सोमवार, 21 नवंबर 2016

कम्बख्त मुँह


कम्बख्त मुँह

आँख ने जो देखा उसे
मुँह कह जाता है. 
क्या करूँ कमबख्त से, 
चुप रहा नहीं जाता है।

वैसे ही जब कान सुनते हैं,
तो यह बे-लगाम मुँह
चुप नहीं रह पाता
कम्बख्त बक ही जाता है।

कई बार तो इसने
पिटने की सी हालत कर दी है
पता नहीं कब पिटाई हो जाए,
बस अब इससे भगवान ही बचाए।

जब पला बढ़ा
तब सच का बोलबाला था
ज़बान पर न कोई लगाम थी
न कोई ताला था।

गलती तो ज़बान की भी नहीं है
समाज के मूल्य बदल गए हैंँ
समाज से सच सहा नहीं जाता और ज़बान से
सच कहे बिना रहा नहीं जाता।

मजबूरियाँ झेल रहा हूँ
आग से खेल रहा हूँ
जो समझ पाते हैं
फेविकोल से जुड़ जाते हैं
और जो नहीं समझ पाते
वे टूटकर बिखर जाते हैं।
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