रविवार, 12 जून 2022

पुस्तक समीक्षा - ध्रुवसिंह एकलव्य की 'चीखती आवाजें'

 

पुस्तक समीक्षा – श्री ध्रुव सिंह एकलव्यकी चीखती आवाजें

हाल ही में लखनऊ प्रवास के दौरान साथी ब्लॉगर श्री रवींद्र सिंह यादव के सौजन्य से ब्लॉगर कवि श्री ध्रुव सिंह से मुलाकात का अवसर मिला । उसी मुलाकात के दौरान ध्रुव जी ने मुझे दो पुस्तकें भेंट स्वरूप दिया। एक तो उनकी अपनी पुस्तक – चीखती आवाजें और दूसरी – सबरंग क्षितिज - विधा संगम जो एक संकलन है। आज मैं पुस्तक चीखती आवाजें की समीक्षा को तत्पर हूँ।

यह पुस्तक (चीखती आवाजें) श्री ध्रुव सिंह एकलव्यके निजी कविताओं का संकलन है। यह उनका प्रथम प्रकाशित काव्य संग्रह है। ध्रुव जी ने पुस्तक चीखती आवाजें को अपनी आदरणीया माताजी श्रीमती शशिकला जी को समर्पित किया है। पुस्तक प्राची डिजिटल पब्लिकेशन, मेरठ से वर्ष 2018 प्रकाशित है। पेपर बैक जिल्द वाली , 102 पृष्ठों की इस पुस्तक में कुल 42 कविता संकलित हैं। मूल्य मात्र रु. 110 रखा गया है।

पुस्तक की भूमिका श्री रवींद्र सिंह यादव जी द्वारा लिखी गई है। वे लिखते हैं कि ध्रुव जी प्रयोगधर्मी शैली में विश्वास रखते हैं। पुस्तक में प्रतिरोध का स्वर है। रवींद्र जी कहते हैं कि कुछ रचनाओं में प्रवाह की कमी खटकती है पर वे पाठक को चिंतन के लिए प्रेरित करती हैं।

अपनी बात रखते हुए ध्रुव जी कहते हैं कि -  प्रयोग समाज के लिए जरूरी है और मानव के परिवर्तित होते हुए विचारों पर - मेरे अनुभवों पर आधारित आत्ममंथन ही है पुस्तक चीखती आवाजें। उन्होंने विशेषतः अपने पिताश्री, मित्र व सहयोगियों का आभार व्यक्त किया है।

कविता मरण तक में बीड़ी पत्ती चुनने वाली महिला के मुँह से कहते हैं  - इसमें उसका दर्द भी झलकता है और ध्रुव जी के भाषा की पकड़ भी।

आग में धुआँ बनाकर जो लेंगे कभी,

तब दिखूँगी ! सुंदरी सी मैं।

खत्म होंगी मंजिलें में – मजदूर से कहलवाई गहई कथन पर गौर कीजिए – क्षुधा-तृप्ति पर कितना बड़ा बयान है।

केवल सोचते हुए बुझ जाए यह आग सदा के लिए,

ताकि आगे कोई मंजिल निर्माण की दरकार न बचे।

गलियाँ रंग बिरंगी की ये पंक्तियाँ खुद ही बोलती हैं –

तब भी निःशब्द थी मैं कुचल रहे थे कोठे पर,

दो दीवारों वाले कमरे की ओट में,

अस्मिता मेरी ,दो रोटी देने की फिराक में।

पुनः में मानव के विश्वासों या कहें अंधविश्वासों का मजाक उड़ाती ये पंक्तियाँ देखें -

कर प्रतीक्षा आयेगा , शीघ्र ही  वह दिन नवरात्रों का,

माँगेंगे माटी, माटी उछालने वाले. मेरे आँगन की पुनः।

व्यथित मजदूर, त्यक्ता नारी की व्यथा, मजबूरी में आड़े-तिरछे जायज-नाजायज काम करने को मजबूर फुटपाथ के सहारे जीते लोग, खटमलों का अत्याचार जैसे दर्द का कवि ने बखूबी वर्णन किया है संकेतों से।

विरासत कविता में पुस्तक का एक यायावर पात्र बुधई का कथन सुनिए –

वो अलग बात , जमीन थी उनकी, लगाने वाला मैं ही था।

बुधईहूँ, बेगारी करने वाला , उनके आदेशों पर।

........

आखिर विरासत है अंतिम बुधई का

वही नीम का अकेला पेड़।

जुगाड़ में मजदूरन कह रही है –

साफ नहीं हुई कभी कालिख हाथों की,

चमकती है पतीली हर रोज उसके हाथों से।

परिवर्तित प्राण वायु में यायावर बुधिया अपनी नई जगह की खुशी का व्यंगात्मक विवरण कवि के इन शब्दों से,  ऐसे दे रहा है -

कल परसों कूड़ा फेंका करता था जहाँ,

बुधिया सोता है वहीं चैन की नींद,

हमारी फोंकी हुई दो रोटी खाकर,

बड़े आराम से।

बुधई का बेटा  - एक मजदूर की निरीह व्यथा-कथा –

रगड़ रहा है किस्मत अपनी,

बदल जाए संभवतः बार-बार रगड़ने से,

.......

