रविवार, 10 मार्च 2013

छुपन - छुपाई


              छुपन - छुपाई


                  झरोखे से माठी सुगंध आ रही है,

                  तुम यहीं पास मेरे कहीं पर छुपी हो,

                  रोशनी ये मद्धिम कहे जा रही है,

                  चेहरे को घूंघट से ढँक कर खड़ी हो,


                  उस दिन ग्रहण सूर्य का जब हुआ था,

                  तो ऐसा ही शीतल सुगंधित समाँ था,
               
                  चाँद पूनम का जब ओट बादल छुपा था,

                  उजाला भी मद्धम इसी तरह का था,

                  सताती हो ऐसे तुम अल्हड़ बड़ी हो,

                  दूर पर ही सही, पर क्यों छुप कर खड़ी हो?



                                   एम.आर.अयंगर.

2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही सुन्दर एवं सरस प्रस्तुति,आभार.
    कमेन्ट वेरिफिकेशन से क्या लाभ है,टिप्पडी करने में पाठकों को परेशानी होती है.

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  2. किसी समय नए वक्त पर वेरिफिकेशन लगाया था -- जानने के लिए कि यह होता क्या है. पहली बार शिकायत आई है. हटाने का प्रयास किया है.. शायद हट गया होगा अन्यथा फिर से हटाने की कोशिश की जाएगी.

    सतर्कता के लिए धन्यवाद एवं टिप्पणी पर आभार.

    अयंगर.

    जवाब देंहटाएं

Thanks for your comment. I will soon read and respond. Kindly bear with me.