखी और उच्चरित की जाती है।

हिमाँशु या हिमांशु - इसे अनुस्वार बिना कैसे लिखें हिमान्शु या हिमाम्शु तय नहीं है। सारा दारोमदार निर्भर करता है कि आप शब्द को कैसे उच्चरित करते है। अब यह तो वैयक्तिक समस्या हो गई न कि व्याकरणिक। इसीलिए शायद वर्गेतर वर्ण वाले शब्दों  में अनुस्वार को पंचमाक्षर से विस्थापित करने का प्रावधान नहीं है। यदि इसी मान लिया जाए तो हिमांशु के अन्य दोनों रूप ही गलत हैं.

अब कुछ वर्तनी की ओर

1.आधा श गोलाकार वर्णों के साथ आधा श विश्व सा लिखा जाता है, पर कोनों वाले वर्णों के साथ काश्मीर सा लिखा जाता है। कुछ शब्द हैं जिनमें दोनों तरह की लिपि मानी जा रही है - जैसे पश्चात, आश्वासन, कश्ती इत्यादि।

वैसे धीरे – धीरे काश्मीर वाला आधा श लुप्त हो रहा है और हर जगह अश्व वाला आधा श प्रयोग हो ने लगा है। शायद निकट भविष्य में ही आधा श के लिए अश्व वाला रूप तय हो जाए।

2.      ऐसा ही एक शब्द है  -    शृंगार , यहाँ श पर ऋ की मात्रा लगाई जा रही है, जो अपवाद है (ऐसा कहा जाता है कि मात्रा लगने पर हर वर्ण व्यंजन का रूप ले लेता है। इस अर्थ में शृ में भी श आधा ही है)। लेकिन अक्सर लोग इसे श्रृंगार लिखते हैं, जो एकदम ही गलत है। शृंगार मे श पर ऋ की मात्रा है, जबकि श्रृंगार में श के साथ आधा र भी जुड़ा है और उस पर ऋ की मात्रा है।

3.     कुछ दक्षिण भारतीय  भाषाओं के वर्ग में दो ही अक्षर होते हैं। जैसे क और ङ।  इसलिए उन्हें ख, , छ झ के उच्चारण में तकलीफ होती है। संभव है कि वे ‘खाना खाया’ और ‘गाना गाया’ का उच्चारण ‘काना काया’ की तरह ही करें। इसी तरह वर्ग का तीसरा अक्षर न होने के कारण वे ग, ,, द का भी सही उच्चारण नहीं कर पाते। वे गजेंद्रन को कजेंद्रन कहेंगे। कमला व गमला की वर्तनी एक सी लिखेंगे, फिर पढ़ने में अदला - बदली हो जाएगी। क्योंकि तमिल में तृतीय वर्ण ग, ज, ड, द हैं ही नहीं और न ही उनसे शुरु होने वाले शब्द होते हैं। हाँ, शब्द के मध्य में उनको लिखने का प्रावधान है।

ऐसी जटिलताओँ पर शिक्षकों का ध्यानाकर्षण अति-आवश्यक है ताकि वे समय पर विद्यार्थी के उच्चारण में सुधार कर सकें। शिक्षकों को चाहिए कि इस तरह की त्रुटियों को बालपन में सुधार दिया जाए। उम्र के बढ़ने पर सुधार में बहुत कठिनाई होती है। उच्चारण की गलतियाँ अक्सर वर्तनी में देखी जाती हैं।

4.     विद्यार्थी शब्द में मध्य वर्ण द और य का मिश्रण है और संयुक्ताक्षर द्य बना है। अक्सर लोग द्य को ध्य समझने की गलती करते हैं। वे ध्यान को द्यान लिखते हैं। उद्यान को उध्यान लिखते हैं। इस पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। पता नहीं क्यों भाषाविदों ने श्र को तो संयुक्ताक्षर माना पर द्य को नहीं।

5.     इसी तरह दिल्ली व उत्तरी राज्यों में राजेंद्र को राजेंदर उच्चरित किया जाता है क्योंकि गुरुमुखी लिपि में अक्षरों को आधा करने का प्रावधान नहीं है, पर द्वयत्व का प्रावधान है। शिक्षकों को इस पर विशेष गौर करते हुए उचित सलाह देकर त्रुटियों का निवारण करना चाहिए।

