गुरुवार, 29 सितंबर 2016

माँ


एक कविता रमा चक्रवर्ती भाभीजी की....

 

माँ

 

गर्भ मे पल रहे,

शिशु के स्पंदन से पुलकित होती

मैं माँ हूँ.

 

प्रसव वेदना तड़पती,

मृत्यु से जूझती,

फिर भी संतान - आगमन का

अभिनंदन करती

मैं माँ हूँ.

 

शिशु का प्रथम क्रंदन सुन

अपनी पूर्णता पर इतराती,

मैं माँ हूँ

 

वक्ष के अमृत-धार से

अपनी मातृत्व को सींचती,

मैं माँ हूँ.

पर क्या संतान ने

निभाया है

अपना फर्ज?

 

जिस अमृत को पीकर

पला बढ़ा,

आज क्यों भूल गया

उस दूध का कर्ज?

 

किसने घोला है

मेरे जीवन में ये आतंक,

किसने किया है

मेरे स्वर्ग को बदरंग,

 

उन्हें कोसती,

आसूँ बहाती,

मैं माँ हूँ.

 

आज मेरे बेटे ,

लहू लुहान हैं,

एक दूसरे की खून से,

आरोप - अत्यचार करते हैं –

एक दूसरे पर,

 

 

मैं रोती हूँ,

खून के आँसू,

अपने ही सृजन पर,

 

फिर भी

फिर भी

उन्हें दुआएं देती,

उन पर प्रेम लुटाती,

उनकी बलाएँ लेती ,

मैं माँ हूँ.

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