शनिवार, 15 फ़रवरी 2014

सच हुए सपने तेरे ... झूम रे ओ मन मेरे...



सच हुए सपने तेरे ... झूम रे ओ मन मेरे...

आखिरकार केजरीवाल का सपना साकार हुआ. सरकार भार से मुक्त हुए. बिना किसी तैयारी के सरकार बनाना पड़ा. न कोई अनुभव न कोई जानकारी.. एकदम नौसिखिए. एक झटके में सारी पोल खुल गई. कलई निकल गई. लेकिन ठीकरा फोड़ने के लिए सर तो मिल ही गया. उधर विपक्ष चाहेगी कि जिम्मेदारी आप पर आए. पक्ष और विपक्ष दोंनों चाहेंगे कि यह मुद्दा लोकसभा चुनाव के लिए भुनाया जा सके. देखना है भैंस कौन ले जाएगा.


दिल्ली विधान सभा की 70 सीटों में से 28 पर जीत – एक अप्रत्याशित जीत ही थी. जैसा खुद केजरीवाल ने कहा उन्हें ही 12-14 से ज्यादी सीटों की उम्मीद नहीं थी. पर जनता ने छप्पर फाड़ कर दिए. बहुत दिया देने वाले ने तुझको , आँचल ही न समाए तो क्या कीजे.

इतने सीट जीतने पर केजरीवाल घबराए कि  सरकार न बनानी पड़ जाए. सो अपनी सोची समझी चाल के अनुसार – टिक गए कि – जनता ने हमें सरकार बनाने के लिए जनमत नहीं दिया है. उधर आप की बदकिस्मती से भाजपा को भी सरकार बनाने का जनमत नहीं था. यदि होता तो भाजपा सरकार बना लेती और आप विपक्ष में बैठकर सरकार के हथकंडे सीख लेती ताकि अगली बार मौका मिलने पर सरकार सही ढंग से चलाई जा सके. लेकिन ऐसा हो नहीं सका – उप राज्यपाल ने भाजपा के नाकामयाबी के बाद आप को दूसरी बड़ी पार्टी होने के कारण सरकार बनाने का न्यौता दे डाला.

अब आप सरकार बनाने की चाल मे फंसने लगी. आप भी इससे बचने के लिए नए नए हथकंडे अपनाने लगी. बहुत समय तक तो कहती रही जनमत नहीं है. कांग्रेस ने पासा फेंका - निशर्त समर्थन का.. आप टिक गई  कि न हमने समर्थन देना है न लेना है. जब मीडिया ने दबाव बनाया तब फिर चिट्ठी बाजी की गई - मुद्दे भी ऐसे ही बनाए गए थे कि कांग्रेस समर्थन से बिदके. – भरसक कोशिशों के बाद जब थक हार गई - तो लौट कर जनता के पास गई - यह सोचकर कि जितनी सभाएँ उतनी बातें होंगी और उसी में से सरकार न बनाने का रास्ता निकाल लिया जाएगा.

लेकिन ऐसा भी नहीं हुआ. सारी जन सभाओँ में सरकार बनाने की ही बात की गई. जनता को कहाँ पता था कि सरकार बनाने से आप पर कैसी मुसीबतें आनी है. और इधर आप को अपना आत्माभिमान भी तो बचाना था कैसे कह देती कि हमें सरकार चलाना नहीं आता. सरकार बनाने की सोच भी नहीं आई थी. इसलिए तैयारियाँ भी नहीं की.

अब केजरीवाल हर तरफ से फँस गए और मजबूरी में सरकार बनानी पड़ी. अब वे चाहते थे कि किसी बहाने सरकार गिर पड़े और इसका खामियाजा कांग्रेस या भाजपा को भुगतना पड़े. इसीलिए हर मौके पर कहते रहे मुझे सरकार गिरने का गम नहीं होगा – सी एम की कुर्सी जाने का गम नहीं – पर सही बात कभी नहीं कहा कि सरकार गिरने से मुझे खुशी होगी. क्योंकि सरकार चलाने में तो उनके पसीने छूट रहे थे. उनके उल्टी - सीधी हरकतों के पीछे भी यही मंशा थी कि कांग्रेस बौखला जाए और खामियाजा विपक्ष को भुगतना पड़े. उधर विपक्ष तो आप से ज्यादा अनुभवी है. कैसे आप के जाल में फँस जाती. धीरे धीरे आप अपने तेवर तीखे करती गई कि किसी मोड़ पर विपक्ष गलती करे और समर्थन वापस ले ले.