6.     अब आईए अनुनासिक व अनुस्वार के प्रयोग पर। वैसे वर्तनी के आद्यतन नियमों के अनुसार तो जहाँ शब्दों या तात्पर्यों का हेर - फेर न हो, वहाँ अनुनासिक की जगह अनुस्वार का प्रयोग हो सकता है। पर जिसे पता होगा वह गलती करेगा ही क्यों ? सबसे उत्कृष्ट उदाहरण हैं -  हँस (हँसने की क्रिया) और हंस (एक जलचर पक्षी)। अब सवाल आता है कि किसका कहाँ प्रयोग उचित है। एक  नियम जो जानने में आया है वह यह कि जहाँ अनुस्वार या अनुनासिक वाले शब्द को वर्ग के अंतिम अनुस्वार के साथ लिखा जा सकता है, वहाँ अनुस्वार लगेगा, वर्ना अनुनासिक। जैसे मंगल (मङ्गल), चाँद (इसे चान्द लिखने से उच्चारण बदल जाता है, अतः यहाँ अनुनासिक ही लगेगा)।

7,     जब किसी शब्द में वर्ग के पंचमाक्षर का ही द्वयत्व हो, या पंचमाक्षरों का ही समन्वय है तो उसे अनुस्वार से विस्थापित नहीं किया जा सकता।  उसे आधे अक्षर के साथ ही लिखा जाना चाहिए। जैसे हिम्मत, उन्नति, जन्म, कण्णन इत्यादि। इनको हिंमत, उंनति, जंम, कंणन नहीं लिखा जा सकता।

8.     अनुनासिक का प्रयोग अक्सर वहाँ होता है जहाँ मात्राएँ शिरोरेखा पर न लगी हों जैसे बाँध, फँसना, गूँज इत्यादि। जहाँ शिरोरेखा पर मात्राएँ हों तो वहाँ अनुनासिक की  जगह अनुस्वार का ही प्रयोग होता है। जैसे में, मैं, चोंच, हैं इत्यादि। याद रहे कि पहले में, हैं और मैं में भी अनुनासिक लगाया जाता था।

9.     अब आते है कुछ शब्दों के विशिष्ट उच्चारण पर –‘ब्राम्हण’ उच्चरित होता है पर लिखा जाता है ‘ब्राह्मण।वैसे ही आल्हाद कहा जाता है पर आह्लाद लिखा जाता है।

10.     वैसे ही आर्द्र, सौहार्द्र इत्यादि । यह गलत वर्तनी है। सही होगी आद्र और सौहार्द। शिक्षकों को चाहिए कि ऐसे विशेष शब्दों के उच्चारण व वर्तनी पर विशेष ध्यान देते हुए विद्यार्थियों को लभान्वित करें।

इन सबसे हटकर एक और समस्या कि मुख्य तौर पर देखी गई है कि प्रादेशिक भाषा का    उच्चारण विद्यार्थियों के हिंदी उच्चारण में आ जाता है। शिक्षकों को चाहिए कि वे बालपन से ही इस त्रुटि का निवारण करने का प्रयत्न करें। सही उच्चारण से लिपि में वर्तनी की शुद्धता बढ़ती है।

आशा है कि शिक्षक गण, इसमें से जो भी स्वीकार्य हो, उससे बच्चों को लाभान्वित करेंगे।

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बुधवार, 6 अप्रैल 2022

उच्चारण

 

उच्चारण

 

किसी भी भाषा को सीखने में उसके उच्चारण का बहुत ही ज्यादा महत्व होता है। 

 

सामान्यतः किसी भी भाषा को सीखने का पहला अध्याय, उस भाषा को बोलने वालों के साथ रहकर उनका उच्चारण सीखना होता है। माना आप इसके लिए विशेष प्रयास नहीं करते किंतु साथ रह रहकर आपका ध्यान तो उस ओर आकर्षित हो ही जाता है और धीरे - धीरे आप गौर करने लगते हैं कि इसे ऐसा नहीं, ऐसा बोलना चाहिए। कुछेक बार तो साथी भी इसमें सहायक होते हैं। चाहे वो मजाक बनाकर बोलें, या अच्छे से समझाएँ। पर ध्यान तो आकर्षित कर ही देते हैं कि यहाँ गलती हो रही है। सुधारना-सुधरना आपका काम है यदि आप गौर करेंगे और फिर लोगों से सही गलत की जानकारी लेते रहेंगे, तो एक दिन जरूर सही हो जाएगा। इसमें चिढ़ने व गुस्सा करने का कोई कारण नही होना चाहिए। आप सीखना चाहते हैं। बिना किसी मूल्य के यह असंभव है। पाना है तो हाथ नीचे ही रखना ही पड़ेगा। चाहे वह कोई वस्तु हो या फिर ज्ञान ही क्यों न हो।

 