निरंतर प्रयासरत है, बदलने को अपनी किस्मत,

उन्हीं मैले-कुचैले पोछों से ! बुधई का बेटा।

फुटपाथ पर पड़े निरीह लोग, आनंदित होते खटमल, का व्यंगत्मक चित्रण किया है ध्रुव जी ने।

भेद चप्पलों का में जनाजे का विचित्र व्यंगात्मक वर्णन देखें –

आज फिर से चल रहे हैं, आठ पैरों वाले कुछ इंसान

उठाए काँधों पर बाँस की तख्ती के बहाने, मूक से इंसान को।

सशक्तिकरण -  में कवि ने सवाल उठाया है कि किसका सशक्तिकरण हो रहा है, किसका होना चाहिए ? सामाजिक कुप्रबंधन पर निशाना साधा है।

चिंता होती है सशक्तिकरण इनका हो,

मैला ढो रही लादकर बच्चों को काँधे,

भट्ठों में खाँसती, उठ-उठकर प्राणवायु के लिए।

अठन्नी – चवन्नी में  नाजायज व अनिच्छित काम करने को मजबूर इन गरीबों का व्यथा का वर्णन कवि ने इस तरह किया है -

बदमाश बेगैरत हैं, कितने ! छोटे ये सौदागर,

बेच रहे  केवल पेट का खातिर,

स्वाद बनाने वाले, बाबुओं के मुँह का

मौत-सा सामान।

कवि ध्रुव सिंह अपनी कविताओं में समाज के उन तथाकथित अंगो को चुना है जिसे समाज ने तुच्छ माना और अपने मुख्य धारा में जगह देने से वंचित किया। ध्रुव जी ने अपनी सशक्त कलम से समाज के उन त्याज्य माने गए इन मजबूर तबकों को समाज का आवश्यक हिस्सा समझते मानते हुए – उन सबकी आवाज को बुलंदी से उठाया है। विभिन्न मजदूर वर्ग, सड़क झाड़ते हुए , महलों में पोछा लगाते हुए, सड़कों पर पत्थर तोड़ते हुए, भवन निर्माण में लगे हुए, रेल गाड़ियों, बसों और चौराहों पर चीजें बेचते हुए, जगह-जगह पर सिगरेट तंबाखू जैसी नशीली वस्तुएँ बेचते हुए  मेहनती तबके के लोगों और निर्लज्ज नजरों के चुभन से त्रस्त शिकार नवयौवनाओं की व्यथा का संबोधन ध्रुव जी ने पूरी-पूरी तन्मयता और सफलता से किया है। इन सबको ध्रुव जी ने अपना आवाज दी है।

देखिए, हालातों को अपना भाग्य समझ बैठे इन मजबूरों का दर्दनाक चित्रण !!!

सब्जी वाली में  कहती है –

सब्जियाँ कम खरीदते हैं लोग, मैं ज्यादा बिकती हूँ

नित्य उनके हवस भरे नेत्रों से, 

हँसती हूँ केवल यह सोचकर

बिकना तो काम है मेरा कौड़ियों में ही सही।

दौड़ता भागती में मजदूर का कथन –

पाऊँगा परम सुख, सूखी रोटी से

फावड़ा चलाते हुए ऊबड़ खाबड़ रास्तों पर ।

....

समतल बनाना है! दौड़ती भागती, 

चमचमाती जिंदगी के लिए

जीवन अंधकार में स्वयं का रखकर ।

पुस्तक का यायावर, बुधिया के धान में बिंबों व प्रतीकों के माध्यम से ध्रुव जी ने एक पुत्री की भावना को बखूबी चित्रित किया है। माँ दीपक जलाना में भी नारी व्यथा का मार्मिक चित्रण मिलता है। कविता बड़ी हो गई में पुत्री कब बोझ बन गई, का विस्मय पूर्ण वर्णन है।

कविता वह तोड़ती पत्थर में ध्रुव जी ने हिंदी के सशक्त हस्ताक्षर महाप्राण सूर्यकाँत त्रिपाठी निराला जी की अजरामर कविता को विस्तार ही दे दिया है या कहिए कि नवीनता दे दिया है।

अंतर शेष है केवल , कल तक तोड़ती थी  

बे-जान से उन पत्थरों को,

अब तोड़ते हैं, वे मुझे निर्जीव-सा पत्थर समझकर ।

ध्रुव जी की भाषा सरल है, शब्दों में किसी प्रकार की क्लिष्टता नहीं है। शब्द चयन अच्छा है और उसमें विविधता है। शब्द चयन की विविधता ने कविता की पंक्तियों को गहराई और गूढ़ता दी है। मैं ध्रुव जी की पुस्तक चीखती आवाजें को अकविता की श्रेणी में ही रखना चाहूँगा। कुछ आलोचक व समीक्षक इसे गद्य कविता भी कह सकते हैं।  कुल मिलाकर यह रचना समाज की कुरीतियों पर दोहरा प्रहार करती है।

मैं श्री ध्रुव जी की कलम को और अधिक मुखर देखना चाहूँगा। ईश्वर उनकी कलम को अनियंत्रित शक्ति दें।

 

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