इसीलिए हर मौके पर केजरी कहते रहे... सरकार गिर जाए तो गिर जाए. जाए .. कोई फर्क नहीं पड़ता. वे तो हर कदम पर चाहते थे कि सरकार गिर जाए ... पर कांग्रेस थी कि गिराती ही नहीं थी. डेढ़ शताब्दी का अनुभव रखने वाली कांग्रेस क्या आप और केजरीवाल को ऐसे ही जाने देती ???

अब लग रहा है कि आप के विधायकों एवं मंत्रियों की बदजुबानी भी इसी इसी प्लानिंग का एक भाग थी – जिससे भड़क कर शायद कांग्रेस के समर्थन की वापसी की उम्मीद की जा रही थी. जो फेल कर दी गई.

इस बीच अपनी साख बचाने या कहें बनाने के लिए पानी की समस्या हल वाला वादा पूरा करने की कोशिश की गई... आधी अधूरी ही सही पर कुछ समय निकल गया. फिर बात आई कुछ नए मुद्दों की - भारती और राखी जी ने बैटिंग सँभाल ली. इसमें अच्छा खासा समय बर्बाद हुआ. ख्वाहिश भी शायद यही थी. लेकिन बकरे की अम्मा  आखिर कब तक खैर मनाती.


पहले पानी का वादा निभाने के लिए कोशिश की गई – आधा अधूरा काम हुआ. पर फिर भी सरकार बच गई. फिर बिजली के दरों की बात आई. वादा पूरा करने के लिए सबसिड़ी दी गई. कंपनियों ने ऐतराज जताया तो लाईसेंस रद्द करने की बात की गई. कांग्रेस भड़की नहीं. बात आगे बढ़ी कांग्रेस के नेताओं पर आरोप शुरु हुए . एफ आई आऱ किया गया. तब जाकर कांग्रेस पर असर हुआ. लेकिन कांग्रेस ने भी समर्थन वापस न लेने की ठान ली थी.

इन सबकी जानकारी केजरीवाल को थी लेकिन आत्माभिमान बीच आ रहा था. पहला शायद सपने में भी सोचा न था कि इतनी सीटें मिल जाएँगी. उस पर दूसरा कि कोई दल समर्थन देगा.   फिर तीसरा कि जनता भी कह देगी कि सरकार बना लो.

सही तो यह होता कि अपने निर्धारित कार्यक्रमानुसार स्थिर रहते – कि समर्थन न लेंगे न देंगे.. तो सरकार बनाने की नौबत ही नहीं आती और न हीं पोल खुलती. या फिर अपनी कमजोरी मानकर कह देते कि सरकार बनाने की हमारी तैयारी नहीं है. राजकाज के मामले में गलतियाँ हो जाएंगी... लेकिन नहीं आत्माभिमान ऐसा होने नहीं देता ... फँस गए न बच्चू... मजबूरी में सरकार बनाई – कामकाज का तरीका पता नहीं – किसके क्या अधिकार व जिम्मेदारियाँ पता नहीं तो ऐसे में सरकार चलाना तो मुशकिल था.


शायद विपक्ष को  पता था कि सरकार चलाने मे आप में क्या कमियाँ हैं और सरकार कैसे गिराई जा सकती है. इसी चाल की तहत कांग्रेस ने भद्दा मजाक कर स्पीकर को अधिकार हीन कर दिया. उधर और तीखा होते हुए आप भी आगे बढ़कर जन लोकपाल पारित करने की कोशिश करने लगी. संवैधानिक तरीकों से अभिज्ञ होते हुए शायद गलत तरीके अपना गई. उपराज्यपाल का समर्थन नहीं मिला..