बहुत बार तो ऐसा हो जाता है कि कई बार गौर करने के बाद भी, उच्चारण पकड़ में नहीं आती। उस वक्त हमें बेशर्म होकर दूसरे व्यक्ति से पूछ ही लेना चाहिए कि इसे कैसे उच्चरित करते हो। सीखने में शर्म की तो सीख ही नहीं पाओगे।


किसी ने कहा भी है-

 

गीते नाद्ये तथा वृत्ते,

संग्रामे रिपुसंकटे,

आहारे च व्यवहारे,

त्यक्तलज्जा सुखी भवेत्।


सीखते वक्त आप गलतियाँ करेंगे, इसकी पूरी - पूरी संभावनाएँ हैं। इससे बचने की कोशिश एक हद तक ही की जा सकती है। बिना गलती किए कोई भी ज्ञान पाना नामुमकिन सा ही है।इसलिए गलती करने से डरें नहीं, बल्कि गलती का शक होने पर संगी साथी से पूछें कि यह ठीक था कि नहीं। यदि नहीं तो जानें कि ठीक क्या होगा ?

 

आपको सीखने के लिए शर्म तो त्यागना ही पड़ेगा। शर्मागए तो सीखने से चूक जाएंगे।
इन चक्करों में कभी बहुत बड़ी - बड़ी गलतियाँ भी हो जाती हैं। लेकिन यदि अगला यहसमझता है कि व्यक्ति सीख रहा है तो बड़े - बड़े गलतियाँ भी आसानी से माफ कर दी जाती हैं।

 

गुजरात में एक कैंटीन के मालिक से मैं कहता था  चा आपो भाई।  जिसका मतलब होता है चाय दो भाई। वह चुपचाप चाय लाकर देता था / या भेजवा देता था। हमारी जोड़ी ऐसे ही चलती रही। एक दिन जब मैंने ऐसे ही कहा, तब एक गुजराती भाई ने समझाया। आप उसको ऐसा क्यों बोल रहे हैं ? वह तो कैंटीन का मालिक है। मैंने पूछा कि इसमें क्या गलती है ? तब उन्होंने बताया कि चा आपो का मतलब होता है चाय (लाकर) दो। आपको कहना चाहिए - चा मोकलियावो, यानी चाय भेजो। मैंने अपनी भाषा में सुधार कर लिया। ऐसे ही भाषा सीखी जाती है। साथी अच्छे होंगे, हम-उम्र होंगे, तो जल्दी सीख जाओगे और नहीं तो कुछ देर लग जाएगी लेकिन हिम्मत हार गए, तो गए। कुछ भी सीख नहीँ पाओगे।

 

बच्चों की भाषा पर आएँ तो प्ले स्कूल, केजी, पहली से पाँचवीं तक के बच्चों को उच्चारण पर शिक्षकों को विशेष तौर पर ध्यान  देना चाहिए। दक्षिणी परिवार का बच्चा अपनी भाषा के कारण क, , च ज, ट, त, द, प,और ब तो उच्चरित कर लेगा लेकिन जहाँ ख, , , झ, ठ, ढ़, थ, ध, फ और भ वर्ण आएँगे, वह जोर नहीं लगा पाएगा। शिक्षकों को चाहिए कि इसी वय में उन्हें मेहनत कर - करा - कर सिखा देना चाहिए। अन्यथा बड़ी उम्र में सीखना बहुत ही तकलीफ दायक होता है और बहुत लोग तो सीख भी नही पाते। बिहार-बंगाल व यू. पीके इलाकों में र व ड़ के उच्चरण आपस में बहुत ही बार टकराते हैं रबड़ जैसे शब्दों का उच्चरण तकलीफदायक होता है। यदि बचपन में ही ध्यान दिया जाए, तो हमेशा - हमेशा के लिए सिरदर्दी खत्म हो जाती है।

 

भाषा, पहनावा, बोली व खानपान का सीधा संबंध नजर आता है। उत्तर में ठंडे मौसम की वजह से हाजमा बहुत अच्छा होता है। वो मेहनत कर पाते हैं और फलस्वरूप शरीर सौष्ठव भी अच्छा होता है। गर्म खाद्य़ के आदि होते हैं। उनका तन गठीला होता है पर साथ - साथ जुबान भी कम लचीली होती है। अर्द्धाक्षर  के उच्चारण में उनको तकलीफ होती है।इसीलिए शायद गुरुमुखी में अर्द्धाक्षर का प्रावधान ही नहीं है। इनके लिए दक्षिण की भाषाएँ सीखना बहुत ही कठिन काम होगा।

 

