मेरे परिचित शिक्षिका श्रीमती मीना शर्मा जी की एक कविता प्रस्तुत है :
एकाकी पंछी
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जहाँ सूर्य डूबा, बसेरा वहीं !
खुले दृग जहाँ पर, सबेरा वहीं !
मैं एकाकी पंछी, विलग यूथ से
ना झंझा की चिंता, ना डर धूप से !
बहारों से मैं क्यों करूँ याचना,
कुंजों में मेरा तो डेरा नहीं !
खुले दृग जहाँ पर सबेरा वहीं !
मेरा प्यार सूखे से तरुओं की खातिर,
खिलें नन्हीं कलियाँ, मेरी जान हाजिर !
नहीं कोई सरहद, ना अपना पराया
आसमां कौन सा, जो कि मेरा नहीं !
खुले दृग जहाँ पर सबेरा वहीं !
है पंखों में ताकत औ' खुद पे यकीं,
जहाँ मन लगे मेरी मंजिल वहीं !
सितारे चुरा लूँ, कि वह चाँद पा लूँ
कोई स्वप्न ऐसा उकेरा नहीं !
खुले दृग जहाँ पर सबेरा वहीं !
जहाँ सूर्य डूबा, बसेरा वहीं !
खुले दृग जहाँ पर, सबेरा वहीं !
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श्रीमती मीना शर्मा