संवैधानिक तरीका गलत हो या सही - जब तक संविधान में सुधार नहीं कर लिया जाता – अपनाना ही पड़ेगा. गलत को सही करने के बाद ही सही तरीका अपनाया जा सकता था. पर आप ने संविधान को ताक पर रखकर बिल पास कराना चाहा. कांग्रेस व भाजपा को मौका मिल गया और आप की कमी को उजागर करने के लिए एक प्रस्ताव पास कर स्पीकर को अधिकारों से वंचित कर दिया. उधर लोकसभा में तेवर देखते हुए विपक्ष ने विधानसभा में भी हंगामा किया. दोहरे मार से अब आप बौखलाई और.... केजरीवाल को सरकार से बचने का मौका मिल गया. उसने पद से इस्तीफा दिया. अब दौर चलेगा कि विपक्ष का समर्थन न मिलने के कारण जनलोकपाल पारित नहीं हो सका, सो और भी प्रस्ताव पारित नहीं हो पाएंगे – ऐसी सरकार चलाने से क्या फायदा.

ठीकरा फोड़ने के लिए सर तो मिल ही गया. उधर विपक्ष चाहेगी कि जिम्मेदारी आप पर आए. पक्ष और विपक्ष दोंनों चाहेंगे कि यह मुद्दा लोकसभा चुनाव के लिए भुनाया जा सके. देखना है कौन भैंस ले जाएगा.


लक्ष्मारंगम.


केजरीवाल, kejariwal

रविवार, 9 फ़रवरी 2014

ई - सुविधा

ई - सुविधा

कल मैंनें बैंक में रुपए लेने के लिए चेक दिया. पता लगा लिंक फेल है. कब आएगा कोई पता नहीं है. सारे बैंक में लोगों की भीड़ लगी है और सबको एक ही इंतजार है. लिंक कब आएगा.

सोचा यह क्या तमाशा है ... जब नेट बैंकिंग नहीं था, तब भी तो बैंक चलते थे. तो अब क्यों बंद हो गया है. अच्छा है कि हम तकनीकी तौर पर काफी आगे बढ़ गए हैं. अब तकनीकी के बिना काम हो ही नहीं पाता. शायद यही सोच हमें आलसी बना जाती है. जितना काम पहले बिना नेट बैंकिंग के होता था, वह भी आज नहीं हो पाता – यदि लिंक फेल हो गया हो तो. हम तकनीकी तकलीफ को झेल जाते हैं.

ऐसी ही मुसीबत है रेल्वे स्टेशनों पर आरक्षित टिकट बुक करने में. – लिंक फेल हो गया तो कीजिए इंतजार - जब तक न आए – कब आएगा भगवान ही जानता होगा. इस बीच, और जगह जहाँ लिंक ठीक है, वहाँ से टिकट बुक हो रहे होंगे. जब यहाँ लिंक आएगा, तब केवल वेइटिंग लिस्ट टिकट ही मिलेंगे. इसकी वजह से जो तकलीफ हुई, जो नुकसान हुआ उसका जिम्मेदार कौन. कोई शादी में नहीं पहुँच पाया तो कोई मातम में नहीं पहुँच पाया. किसी की फ्लाईट छूट गई, तो किसी का इंटर्व्यू छूट गया. किसी को कुछ नहीं पड़ी है. इस पर कोई पी आई एल लगाकर देखना पड़ेगा कि न्यायालय क्या कहना चाहेगा.

बैंक में भी अपने बैंक खाते से पैसे देने में क्या संकोच है. एंट्री तो बाद में भी की जा सकती है. दूसरे बैंक से संबंध टूट गया है पर अपने बैंक के सारे हिसाब तो अपने ही पास हैं. बैंक ट्राँसफर के भी आवेदन ले सकते हैं और ट्रांसफर भी बाद में किया जा सकता है. लेकिन कौन करेगा. बढ़िया आराम से बैठो, जब लिंक आएगा तब तक. यदि आवेदन रख लिया जाए तो ग्राहकों को फिर बैंक आने की जरूरत नहीं पड़ेगी. कई ग्राहक ऐसे होंगे जो दूर से आ रहे हैं और फिर नहीं  सकते या किसी काम की वजह से बाहर जाना चाहते हैं. उनके लिए कम से कम सुविधा तो दी ही जा सकती है. लेकिन सुविधाओं ने हमें उनका गुलाम बना लिया है या यों कहिए कि हम सुविधाओं के गुलाम हो गए हैं. सुविधा एक बार मिल गई तो बिना सुविधा के किया जाने वाला काम तो होगा ही नहीं. सुविधा दीजिए फिर काम की बात कीजिए. यही समस्याएं है, जहाँ कहीं भी इलेक्ट्रॉनिक   सुविधाएं उपलब्ध कराई गई हैं.