मध्यभारत के मौसम में ठंड उत्तर के बनिस्पत कम तथा गर्मी व बरसात ज्यादा होती है। इसलिए उनकी मेहनत करने की क्षमता उत्तरी लोगों से कम होती है। 

 

इन क्षेत्रों के लोग मेहनत करने से दक्षिण की भाषाएँ सीख सकते हैं किंतु उनके लिए भी यह आसान नहीं होता। उत्तर की भाषाएँ सीखना इनके लिए आसान होता है। इसका राज मात्र यही है कि इनके रहन - सहन व खान - पान की आदतों के कारण इनकी जुबाँ बनिस्पत उत्तरी लोगों के, पतली और ज्यादा लचीली होती है। इस कारण यहाँ के लोगों के लिए उच्चारण पर ध्यान देना अत्यावश्यक है। अन्यथा ये प्रांतीय भाषाई उच्चारण करते रहते हैं और दूसरी भाषा के शब्दों का उच्चारण भी अपनी भाषा की तरह करते हैं। 

 

इसी कारण मराठी भाषी हिंदी में ह्रस्व व दीर्घ मात्राओं में गड़बड़ी करते देखे जा सकते हैं। यदि उच्चारण पर सही ध्यान देने वाले शिक्षक हों तो यहाँ के बच्चे कोई भी भाषा बड़ी अच्छी तरह से सीख सकते हैं।

 

दक्षिण के लोगों में पाचन शक्ति बाकियों की अपेक्षा कम होती है इसीलिए यहाँ जल्दी व कम मेहनत से पचने वाला खाना खाया जाता है। ज्यादा बार, किंतु हल्का खाया जाता है। खट्टा खाने की प्रवृत्ति होती है, जिससे जुबाँ फड़फडाती है। बारीक से बारीक फर्क की ध्वनियाँ भी वे आसानी से निकाल सकते हैं। केरल की भाषा मळयालम में ऐसे बहुत से शब्द मिलेंगे (कुछ तो तमिल में भी हैं किंतु मळयालम से कम) जिनका उच्चारण उत्तर भारत के लोग कर ही नहीं पाते हैं। यदि उच्चारण पर ध्यान दें, तो दक्षिण भारतीय जन को किसी भी (भारतीय) भाषा में महारत हासिल हो सकती है। 

 

लेकिन दुविधा वहीं आकर होती है कि बचपन में उच्चारण पर खास ध्यान नहीं दिया जाता। दक्षिण भारतीय यदि किसी मध्यभारत या उत्तर भारत के शहर में पढ़े तो उसकी भाषा में प्रवीणता होती है। इसका कारण उसके उच्चारण की क्षमता है। यदि सही उच्चारण कर पाएँ तो लिखने में भी गलतियाँ होने की संभावना घट जाती है। किसी भी शब्द का उच्चारण  उसमें सम्मिलित अक्षर व मात्राओं पर निर्भर करता है। यदि उच्चरण सही नहीं हुआ तो सुनकर लिखते वक्त गलत वर्तनी लिखी जाएगी। आप गौर कीजिए -  काबिलियत, कवयित्री शब्दों को बहुत से लोग गलत लिखते होंगे।

 

महाराष्ट्रियों में लघु व दीर्घ मात्राओं में त्रुटि का मुख्य कारण यही है। वैसे ही दक्षिणी लोगों में कठोर व्यंजनों में गलती करने का कारण भी उच्चारण ही है। साथ ही पंजाबियों का धर्मेंद्र को धरमिंदर कहने का कारण भी यही उच्चारण है।

हिंदी में इसके अलावा भी गलतियाँ होती हैं जैसे लिंग, वचन इत्यादि के किंतु उनका उच्चरण से कोई सीधा संबंध नहीं है। उसके लिए उन्हें लिंग का बोध होना चाहिए। वैसे हिंदी में लिंग बोध भी अपने आप मेँ एक जटिल विषय है। 

शिक्षकों से, खासकर भाषा के शिक्षकों से अनुरोध करता हूँ कि छोटी कक्षाओं के विद्यार्थियों के उच्चारण पर विशेष ध्यान दें। इससे उनकी भाषा सुधरेगी और यह उनके जिंदगी भर का साथ होगी। आपका यह छोटा धैर्य और त्याग किसी विद्यार्थी को जीवन भर के लिए एक सशक्त भाषा दे सकेगा।


इस लेख में मैंने हिंदी के बारे में ही जिक्र किया है लेकिन उच्चारण संबंधी सारी बातें करीब - करीब सभी भाषाओं पर लागू होती हैं।