हमारे कार्यालय में भी ऐसा ही हुआ. अग्निशमन के पानी के लिए एंजिन, डीजल से चलता है. उसकी टंकी में 200 लीटर डीजल भरा जा सकता है. ज्यादा देर चलने पर टंकी में डीजल भरते रहना पड़ता है. इसके बार बार के झंझट से मुक्ति पाने के लिए  ऑटोमेशन किया गया. यानी डीजल कम होने पर पंप अपने आप चलकर टंकी में डीजल भर देता है और भरने पर अपने आप बंद हो जाता है. अब मजदूरों को तेल भरने की जरूरत नहीं है.

एक बार अग्निशमन ट्रायल के समय पानी बंद हो गया. सबकी किरकिरी हो गई. जाँच से पता लगा कि फायर फायटिंग एंजिन के टंकी में डीजल नहीं है. कारण बहुत देर से बिजली नहीं है और बैटरी डिस्टार्ज हो गई है. इसलिए ऑटोमेशन का सोलेनॉइड वाल्व काम नहीं किया. फलस्वरूप डीजल नहीं भर पाया. फिर बात आई कि फिर मजदूरों से क्यों नहीं भरवाया गया. तब कहीं जाकर पता चला कि ऑटोमेशन के दौरान मजदूरों से तेल भरने की सुविधा खत्म कर दी गई है.

पहले जब मोटर सायकिल या कार नहीं होती थी तब कितने किलोमीटर पैदल चले जाते थे. सायकिल आई तो चलना कम हो गया और बिन सयकिल के अब ज्यादा चला नहीं जाता. बाद में मोटर सायकिल आई तो बिना मोटर सायकिल के अब ज्यादा दूर जाया नही जाता. अब कार आ गई है तो दो चार किलोमीटर से ज्यादा जाना हो तो कार चाहिए. कार में प्रोब्लेम है तो ठीक होने पर जाएंगे. अन्यथा टेक्सी कर लेंगे पर मोटर सायकिल या सायकिल से जाना संभव नहीं होता.

हुई ना वही बात कि वाशिंग मशीन आने से पहले कपड़े हाथ से बाथरूम में धुल जाया करते थे. अब वाशिंग मशीन आ गई है सो हाथ से कपड़े धोने की जरूरत नहीं होती. अच्छा है आराम से काम हो जाता हैं. लेकिन जब बिजली बंद हो जाए या वाशिंग मशीन में कोई खराबी आ जाए तो, हाथ से कपड़े नहीं धुल सकते . अब बिजली आने पर ही कपड़े धुलेंगे या कपड़े लाँड्री से धुल कर आएँगे.

बंग भाषा के वर्णाक्षरों के सूत्रधार डॉ. ईश्वरचंद्र विद्यासागर जी के बारे सुना है कि वे पाठ पूरा करने के बाद किताब से पृष्ठ ही फाड़ दिया करते थे. पर उन्हें पुराना पाठ हमेशा के लिए याद रहता था. एक यह जमाना है कि सुविधा मिली तो पुराना तरीका बंद ही कर दिया भले मिली हुई सुविधा बंद ही हो गई हो. यानी कि चम्मच से खाना सीख लिया तो उंगलियाँ केवल चम्मच पकड़ने का काम करेंगी. चम्मच न मिलने पर भी हाथ से खाना नहीं खाया जाएगा. संभवतः चम्मच से खाना सीखने पर बाकी उंगलियाँ काट ली जाएंगी. यानि आगे पाठ  पीछे सपाट.

अब लोग बताएं ऑटोमेशन हमारे लिए वरदान है या अभिशाप...


लक्ष्मीरंगम.